वामपंथी विचारधारा सामाजिक असमानता के खिलाफ होने का दावा अपने जन्मकाल से करती रही है और उसके लिए उसने आर्थिक न्याय, सामाजिक न्याय, कम्युनिष्ट, समतावाद, साम्यवाद, माओवाद, फासीवाद, समाजवाद, प्रगतिवाद, समानता, , क्रांति, आन्दोलन, अधिकारवाद, साम्यवादी जैसे अनेक शब्द गढ़े हैं। कम्युनिष्ट मानते हैं कि क्रांति और हिंसा सत्ता को छीनने के लिए आवश्यक है। इसलिए ये जहां भी हैं, वहां अपनी सत्ता स्थापित होने तक लगातार कथित समाजवाद के नाम पर युद्ध करते और अनेक सामान्य लोगों तक को मौत के घाट उतार देने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं। इसके लिए इन्होंने माओवाद खड़ा किया है, जिसमें सशस्त्र विद्रोह, जन संघटन तथा रणनीतिक गठबंधनों के माध्यम से राज्य की सत्ता को हथियाने तक सतत संघर्ष करते रहना है।
माओवादी अपने विद्रोह के सिद्धांत के अन्य संघटकों का प्रयोग राज्य संस्थाओं के विरुद्ध दुष्प्रचार और गलत सूचना के रूप में भी करते हैं। इस प्रक्रिया को ‘प्रोट्रेक्टेड पिपल्स वार’ की संज्ञा दी गई है, जहां सत्ता हथियाने के लिए ‘मिलेट्री लाइन’ पर जोर दिया जाता है। माओवादी विचारधारा की मुख्य थीम ही राज्य की सत्ता को हथियाने के लिए हिंसा और विद्रोह का एक औजार के रूप में सहारा लेना है। इसके लिए ही विशेष रूप से इन्होंने अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र में लोगों में आतंक फैलाने के लिए पीपल्स गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) का कॉडर खड़ा किया है। वे मौजूदा राजनीतिक प्रणाली की कमियों के बारे में लोगों को कुछ इस तरह से बताते हैं कि वे सत्ता से संघर्ष, आन्दोलन और हिंसा करने के लिए एकजुट हो जाएं।
भारत में जब से ये माओवाद आया, तब से इसे हिंसा करते हुए देख सकते हैं। कभी भाषा तो कभी विकास के अभाव के नाम पर शोषित, शोषण और शोषक की नई-नई परिभाषाएं गढ़कर यहां की सनातन संस्कृति को विभक्त करने और आपस में लोगों को लड़ाने का कोई एक अवसर इसने नहीं छोड़ा है। अरुण शौरी अपनी पुस्तक ‘दी ग्रेट बेटरायल’ में इसका बहुत व्यापक रूप से खुलासा भी करते हैं। सत्ता के लिए हिंसा, इस रास्ते से निकला नक्सलवाद अब तक न जानें कितने लोगों की जान ले चुका है और इसके बाद भी रुकने का नाम नहीं लेता।
इस संदर्भ में देखा जाए तो ‘स्ट्रेटजी एंड टैक्टिक्स ऑफ इंडियन रिवोल्यूशन ये माओवादियों द्वारा लिखा गया सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इस पुस्तक में बहुत स्पष्ट रूप से माओवादी लिखते हैं, “हमारा उद्देश्य सशस्त्र युद्ध के माध्यम से भारत की राजनितिक सत्ता पर कब्ज़ा करना है, युद्ध से ही इस समस्या का समाधान करना है। माओवादी संगठन का मुख्य कार्य भारतीय सेना, पुलिस और सम्पूर्ण नौकरशाही व्यवस्था को युद्ध द्वारा नष्ट करना है।’’ यही कारण है कि अपनी विचारधारा के अनुरूप अब तक ये हजारों सेना के जवानों, आम लोगों और राजनेताओं को मार चुके हैं। किंतु आज का दौर इनके खात्मे का है, केंद्र सरकार की मंशा 2026 तक भारत से नक्सलवाद (माओवाद) को समाप्त कर देने की है, इसलिए देश में नक्सलियों का सफाया जारी है।
