23 मार्च 2013 की शाम याद है!
नहीं तो मैं याद दिला देता हूं-
इस शाम से पहले दिल्ली के रायसीना रोड पर स्थित बुद्धिजीवियों का जमावड़ा कहे जाने वाले प्रेस क्लब में ब्रह्मोस की प्रतिकृति पूरी शान से खड़ी थी। किन्तु शाम होते-होते वहां सिर्फ उसका ठूंठ बचा था… प्रतिकृति नदारद नहीं हुई, चोरी भी नहीं हुई, बल्कि तोड़ दी गई। …और वह भी पहली बार नहीं बल्कि दूसरी बार। इस मुद्दे को पॉञ्चजन्य ने प्रमुखता से उठाया था।
वाह रे बुद्धिजीवियों! एक प्रतिकृति पर इतना गुस्सा!
किन्तु क्यों ? जरा गौर कीजिए–
हर बार जब देश की सीमाओं पर तनाव बढ़ता है, जब मिसाइल की खबरें सुर्खियां बनती हैं, तो देश के भीतर एक और हलचल शुरू हो जाती है। ये हलचल सिर्फ सैन्य रणनीति या अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तक सीमित नहीं रहती, बल्कि भारतीय समाज के भीतर मौजूद विचारधाराओं, असुरक्षाओं और आकांक्षाओं को भी उजागर करती है। ब्रह्मोस, जिसे भारत और रूस ने मिलकर विकसित किया, और जिसका नाम ब्रह्मपुत्र और मॉस्कोवा नदियों के संगम से लिया गया है, सिर्फ एक मिसाइल नहीं, बल्कि भारत की तकनीकी, सामरिक और मनोवैज्ञानिक चेतना का प्रतीक बन चुका है।
ब्रह्मोस की तकनीकी विशेषताएं अपने आप में अद्वितीय हैं। यह सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल है, जो मैक 2.8 से 3.0 की गति से उड़ सकती है (यानी ध्वनि की गति से लगभग तीन गुना तेज)। इसकी मारक क्षमता 290 से 800 किलोमीटर से अधिक तक है, और यह 200–300 किलोग्राम तक का पारंपरिक या परमाणु युद्धास्त्र ले जा सकती है।
इसकी सबसे बड़ी विशेषता है -मेनुवरेबल तकनीक। यानी दागे जाने के बाद भी यह अपने मार्ग को बदल सकती है, चलते-फिरते लक्ष्यों को भी भेद सकती है, और रडार या अन्य मिसाइल पहचान प्रणालियों को चकमा देने में सक्षम है। थलसेना, जलसेना और वायुसेना—तीनों के लिए यह एक ऐसी मिसाइल है, जो भारत की सुरक्षा को बहुआयामी और लचीला बनाती है।
लेकिन ब्रह्मोस की गूंज सिर्फ रणभूमि तक सीमित नहीं है। यह गूंज भारतीय समाज के भीतर भी सुनाई देती है, विशेषकर उन वर्गों में, जिन्हें भारत की सैन्य शक्ति के बढ़ने से असहजता होती है। जब भी भारत ब्रह्मोस जैसी मिसाइलें तैनात करता है, या सर्जिकल स्ट्राइक करता है, तो देश के भीतर शांति-शांति! और ‘डि-एस्केलेशन’ की आवाजें उठने लगती हैं।
जरा ध्यान से सुनेंगे तो पाएंगे कि ये आवाजें अक्सर उन मंचों से आती हैं, जहां प्रेस क्लबों, विश्वविद्यालयों और मीडिया के नाम पर बहसें होती हैं। यहां तर्क दिए जाते हैं कि सैन्य ताकत से शांति नहीं आती, कि हथियारों की होड़ से तनाव बढ़ता है।
किंतु आज पहलगाम के दर्द और ऑपरेशन सिंदूर के पराक्रम की छांव में बैठकर शांति से सोचिए- क्या ये तर्क निष्पक्ष होते हैं? क्या यह तर्क भारत और इसके समाज के हित में दिए जाते हैं? या कहीं न कहीं, इनमें उस असहजता की झलक भी मिलती है, जो भारत के आत्मनिर्भर और सशक्त होने से उपजती है?
