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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ @100 : राष्ट्र निर्माण की यात्रा, आपके सहभाग की प्रतीक्षा

जब संघ की स्थापना हुई, तब परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल थीं कि काम करना असंभव लग रहा था। जबकि हमने ऐसी कठिन परिस्थिति का निर्भीकता से सामना किया और लगातार काम करते रहे, फिर आज हम परिस्थिति की कठिनाई का सवाल क्यों उठाएं? आज तक हमारे काम की जो भी गति थी, वह ठीक थी। लेकिन अब कैसी होगी? क्या आप आज तक किए गए काम को पर्याप्त मानते हैं?

by हितेश शंकर
May 24, 2025, 08:16 am IST
in सम्पादकीय
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“जब संघ की स्थापना हुई, तब परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल थीं कि काम करना असंभव लग रहा था। जबकि हमने ऐसी कठिन परिस्थिति का निर्भीकता से सामना किया और लगातार काम करते रहे, फिर आज हम परिस्थिति की कठिनाई का सवाल क्यों उठाएं? आज तक हमारे काम की जो भी गति थी, वह ठीक थी। लेकिन अब कैसी होगी? क्या आप आज तक किए गए काम को पर्याप्त मानते हैं? मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि हर स्वयंसेवक के मन में कम से कम यही जवाब होगा कि जो काम होना चाहिए था, वह उतना नहीं हो पाया, और हम उसे जल्दी से जल्दी पूरा करने के लिए और अधिक प्रयास कर सकते हैं।” — डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

हितेश शंकर

आज, जब हम वर्ष 2025 के लगभग बीच में खड़े हैं, भारत विश्व मंच पर एक नई पहचान गढ़ रहा है। परम्परा से पराक्रम तक, आस्था से व्यवस्था तक और अधिकारों से लेकर कर्तव्य तक, भारत की यह छवि अनूठी है और हर दिन निखर रही है।

तकनीक, विज्ञान, अर्थव्यवस्था, खेल, संस्कृतिबोध-हर क्षेत्र में भारत ने अभूतपूर्व प्रगति और चेतना विकसित की है। लेकिन यह भी सच है कि सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक जागरण और बदलते वैश्विक परिदृश्य की चुनौतियां आज भी हमारे सामने हैं।

भारत की इस यात्रा में क्या आपको संघ दर्शन होते हैं, विशेषकर बड़ी परिघटनाओं में इसकी झलक कैसी है?
आशंकाओं, आपदाओं और विपत्तियों के बीच संघ का होना इस समाज को संबल और पूरे विश्व को आश्वस्ति देता है।

उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी के दौरान संघ के स्वयंसेवकों ने जिस सेवा-भाव, अनुशासन और समर्पण का परिचय दिया, उसने न केवल देशवासियों का, बल्कि वैश्विक समुदाय का भी ध्यान आकर्षित किया। आज जब युवा पीढ़ी वैश्विक प्रतिस्पर्धा, डिजिटल युगांतर और बदलती सामाजिक संरचनाओं से जूझ रही है, तब राष्ट्र निर्माण का यह अभियान और भी प्रासंगिक हो गया है।

संघ की सौ वर्षों की यात्रा केवल इतिहास नहीं, भविष्य की संभावनाओं की नींव है। आज, जब भारत ‘विकसित राष्ट्र’ बनने की आकांक्षा के साथ 2047 की ओर अग्रसर है, तब हमें एक ऐसे समाज की आवश्यकता है जो विविधता में एकता, विज्ञान में आस्था, और परंपरा में नवाचार का संतुलन साध सके।

संघ का कार्यक्षेत्र अब केवल शाखाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, महिला सशक्तिकरण, युवा नेतृत्व, डिजिटल साक्षरता तक हर क्षेत्र में स्वयंसेवक राष्ट्रहित में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। यह पदचाप सकारात्मक और सार्थकता की है। कल्पना कीजिए, 2047 में जब भारत अपनी स्वतंत्रता की शताब्दी मनाएगा, तब हमारा समाज कैसा होगा? जहां जाति, भाषा, क्षेत्र के भेद नहीं, बल्कि एक परिवार की अनुभूति होगी। जहां हर युवा अपने कर्तव्य और संस्कार के प्रति जागरूक होगा।

जहां विज्ञान और अध्यात्म, परंपरा और नवाचार, सेवा और समरसता का सुंदर समन्वय होगा। जहां भारत न केवल आर्थिक शक्ति, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक नेतृत्व में भी विश्वगुरु बनेगा। 2047 में हम एक ऐसे भारत को साकार होते देखेंगे, जहां गांव-शहर की सीमाएं नहीं, धरोहरों को संभालते विकास के सेतु दिखाई देंगे। जहां युवाओं की ऊर्जा, माताओं की आस्था और समाज की समरसता भारत को विश्वप्रेरणा बनाएगी।

क्या पूरी एक शताब्दी इस सपने को पालने का जतन करना और उसके लिए योग्य व्यक्तियों का निर्माण करना सरल कार्य था! यदि यह जतन न होता तो क्या यह सपना भी संभव होता?