गृह मंत्रालय के आंकड़ों और ग्राउंड मीडिया सहित रिपोर्टों के अनुसार, 2024 में माओवादी हिंसा में 2010 के बाद से 81 प्रतिशत की कमी आई है, जबकि मौतों में 85 प्रतिशत की कमी आई है। माओवादियों के केंद्र छत्तीसगढ़ में हिंसा में 47 प्रतिशत की कमी आई है और हताहतों की संख्या में 60 प्रतिशत की कमी आई है। रणनीतिक ऑपरेशन किए जा रहे हैं और माओवादियों के गढ़ों को लगातार उनसे मुक्त कराया जा रहा है। यही कारण है कि आज नक्सलवाद के खिलाफ चलाए गए अभियानों ने बहुत बड़ी संख्या में नक्सलियों को आत्मसमर्पण कर विकास की मुख्य धारा में आने के लिए मजबूर कर दिया है। शेष पूर्ति हाल ही में छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ क्षेत्र में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में खूंखार नक्सल कमाण्डर बसवराजू उर्फ नंबाला केशव राव के मारे जाने ने पूरी कर दी है।
प्रतिबंधित नक्सली संगठन सीपीआई (माओवादी) का महासचिव बसवराजू ₹1.5 करोड़ का इनामी था, जो 2010 के चिंतलनार हमले में 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या और 2013 की झीरम घाटी घटना जैसे नरसंहारों का मास्टरमाइंड था। भारतीय जवानों ने अकेले इसे नहीं मार गिराया है, बल्कि इसके साथ अन्य 26 नक्सलियों को भी मौत के घाट उतार दिया है।
इस संदर्भ में रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार पंकज कुमार झा की टिप्प्णी भी अहम है, वे कहते हैं, छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की समाप्ति के लिए जनजाति समाज के बीच घर_घर जब अलख जगाने के लिए “फिर शुरू हुआ सलवा जूडूम। उसके साथ क्या साजिशें की गयी। कैसे टाइगर महेंद्र कर्मा जी की नृशंस हत्या हुई, ये सारी चीजें आंखों से अभी ओझल ही नहीं हो रही है। लम्बी दास्तान है – रानीबोदली, एर्राबोर, चिल्तननार, मदनवाड़ा से लेकर झीरम तक की, लाशें बिछती रही और लोग बुद्धिविलास करते रहे, जेएनयू आदि में जश्न मनता रहा। वक्त का पहिया घूमा, भाजपा फिर सत्ता में आयी। इस बार तैयारी पूरी थी क्योंकि भाजपा को यह साबित करना था तब कि वह जरूरी क्यों है। पिछले अनुभवों से लाभ लेकर न केवल युद्ध के मोर्चे पर बल्कि बौद्धिक मोर्चे पर भी इस बार तैयारी जोरदार थी।”
उन्होंने कहा, “जब दुनिया ‘ऑपरेशन सिंदूर’ देख रही थी, जब सारे समाचार माध्यम लाहौर और रावलपिण्डी का विध्वंस दिखाने में व्यस्त थे, तब यह एक युद्ध भीतर भी चल रहा था बस्तर के। हजारों जवान वहां कर्रेगुटा की पहाड़ी पर उतरे और बिच्छुओं का सफाया करना शुरू कर दिया। बड़ी सफलता आज एक करोड़ से अधिक के ईनामी पोलित ब्यूरो के सदस्य समेत ढाई दर्जन नक्सल शव में रूप में मिली है।”
देखा जाए तो सुरक्षा बलों की इस एक बड़ी सफलता से जहां उनके बीच जश्न का माहौल है तो वहीं नक्सलियों और उनके समर्थकों में भारी दुख और रोष है जोकि स्वभाविक भी है। किंतु जिस तरह से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा माओवादियों की मुठभेड़ में मारे जाने की ‘कड़ी निंदा’ की जा रही है, वह वास्तव में इस पार्टी के होने पर ही कई प्रश्न खड़े करती है। क्या लोकतंत्र और संविधान में विश्वास की दुहाई के बीच किसी भी राजनीतिक पार्टी द्वारा लाल आतंक और उनकी हिंसा को सही ठहराया जा सकता है? अथवा भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था और उसका अपना एक संविधान होने के बाद भी हिंसा के बल सत्ता हथियाने के समर्थन को उचित माना जाएगा? निश्चित ही आतंक की दोनों स्थिति शारीरिक और मानसिक किसी भी रूप में स्वीकार नहीं की जा सकती। लेकिन इस मामले में आया सीपीएईएम का बयान चौंकाता है।