जरा और ध्यान से देखिए तो पाएंगे कि खास मौकों पर शांति का राग गाने वाले यह शांति दूत और उनके हिमायती ऐसे हैं जो वर्ष भर अलग-अलग स्थान पर नक्सलियों की हिंसा और आतंकियों की करतूतों को व्यवस्था की उपेक्षा या मानवाधिकार हनन के फर्जी नैरेटिव से जोड़ने का बौद्धिक खेल-खेलते रहते हैं।
यह सवाल सिर्फ विचारधारा का नहीं, बल्कि इसका परीक्षण आत्मविश्वास और असुरक्षा की कसौटियों पर भी होना चाहिए। ब्रह्मोस का डर पाकिस्तान के किसी ISI जनरल को हो, यह स्वाभाविक है। लेकिन जब भारत में बैठे कुछ बुद्धिजीवी इसे उकसावे की राजनीति कहते हैं, तो असल चिंता भारत की शक्ति से है, न कि युद्ध की विभीषिका से, क्योंकि हिंसा को बदलाव का रास्ता बताने की पैरवी तो साल भर ऐसे लोग करते ही रहते हैं।
दरअसल, ब्रह्मोस स्वदेशी वैज्ञानिकों, DRDO, और भारतीय उद्योगों की सामूहिक उपलब्धि है। सुरक्षा क्षेत्र की यह धमक स्वदेशी का भी परोक्ष उद्घोष भी है। यही बात उन वर्गों को सबसे अधिक खलती है जिनकी आंखों में सशक्त भारत की बजाय ‘Bleed india with a thousand cut’s’ का सपना पलता है।
‘Bleed india with a thousand cut’s’ (हजार जख्म देकर भारत को लहूलुहान करने) की नीति पाकिस्तान के पूर्व सैन्य तानाशाह जनरल जिया-उल-हक के दिमाग की उपज मानी जाती है। यह नीति 1980 के दशक में बनी और लागू की गई थी, जब जिया-उल-हक पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। इसका उद्देश्य पारंपरिक युद्ध के बजाय छद्म युद्ध (proxy war) के माध्यम से भारत को लगातार आंतरिक अस्थिरता और आतंकवाद से कमजोर करना था। इसके तहत भारत के भीतर कश्मीर, पंजाब (खालिस्तान आंदोलन), और अन्य सीमावर्ती इलाकों में उग्रवाद और आतंकवाद को बढ़ावा देने की योजना बनाई गई। आईएसआई (Inter-Services Intelligence) को इस नीति को लागू करने का प्रमुख उपकरण बनाया गया।
प्रेस क्लब, जो दुनिया भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक होता है, भारत में कई बार विचारधारा विशेष का मंच बन जाता है। यहां जेएनयू में लगे नारे प्रेस रिलीज़ बन जाते हैं, दानवों के लिए ‘मानवाधिकार’ की गोष्ठियां होती हैं, और सेना के पराक्रम की आलोचना के लिए तर्क पहले से पैनाकर रखे जाते हैं। यह समझने की बात है कि युद्धभूमि अब केवल सीमा तक सीमित नहीं है, माइक्रोफोन और पैनल डिस्कशन में लड़ी जाती है, और यह देश की राजधानी के बीचों-बीच मौके की ऐसी जगह है जहां वामपंथी मोर्चा बहुत पहले से तैनात है।
भारत जैसे ही आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता है, जैसे ही HAL, DRDO, L&T जैसे भारतीय नाम रक्षा क्षेत्र में चमकते हैं, कुछ ‘सिक्योरिटी एक्सपर्ट्स’ को उबकाई आने लगती है, भारत की हर पकड़ बढ़त और पाकिस्तान को लगने वाली हर चोट के साथ इनकी बेचैनी बढ़ जाती है। भारत ब्रह्मोस तैनात करे तो इन्हें ‘युद्ध का उन्माद’ दिखता है, चीन आंखें तरेरे तो यह ड्रैगन को झिड़कने की बजाय उल्टा भारत को डराने लगते हैं। जब पलटकर इनसे देश और स्वाभिमान से जुड़े प्रश्न किए जाएं तो इनका वाई-फाई डाउन हो जाता है।