1925 में उपेक्षा, विरोध और साधनों की अनुपस्थिति में जन्मा संघ, न केवल आज देश के कोने-कोने में पहुंच चुका है, बल्कि विविध क्षेत्रों और आयामों में अपना कार्य विस्तार कर रहा है। यह कोई चमत्कार नहीं, यह प्रमाण है उस कार्यपद्धति का, जो कर्तृत्व, अपनत्व और शील के आधार पर समाज का विश्वास जीतने में सफल रही।

1948 का राजनीतिक क्षोभ, 1975 की आपातकालीन यंत्रणाएं और श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान सरकार की आंख की किरकिरी बनने के बाद भी संघ सभी प्रतिबंधों को परास्त करते हुए विभिन्न न्यायालयी निर्णयों में बेदाग निकला और समाज के हर्ष का विस्तार किया। सेवाकार्य, वनवासी क्षेत्र- हर चुनौती ने संघ को और निखारा और समाज में इसकी स्वीकार्यता को नई ऊंचाई दी।

रा. स्व.संघ के 90 वर्ष पूरे होने पर पाञ्चजन्य ने विशेषांक प्रकाशित किया था

इस पूरे कालखण्ड में संघ के स्वयंसेवक केवल शाखा चलाने तक सीमित नहीं रहे। वे समाज के हर क्षेत्र में राष्ट्रहित में कार्यरत हैं। संघ के प्रचारक, जिन्होंने परिवार, कॅरियर और आराम सब त्यागकर जीवन समर्पित किया, आज भी गुमनाम रहकर लाखों जीवन गढ़ रहे हैं। यह सिद्धांतों के प्रति निष्ठा और परिस्थिति के अनुसार ढलते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ने का जीवंत उदाहरण है।

  •  अपने आचरण में जाति, वर्ग, क्षेत्र के भेद मिटाकर सबको एक परिवार मानने की दृष्टि (सामाजिक समरसता) लेकर बढ़ते भारतीय
  • परिवार ही समाज की आधारभूत इकाई है, यह मानकर परिवार में संस्कार और गुण संचय का भाव भरते राष्ट्रप्रेमी,
  •  पर्यावरण संरक्षण के लिए जल-जंगल-जमीन की अराजनीतिक अलख जगाते प्रकृति प्रेमी,
  •  भाषा, भूषा, भोजन, भजन, भ्रमण–अपने सम्पूर्ण जीवन में ‘स्व का गौरव’ प्रदीप्त करते मां भारती के लाल,
  •  लोकतंत्र और राष्ट्रीय भद्रता की मर्यादा के सम्मान में अधिकारों के लिए अड़ने की बजाए कर्तव्य पथ पर बढ़ते नागरिक।

यह संघ का पंच-परिवर्तन नहीं तो और क्या है? अपने जीवन में यह सभी भाव जगाते स्वंयसेवक संघ की परिभाषा के केंद्र में हो सकते हैं। किन्तु इन भिन्न-भिन्न गुणों की साधना करने वाले सभी लोग इस वृत्त की परिधि के स्वयंसेवक ही तो हैं!

राष्ट्र सर्वोपरि- यह सपना केवल सरकार या किसी संगठन का नहीं, यह हर भारतीय का है। आज अपने शताब्दी वर्ष की ओर कदम बढ़ाते संघ का आह्वान है-आइए, साथ चलें। अपने समय, सामर्थ्य और विचारों का योगदान करते हुए इस परिवर्तन यात्रा के सहभागी बनें।यदि आप यह सोचते हैं कि कोई और करेगा, तो याद रखिए, संघ में हर स्वयंसेवक यही मानता है, कोई नहीं करेगा, इसलिए मुझे करना है।

आज, जब दुनिया भारत की ओर आशा और विश्वास से देख रही है, तब हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम अपने भीतर के श्रेष्ठ को जगाएं, समाज में सकारात्मकता और समरसता का संचार करें।

संघ की शाखा में जब आप प्रवेश करेंगे, वहां आपको केवल अनुशासन या व्यायाम नहीं मिलेगा, मिलेगा अपनत्व, सेवा का भाव, और राष्ट्र के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा। हर स्वयंसेवक की कहानी, हर सेवाकार्य का अनुभव-यह बताता है कि परिवर्तन केवल नारे या योजनाओं से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत आचरण और सामूहिक प्रयास से आता है।

संघ को लेकर अनेक भ्रांतियां फैलाई गईं, कभी राजनीतिक दृष्टिकोण से, कभी पूर्वाग्रहों से, कभी अज्ञानवश। पाञ्चजन्य के इस अंक में सरसंघचालक जी का साक्षात्कार सारे भ्रमों को दूर करने वाला है। उन्होंने कहा है- ”संघ को बाहर से देखने वालों को उसका ढांचा दिखता है, जो अंदर से जीते हैं उन्हें आत्मचिंतन और सतत संवाद की परंपरा दिखती है।”तो, यदि आप संघ के विषय में जानना चाहते हैं, तो शाखा आइए। देखिए कैसे भिन्न भाषाओं, जातियों, वर्गों के लोग – बिना किसी प्रचार, प्रदर्शन, मीडिया प्रबंधन के–केवल मातृभूमि के लिए समर्पित भाव से एक साथ कार्य कर रहे हैं।

आइए, 2047 के भारत की कल्पना को साकार करने के लिए, अपने जीवन को राष्ट्र कार्य में समर्पित करें।
संघ से जुड़ना केवल संगठन का हिस्सा बनना नहीं, बल्कि अपने जीवन को एक बड़े उद्देश्य से जोड़ना है। आज ही निकटतम शाखा में जाएं, उस बंधुत्व और प्रेरणा को अनुभव करें और भारत के नव निर्माण के सहभागी बनें।आइए, भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने की इस यात्रा में अपने समय, ऊर्जा और विचारों का योगदान दें।

X@hiteshshankar

Topics: आरएसएस के सौ सालपांचजन्य संपादकीयराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघश्रीराम जन्मभूमि आंदोलनआरएसएस समाचारडॉ. केशव बलिराम हेडगेवारविकसित राष्ट्रस्वतंत्रता की शताब्दीपाञ्चजन्य विशेषभारत को पुनः विश्वगुरु
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