प्रतिवर्ष 31 मई को मनाया जाने वाला ‘विश्व तंबाकू निषेध दिवस’ इस बार एक बेहद जरूरी चेतावनी लेकर आया है। वर्ष 2025 की थीम है ‘अपील का पर्दाफाश: तंबाकू और निकोटीन उत्पादों पर उद्योग की रणनीति को उजागर करना’। यह विषय केवल एक जागरूकता अभियान भर नहीं बल्कि एक वैश्विक जनस्वास्थ्य आपात स्थिति की तरफ इशारा है, जहां तंबाकू उद्योग ने खासतौर पर बच्चों और किशोरों को अपना निशाना बनाकर भविष्य की पीढ़ियों को लत में धकेलने की रणनीति अपनाई है। आज जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन और कई संस्थाएं तंबाकू मुक्त दुनिया के लिए लड़ाई लड़ रही हैं, वहीं तंबाकू और निकोटीन उत्पादक कंपनियां बच्चों के स्वाद और पसंद का अध्ययन करके उन्हें कैंडी-जैसे स्वाद और आकर्षक रंग-बिरंगे डिजाइनों के जरिये लुभा रही हैं। यह न केवल नीतिगत नैतिकता का हनन है बल्कि किशोर मस्तिष्क को व्यवस्थित ढ़ंग से गुलाम बनाने की योजना का हिस्सा है।
डब्ल्यूएचओ और तंबाकू उद्योग पर नजर रखने वाली संस्था ‘स्टॉप’ की रिपोर्ट ‘हुकिंग द नेक्स्ट जनरेशन’ बताती है कि उद्योग किस प्रकार अपने उत्पादों को युवाओं के स्वाद और स्टाइल के अनुसार तैयार करता है और उन्हें सोशल मीडिया, गेमिंग ऐप्स तथा प्रभावित करने वाले डिजिटल मार्केटिंग साधनों के जरिए सीधे टारगेट करता है। रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर 13 से 15 वर्ष के बीच के अनुमानित 3.7 करोड़ किशोर किसी न किसी रूप में तंबाकू का उपयोग कर रहे हैं। यह आंकड़ा जितना भयावह है, उतना ही चिंता का विषय यह है कि अब तंबाकू का रूप बदल गया है। ई-सिगरेट, निकोटीन पाउच, स्नस, हिट-नॉट-बर्न डिवाइसेज, और धूम्ररहित उत्पादों ने बच्चों को एक ऐसा विकल्प दे दिया है, जिसे वे पारंपरिक सिगरेट से कम हानिकारक मानते हैं जबकि वास्तविकता में यह निकोटीन की अधिक शक्तिशाली, आकर्षक और घातक खुराक है।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार उद्योग जानबूझकर ऐसे उत्पाद डिज़ाइन कर रहा है, जो बच्चों के लिए मिठाई या खिलौनों जैसे प्रतीत हों। अमेरिका में एक अध्ययन से यह सामने आया है कि यदि इन उत्पादों से कैंडी, बबलगम और फल जैसे स्वाद हटा दिए जाएं तो बड़ी संख्या में किशोर इन्हें तुरंत छोड़ देंगे। इसका मतलब स्पष्ट है, तंबाकू उद्योग जानबूझकर युवा दिमागों को ‘एक्सपोजर’ और ‘अपील’ के माध्यम से निशाना बना रहा है ताकि किशोरावस्था में ही उन्हें जीवनभर के ग्राहकों में बदला जा सके। डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक ने इस पर गहरी चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि यह उद्योग मूल रूप से कैंडी-स्वाद वाले जाल का निर्माण कर रहा है, जो बच्चों को धीमे जहर की लत लगाने की साजिश है। यदि सरकारें समय रहते कठोर कार्रवाई नहीं करती तो यह उद्योग पूरे विश्व में नई पीढ़ियों के स्वास्थ्य को तबाह कर देगा। डब्ल्यूएचओ की सिफारिशें स्पष्ट हैं, स्वादयुक्त तंबाकू और ई-सिगरेट पर प्रतिबंध, इनडोर सार्वजनिक स्थलों को पूर्णतया धूम्रपान मुक्त बनाना, विज्ञापन और प्रचार पर पूरी तरह रोक, करों में वृद्धि और बच्चों व युवाओं के नेतृत्व वाली जनजागरूकता मुहिम को मजबूती देना।
‘यूनियन फॉर इंटरनेशनल कैंसर कंट्रोल’ (यूआईसीसी) ने भी चेताया है कि युवाओं को कैंसर के दायरे में धकेलने वाली इस रणनीति का मुकाबला करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। यूआईसीसी के अनुसार, वैश्विक स्तर पर कैंसर से होने वाली मौतों में 25 प्रतिशत मौतें तंबाकू के कारण होती हैं, जो प्रतिवर्ष 25 लाख के आसपास हैं। विशेषकर फेफड़ों के कैंसर में 85 प्रतिशत मौतें केवल धूम्रपान से जुड़ी हैं। यूआईसीसी के वरिष्ठ विशेषज्ञ यानिक रोमेरो का मानना है कि तंबाकू उद्योग की ऑनलाइन आक्रामक रणनीति, पारंपरिक विज्ञापन प्रतिबंधों को दरकिनार करने वाली डिजिटल पहुंच और नए उत्पादों का प्रचार आने वाली पीढ़ियों को गहरे संकट में डाल सकता है।