जब भारत POK में सर्जिकल स्ट्राइक करता है, तो ये ‘युद्ध रोकने की अपील’ जारी करते हैं, ताकि अगली बार भारत तैयारी न करे। इनका चश्मा, दृष्टिकोण और रणनीति एकदम साफ है- ‘सतर्क मत हो, शक्तिशाली मत बनो, और जब हमला हो, तो हमें बीच में रखते हुए बातचीत करो।’
जब ब्रह्मोस जैसे हथियार भारत की रक्षा में तैनात होते हैं, तभी कुछ बुद्धिजीवी ‘तनाव बढ़ाने’ की बात करने लगते हैं। पर जरा खंगालियेगा तो पाएंगे कि उन्हीं के ट्विटर पर न तो कभी 26/11 के लिए आक्रोश दिखता है, न पुलवामा के लिए पीड़ा। पाकिस्तान के पिट्ठू आतंकी निर्दोषों को गोली मार दें तो वे चुप, भारत मुंहतोड़ जवाब दे तो वे ‘ग्लोबल इमेज’ की चिंता में दुबले हो जाते हैं।
दरअसल, यह वामपंथी वर्ग भारत में बैठकर पाकिस्तान की नीति जमीन पर उतरने का काम करता है- कि भारत कितनी दूरी तक मार करे, कितनी आवाज़ में बात करे, और कितनी बार चुप रहे। यह भी सच है कि युद्ध किसी के लिए भी सुखद नहीं होता। शांति, संवाद और विवेक की आवश्यकता हर सभ्य समाज की बुनियादी कसौटी है। लेकिन जब यह विवेक केवल भारत के लिए, केवल भारतीय सेना के लिए, केवल भारतीय वैज्ञानिकों के लिए ही अपेक्षित हो, और शेष दुनिया के लिए नहीं—तो यह विवेक नहीं, एकपक्षीयता बन जाता है। ब्रह्मोस की गूंज हमें यही याद दिलाती है कि सुरक्षा और शांति दोनों जरूरी हैं-और दोनों के लिए संवाद भी। भारत की असली ताकत इसी विविधता, इसी बहस, इसी जिजीविषा में है।
भारत में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जिस शौर्य और फिर सीजफायर के दौरान जिस धैर्य का प्रदर्शन किया वह इसी विविधता और इसी जीवट की झलक है।
एक झपट्टे में नूरखान जैसे उधेड़े गए अड्डे यह बता रहे हैं कि पाकिस्तान के सबसे सुरक्षित कहे जाने वाले गढ़ों में भी अब कुछ भी सुरक्षित नहीं है। सैटेलाइट इमेज पूरे विश्व में इस बात की मुनादी कर रही हैं। ब्रह्मोस अब केवल मिसाइल नहीं, चेतना है। यह चेतना वामपंथियों को डराती है, किंतु साथ ही पूरे देश को जगाती है कि भारत अब अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं, बल्कि अपनी तकनीक और अपनी शर्तों पर खड़ा है।
यह चेतना हमें सिखाती है कि प्रेस क्लब या ऐसे अन्य स्थानों पर लगे ब्रह्मोस के प्रतीकों पर बुरी नजर डालने वाले उन कथित बुद्धिजीवियों की बौद्धिक नजर उतारना अब राष्ट्र हित में आवश्यक है। हर ब्रह्मोस को एक लेख की आवश्यकता है, जो उसकी वैचारिक सुरक्षा करे। हर सर्जिकल स्ट्राइक के बाद एक नैरेटिव स्ट्राइक होनी चाहिए कि यह युद्ध नहीं, न्याय का प्रतिकार है। और हर बार जब कोई वामपंथी “शांति” की बात करे, तो हम पूछें, किसकी? भारत की, या पाकिस्तान की?
ब्रह्मोस का असली वार उस सीमा पार नहीं, बल्कि उन दिमागी किलों पर होता है जो भारत की सैन्य शक्ति से भयभीत हैं। जो बार-बार कहते हैं, ‘युद्ध नहीं समाधान चाहिए,” असल में कह रहे होते हैं, ‘समाधान नहीं सतत व्यवधान चाहिए,’ ब्रह्मोस का यह वार अचूक रहा है क्योंकि सिंदूर की लाली उन लोगों के मुंह लाल कर गई जो अब तक आतंकियों के सुर में और मिलाते थे और ‘लाल सलाम’ के गीत गाते थे।
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