उमर रशीद
द वायर के पत्रकार ओमर रशीद इन दिनों रेप को लेकर चर्चा में हैं। इस बार उनकी मित्र ने ही उनका असली चेहरा दिखाया है। जो आरोप उनकी मित्र ने लगाए हैं, वे बहुत ही गंभीर हैं। गंभीर इसलिए हैं क्योंकि इससे यह पता चलता है कि कथित सेक्युलरिज्म को बचाए रखने के नाम पर लड़कियों को कितना सहना पड़ता है और लड़कियां इसे सहती हैं।
जरा कल्पना करें कि कोई लड़की अपनी देह पर तमाम अत्याचार इसलिए सह रही है कि उसके आवाज उठाने से कथित सेक्युलरिज्म को धक्का लगेगा। उस लड़की ने जो कुछ भी अपनी सोशल मीडिया पोस्ट पर लिखा है, वह दिल दहला देने वाला है। उसने यह भी लिखा कि तमाम अत्याचारों के साथ ही उसे बीफ (गौमांस) भी खाने पर बाध्य किया गया और वह भी इसलिए जिससे कि वह सेक्युलरिज्म का टेस्ट दे सके।
यह ओमर की मानसिक विकृति की पराकाष्ठा है। आखिर वह क्या मानसिकता है, जिसमें उन्हें हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व से इस सीमा तक घृणा करना सिखाया जाता है कि वे अपनी देह और आत्मा पर होने वाले तमाम अत्याचार सहती रहती हैं? इस आधार पर सहती हैं कि कहीं उनके द्वारा इन बातों को बताने के कारण कथित सेक्युलरिज्म पर आघात न हो जाए।
और उस पर उन लोगों की चुप्पी तो और भी घातक है जो लगातार सेक्युलरिज्म और महिला हितों के अगुआ बने रहते हैं। आखिर क्या कारण है कि उस लड़की के प्रति जस्टिस की मांग नहीं आ पाई है? आखिर क्या कारण है कि लोग सामने नहीं आए हैं जो यह कहें कि इस लड़की को न्याय मिलना चाहिए? वे कौन लोग हैं जो यह नहीं कह रहे कि सेक्युलरिज्म जांचने के लिए बीफ खिलाना एक बहुत ही गलत कदम था।
यह बहुत ही अजीब समय है जिससे होकर ये लड़कियां गुजरती हैं। कथित सेक्युलरिज्म का एक नशा उनपर होता है, उनके लिए हिन्दू और हिन्दुत्व और हिंदुओं के लिए कार्य कर रहे संगठन खलनायक होते हैं। उनकी दृष्टि में वे ऐसे संगठन होते हैं, जिनका होना ही देश मे रह रहे लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरा है।
विडंबना यह है कि कथित सेक्युलरिज्म के नाम पर सारा उत्पीड़न इनका होता है, और उनकी अभिव्यक्ति की आजादी तो छोड़ दीजिए, उन्हें किसी भी प्रकार की आजादी नहीं मिलती है। उन्हें न ही अपने मन से खाने की, अपने मन से पहनने की और अपने मन से सोने की आजादी कथित सेक्युलरिज्म की रुग्णता में मिलती है। यह और भी पीड़ादायक है कि कथित सेक्युलरिज्म में रहते हुए वे यदि अपनी पीड़ा को बाहर व्यक्त करने का प्रयास भी करती हैं तो भी उन्हें केवल और केवल कथित सेक्युलर वर्ग से दुत्कार ही मिलती है और कथित सेक्युलरिज्म का जो चैंपियन उनका बलात्कारी होता है, उसके साथ वह पूरा का पूरा वर्ग जाकर खड़ा हो जाता है, जिसे उस महिला के साथ खड़ा होना चाहिए।
इस महिला के साथ भी यही हुआ। न ही किसी कथित फेमिनिस्ट संगठन ने उसके लिए मोर्चा निकाला, न ही किसी फेमिनिस्ट लेखक ने उसके लिए लिखा, न ही किसी प्रगतिशील लेखक ने उसके पक्ष में लिखा और न ही द वायर के अन्य पत्रकारों ने यह कहा कि उनके साथी ने गलत किया।
उस लड़की को संभवतया यह पता होगा कि वह ऐसे ही अकेली पड़ जाएगी, इसीलिए उसने यह स्पष्टीकरण भी अपनी पोस्ट में दिया कि वह नहीं चाहती कि इस पोस्ट को कम्यूनल कोण से देखा जाए। उस लड़की को पता ही होगा कि द वायर के लिए ही स्वतंत्र रूप से काम करने वाली एक और पत्रकार रिजवाना तबस्सुम की आत्महत्या कैसे नेपथ्य में चली गई थी, जब बात कथित सेक्युलरिज्म पर आई थी।
इस लड़की की तरह रिजवाना का मुख्य शत्रु भी कथित हिंदुवादी सरकार और हिन्दुत्व ही था। रिजवाना द प्रिन्ट, और द वायर जैसी पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र रूप से कार्य करती थी। कोरोना काल था इसलिए वे शासन और प्रशासन के विरोध में लिखती थीं कि कहां पर क्या कमियां हैं । चूंकि शासन और प्रशासन दोनों ही भारतीय जनता पार्टी की सरकार के अधीन है तो रिजवाना कई कथित सेक्युलरिज्म के ठेकेदारों की प्रिय बन गई थीं।
वे लगातार आवाजें उठाती थीं और उन्हें सेक्युलरिज्म के चैंपियंस प्रेरित करते थे। और जब रिजवाना ने आत्महत्या की तो यही शोर मचा कि भगवा सरकार के विरोध में रिजवाना लिख रही थी, आवाज उठा रही थी इसलिए किसी बात पर बाध्य किया जा रहा होगा तो उसने आत्महत्या कर ली, मगर जैसे ही रिजवाना का सुसाइड नोट मिला, जिसमें उसने समाजवादी पार्टी के एक स्थानीय नेता पर आरोप लगाया था कि जो कुछ भी हुआ वह “शमीम नोमानी” के कारण हुआ, वैसे ही रिजवाना के लिए न्याय मांगने वालों की वाल पर चुप्पी छा गई।
ओमर रशीद के खिलाफ आवाज उठा रही इस लड़की को भी यह भलीभाँति पता होगा कि उसके साथ कोई नहीं आएगा, तभी शायद उसने बार-बार यह डिसक्लेमर भी लगाया कि उसकी पीड़ा को कम्यूनल एंगल न दिया जाए। ओमर एक नहीं कई महिलाओं के साथ संबंध में था। और उसे युवा प्रगतिशील महिलाओं को अपना शिकार बनाता था और वह यह कहते हुए उन्हें चुप रखता था कि यदि उन लोगों ने उसका नाम लिया तो वे हिन्दुत्व के हाथों में खेलेंगी।
(डिस्क्लेमर: ये लेख लेखक के खुद के विचार हैं। जरूरी नहीं कि पॉञ्चजन्य इन विचारों से सहमत हो)
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