सीपीआई महासचिव डी. राजा ने प्रतिक्रिया देते हुए लिखा, “सीपीआई छत्तीसगढ़ में कई वनवासियों के साथ एक वरिष्ठ माओवादी नेता की निर्मम हत्या की कड़ी निंदा करती है। यह आतंकवाद विरोधी अभियानों की आड़ में की गई न्यायेतर कार्रवाई का एक और उदाहरण है।”
CPI strongly condemns the cold-blooded killing of a senior Maoist leader along with several Adivasis in Chhattisgarh. It is yet another instance of extrajudicial action carried out under the guise of counterinsurgency operations.
The repeated use of lethal force instead of… pic.twitter.com/qWr5HzPlIH
— D. Raja (@ComradeDRaja) May 21, 2025
इसी प्रकार का एक पत्र माओवादियों की मुठभेड़ पर माकपा के पोलित ब्यूरो की तरफ से 22 मई को सामने आया है, जिसमें कहा जा रहा है, ‘‘माओवादियों की बातचीत के लिए बार-बार की गई अपीलों को नज़रअंदाज़ करते हुए, केंद्र सरकार और भाजपा के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने बातचीत के ज़रिए समाधान निकालने का विकल्प नहीं चुना है। इसके बजाय, वे हत्या और विनाश की अमानवीय नीति अपना रहे हैं। केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा समय सीमा दोहराते हुए दिए गए वक्तव्य और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री द्वारा यह बयान कि बातचीत की कोई ज़रूरत नहीं है, एक फासीवादी मानसिकता को दर्शाता है…हम सरकार से आग्रह करते हैं कि वह वार्ता के उनके अनुरोध को तुरंत स्वीकार करे तथा सभी अर्धसैनिक अभियान रोक दे।’’
CPIM Polit Bureau statement on the Encounter of 27 #Maoists in Chhattisgarh.
Read the statement at: https://t.co/oqSbJFLxJo pic.twitter.com/z5sxxaDqqa— CPI (M) (@cpimspeak) May 22, 2025
यहां सभी के सोचने के लिए है कि जब ये माओवादी नक्सली सरेआम लोगों को अपनी गोली का निशाना बना रहे थे! जब ये हमारे अर्धसैनिक बलों, जनप्रतिनिधियों, ग्रामवासियों की हत्याएं कर रहे थे, अब तक कई पत्रकारों को ये मार चुके हैं! तब यह मानवीय संवेदना कहां थी? तब ये सीपीआई और सीपीआईएम अपील करता क्यों नहीं दिखा? तब उसे ये हिंसा फासीवाद नजर क्यों नहीं आई? और तब भारत का संविधान इनके जहन से कहां गायब हो गया था? आज वाकई इनसे सवाल बहुत हैं।