जहां पूरी दुनिया में तंबाकू उपयोगकर्ताओं की संख्या वर्ष 2000 में 1.36 अरब से घटकर अब 1.25 अरब हो गई है, वहीं चिंता इस बात की है कि 13-15 साल के बच्चों में इसका प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि व्यस्कों में जहां जागरूकता आई है, वहीं युवा पीढ़ी नई तंबाकू रणनीतियों की शिकार हो रही है। इसमें दोष सिर्फ उद्योग का नहीं बल्कि नीतिगत उदासीनता का भी है। भारत की स्थिति पर नजर डालें तो डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट ‘ग्लोबल रिपोर्ट ऑन ट्रेंड्स इन प्रीवलेंस ऑफ टोबैको यूज 2000-2030’ के अनुसार यहां 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के 25.1 करोड़ लोग अभी भी तंबाकू का सेवन करते हैं। इनमें 79 प्रतिशत पुरुष और 21 प्रतिशत महिलाएं हैं। अकेले खैनी का सेवन करने वालों की संख्या 11 करोड़ से अधिक, गुटखे के 7 करोड़ और तंबाकू के साथ सुपारी लेने वालों की संख्या 5 करोड़ से ज्यादा है। इन आंकड़ों से भारत में तंबाकू की पकड़ का अनुमान लगाया जा सकता है।
धूम्ररहित तंबाकू, जैसे गुटखा, खैनी, जर्दा भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बेहद लोकप्रिय हैं लेकिन स्वास्थ्य के लिहाज से अत्यंत घातक हैं। ‘ऑक्सफोर्ड एकेडमिक’ के निकोटीन एंड टोबैको रिसर्च जर्नल में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि इन उत्पादों से जुड़ी बीमारियों का इलाज बहुत महंगा साबित हो रहा है। यदि नीति में बदलाव नहीं हुआ तो अकेले भारत में इनका स्वास्थ्यगत आर्थिक बोझ 1900 करोड़ डॉलर (लगभग 1.58 लाख करोड़ रुपये) तक जा सकता है। पाकिस्तान पर यह बोझ करीब 25 हजार करोड़ और बांग्लादेश पर 12,530 करोड़ रुपये का हो सकता है। इस अध्ययन में साफ कहा गया है कि यदि भारत और दक्षिण एशिया में नाबालिगों को तंबाकू उत्पाद बेचने के कानून मजबूत नहीं हुए तो आने वाले समय में युवाओं में तंबाकू की लत न केवल एक सामाजिक अभिशाप बन जाएगी बल्कि चिकित्सा अर्थव्यवस्था पर भी कहर बनकर टूटेगी।
विशेषज्ञ मानते हैं कि कई देशों में धूम्ररहित तंबाकू उत्पादों के लिए नीतियां बेहद कमजोर हैं। नाबालिगों को ये उत्पाद आसानी से स्कूलों के पास, दुकानों पर और गली-मोहल्लों में उपलब्ध हो जाते हैं। न तो इन पर पर्याप्त चेतावनी दी जाती है, न ही इनके प्रचार-प्रसार पर प्रभावी रोक है। यही वजह है कि बच्चों में तंबाकू उत्पादों की लत एक महामारी का रूप ले रही है। यदि नीतियों में सुधार नहीं हुआ तो न केवल किशोर बल्कि महिलाएं भी तेजी से इसका शिकार बन सकती हैं। ‘स्टॉप’ संस्था के निदेशक जॉर्ज एल्डे के अनुसार, युवा पीढ़ी तंबाकू उद्योग के लिए एक ‘लाइफटाइम रेवेन्यू मॉडल’ है और यही कारण है कि उद्योग लगातार ऐसा माहौल बनाने की पैरवी कर रहा है, जो लत को सस्ता, सुलभ और आकर्षक बना दे। यदि नीति निर्माता अब भी निष्क्रिय रहे तो यह महामारी विकराल रूप ले सकती है और हमें तंबाकू और निकोटीन के नए स्वरूपों से उत्पन्न सामाजिक, मानसिक और शारीरिक संकट की नई लहर का सामना करना पड़ेगा।
डब्ल्यूएचओ ने इस बार की थीम के माध्यम से न केवल उद्योग की रणनीतियों को उजागर किया है बल्कि एक स्पष्ट चेतावनी भी दी है कि यदि इन उत्पादों की अपील को खत्म नहीं किया गया तो लाखों बच्चे हर साल एक घातक आदत के शिकार होंगे। आकर्षक रंग, कैंडी-जैसे फ्लेवर, झूठे दावे, ग्लैमराइज्ड विज्ञापन, डिजिटल माध्यमों की पहुंच, इन सबके माध्यम से यह उद्योग युवाओं की मासूमता का व्यापार कर रहा है। ऐसे में अब वक्त आ गया है, जब तंबाकू नियंत्रण सिर्फ स्वास्थ्य मंत्रालय की नहीं बल्कि पूरे समाज की प्राथमिकता बने। आज आवश्यकता है व्यापक जनजागरूकता, कड़े कानूनी प्रतिबंध, स्कूल-कॉलेज स्तर पर शिक्षा कार्यक्रम, सोशल मीडिया निगरानी और ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर प्रतिबंधों की। यदि हम अगली पीढ़ी को बचाना चाहते हैं तो तंबाकू उद्योग के पर्दे के पीछे की साजिशों को उजागर कर उन्हें निष्क्रिय करना ही होगा। यह सिर्फ स्वास्थ्य का नहीं, नैतिकता और भविष्य का भी प्रश्न है।
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