हकीकत यही है कि वर्षों से लोकतंत्र और संविधान को खारिज करते आए नक्सली और उनके पैरोकार अब उसी संविधान का हवाला देकर माओवादी आतंकियों की कार्रवाई के खिलाफ राज्य की जवाबदेही की मांग कर रहे हैं। बसवराजू, जो कई नरसंहारों का मास्टरमाइंड था, उसे अब ‘वनवासियों का नायक’ बताया जा रहा है। सरकार के खिलाफ खुला पत्र जारी कर इन नक्सलियों के प्रति नरमी की मांग की जा रही है, केंद्र सरकार और राज्य सरकार से कहा जा रहा है कि आप अपने ‘ऑपरेशन कगार’ को रोक दें। पर अब बहुत देर हो चुकी है। देश के सामने आतंक के किसी भी रूप को झेलने की सारी सीमाएं समाप्त हो चुकी हैं। केंद्र सरकार ने जिस वामपंथी उग्रवाद की समस्या से समग्र रूप से निपटने के लिए 2015 में “राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना” को स्वीकृति दी थी, उसके आज सार्थक परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं।
केंद्र और राज्यों द्वारा वामपंथी उग्रवाद (एलडब्ल्यूई) से निपटने के लिए ‘राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना’ के दृढ़ कार्यान्वयन के परिणामस्वरूप भौगोलिक प्रसार और हिंसा दोनों के मामले में एलडब्ल्यूई में लगातार गिरावट आई है। वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिलों की संख्या में उत्तरोत्तर गिरावट दिखती है। पिछले छह वर्षों में वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिलों की तीन बार समीक्षा की गई है, जिसमें अप्रैल 2018 में 126 से घटकर 90 जिले, जुलाई 2021 में 70 और फिर अप्रैल 2024 में 38 जिले ही नक्सल प्रभावित रह गए थे। वामपंथी उग्रवादियों द्वारा की जाने वाली हिंसा में 2010 के उच्च स्तर की तुलना में 2024 में 81 प्रतिशत की कमी आई, (2024: 374, 2010:1936)। इसी अवधि के दौरान उग्रवादी हिंसा से मौतों (नागरिक + सुरक्षा बल) में भी 85 प्रतिशत की कमी आई है (2024: 150, 2010: 1005)।
छत्तीसगढ़ में, 2010 के उच्च स्तर (2024: 267, 2010: 499) की तुलना में 2024 में वामपंथी उग्रवादियों द्वारा की जाने वाली हिंसा में 47 प्रतिशत की कमी आई। इसी दौरान उग्रवादी हिंसा से मौतों (नागरिक + सुरक्षा बल) में भी 64 प्रतिशत की कमी आई है (2024: 122, 2010: 343)। वहीं, समीकरणों में मोदी सरकार द्वारा शुरू किए गए ‘ऑपरेशन कगार’ ने नक्सलवाद की जड़ों को उखाड़ फेंकने की दिशा में बड़े कदम उठाए हैं। अब नक्सल प्रभावित जिले घटकर 18 रह गए हैं, जिनमें से सिर्फ 6 जिले गंभीर रूप से प्रभावित हैं। इससे पहले, ‘ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट’ के तहत भी सुरक्षा बलों ने 1.72 करोड़ रुपये के इनामी 31 नक्सलियों को ढेर किया और 214 ठिकाने नष्ट किए गए गए थे ।
इन सभी कार्रवाईयों से लग रहा है कि केंद्रीय गृह मंत्री ने मार्च 2026 तक जो नक्सलवाद के पूरी तरह सफाए का लक्ष्य घोषित किया है, वह अवश्य ही पूरा होगा और देश नक्सलवाद से पूरी तरह से मुक्त होगा। वहीं दूसरी ओर कम्युनिस्टों, माओवादियों, वामपंथी दलों का भी एक चेहरा बेनकाब होता दिखता है कि वह इस ‘नक्सल समस्या’ को देश से समाप्त होते हुए नहीं देखना चाहते। तभी तो ये सभी शहरी नक्सली नरसंहारों के दोषियों को नायक बताने में जुटे हैं। अभी जिस तरह से सीपीआईएम का दर्द माओवादी नक्सलियों के मारे जाने पर झलक रहा है। उससे तो यही समझ आता है कि अनेकों सुरक्षा बलों का बलिदान सीपीआईएम के लिए कोई मायने नहीं रखता है।
(डिस्क्लेमर : स्वतंत्र लेखन, यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, आवश्यक नहीं कि पाञ्चजन्य उनसे सहमत हो।)
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