इस समय तुर्किये चर्चा में है। इसलिए क्योंकि उसने भारत के खिलाफ पाकिस्तान को अपना पूर्ण समर्थन दिया है। पाकिस्तान के साथ उसके बहुत मधुर संबंध हैं और तुर्किये के राष्ट्रपति एर्दोगन ने अब यह खुलकर कह भी दिया है। उम्मा के नाम पर पाकिस्तान की सहायता करने वाले तुर्की को लेकर एक और ऐतिहासिक तथ्य है, जिस पर वह चर्चा नहीं करना चाहता।
दरअसल तुर्किए का एक पन्ना ऐसा है, जिसे बंद रखना चाहता है। उस पन्ने में लिखे सत्य को वह छिपाता है। मगर अब लोग बात करने लगे हैं। कोई भी घटना इतिहास की ऐसी नहीं होती कि वह कभी बाहर ही न पाए और कोई उस पर बात न कर पाए।
बात है अर्मेनियाई जीनोसाइड की। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ऑटोमन तुर्की सरकार ने लगभग एक मिलियन (दस लाख)अर्मेनियाई लोगों का कत्लेआम किया था। दुर्भागयपूर्ण बात यही है कि प्रथम विश्व युद्ध से बढ़कर यह पूरा घटनाक्रम भयावह था, मगर प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका पर बात होती है और अर्मेनियाई जीनोसाइड पर नहीं। अर्मेनियाई लोगों का मूल स्थान तुर्की था। ऑटोमन साम्राज्य को समृद्ध करने में अर्मेनियाई लोगों का बहुत बड़ा योगदान था। वे व्यापारी थे और ईसाई मत का पालन करते थे। मुस्लिम साम्राज्य में रहने के कारण उन्हें जज़िया भी चुकाना पड़ता था, फिर भी वे लोग काफी समृद्ध थे। ऐसा कहा जाता है कि तुर्की के मुस्लिम समुदाय के लोगों को इस समृद्धि से ईर्ष्या तो हुई थी, मगर इस ईर्ष्या के मूल में ईसाइयों के प्रति घृणा भी शामिल थी।
ऑटोमन साम्राज्य के नष्ट होने के बाद तुर्की गणराज्य की स्थापना करने वाले कमाल अतातुर्क की जीवनी एंड्रू मैंगो ने लिखी। वह लिखते हैं कि मुस्लिम तुर्कों में मूलभूत तकनीकी कौशल का अभाव था। वे वीर तो थे, सिपाही भी थे, मगर उन्हें अपनी लगभग हर जरूरत के लिए अर्मेनियाई किसानों पर ही निर्भर रहना पड़ता था।
उन्नीसवी सदी के अंत में शुरू हुई हिंसा
अर्मेनियाई लोगों के प्रति हिंसा उन्नीसवीं सदी के अंत में आरंभ होने लगी थी। ये लोग मुस्लिमों से कहीं अधिक कर देते थे और उनके पास मुस्लिमों की तुलना में बहुत कम राजनीतिक और कानूनी अधिकार थे। मगर इन बाधाओं के बावजूद उनकी प्रतिभा का हनन नहीं हुआ और वे उन्नति करते रहे। उनकी उन्नति से जलने वाले तुर्की के मुस्लिमों को ऐसा लगता था कि ईसाई अर्मेनियाई ईसाई शासन के ही समर्थक हो जाएंगे। इसलिए ऑटोमन सरकार ने अर्मेनियाई लोगों के बीच तुर्की मुस्लिमों को बसाना आरंभ कर दिया। वे उन इलाकों को मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र बनाना चाहते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में तुर्की का सुल्तान बना अब्दुल हामिद द्वितीय। उसे वफादारी का जुनून था।
अर्मेनियाई लोगों पर अत्याचार की हर सीमा पार की
दरअसल अब्दुल हामिद द्वितीय की मां अर्मेनियाई थी। इसलिए लोग उसकी वफादारी पर संदेह न कर सकें और यह न कह सकें कि उसकी रगों में अर्मेनियाई खून है, वह भी एक नर्तकी का, तो उसके भीतर अपने खून की श्रेष्ठता को साबित करने का जुनून था। उसने इस जिद्द में अर्मेनियाई लोगों पर अत्याचार की हर सीमा पार कर दी। उसने घोषणा की थी कि वह “अर्मेनियाई समस्या” को जड़ से मिटा देगा। और उसके बाद सरकारी स्तर पर अर्मेनियाई लोगों को नष्ट करना आरंभ हुआ। वर्ष 1894 से 1896 के बीच अर्मेनियाई लोगों की व्यापक पैमाने पर हत्याएं हुईं। तुर्की की सेना के अधिकारियों, सैनिकों और यहां तक कि आम लोगों ने भी अर्मेनियाई गांवों पर हमला बोला और गावों के नागरिकों को मारा। हजारों लोग इन दो सालों मे मारे गए।
2500 गांव तबाह किए
कुछ स्रोतों के अनुसार इन दो वर्षों में 80,000 से 1,00,000 अर्मेनियाई नागरिक मारे गए थे। हमलावरों ने 2500 के लगभग गांव और कस्बे नष्ट किये थे और इसके साथ ही 654 चर्च और मॉनेस्ट्री नष्ट की थीं। जो ऐसे गावों में शेष बचे आर्मेनियाई लोग थे, उनपर इस्लाम में मतांतरित होने का दबाव डाला गया और चार प्रांतों में कम से कम 75,000 अर्मेनियाई लोग मुस्लिम बने, हालांकि कई लोग उनमें से वापस ईसाई भी बन गए थे।
जब हालात और बिगड़ गए
वर्ष 1908 में तुर्की में नई सरकार आई और जिसने युवा तुर्क का नारा दिया। अर्मेनियाई लोगों को ऐसा लगा कि अब उनके दिन बेहतर होंगे। मगर यह सरकार तुर्की की पहचान को ही स्थापित करने वाली सरकार थी। अब्दुल हामिद को तो इस कथित उदार सरकार ने हटाया, मगर उनके लिए हालात बेहतर नहीं हुए बल्कि और भी खराब हुए। वर्ष 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा और ऑटोमन साम्राज्य ने जर्मनी के पक्ष के साथ ही युद्ध में प्रवेश किया। अर्मेनियाई पुरुषों को मारे जाने की बातें हुईं और यह भी कहा गया कि अर्मेनियाई लड़कियों को इस्लाम में ले लें।
रेगिस्तान में बिना कपड़ों के छोड़ देते थे
सैन्य नेता यह तर्क देने लगे कि अर्मेनियाई लोग देशद्रोही हैं। दरअसल उन्हें ऐसा लगता था कि यदि मित्र देशों का समूह जीतता है, तो अर्मेनियाई लोग अपने लिए आजादी मांगेंगे। 24 अप्रैल 1915 से ये जीनोसाइड तेज होने लगा। उस दिन तुर्की सरकार ने हजारों अर्मेनियाई बौद्धिक लोगों को गिरफ्तार किया और मरवा दिया। उसके बाद आम अर्मेनियाई नागरिकों की बारी आई और उन्हें उनके घर से निकालकर मेसोपोटामिया के रेगिस्तानों में बिना पानी और खाने के छोड़ दिया गया। अक्सर उन्हें बिना कपड़ों के भेजा जाता था और वे इतनी तेज धूप में मर जाते थे, जो रुकते थे, उन्हें गोली मार दी जाती थी। और इसी बीच तुर्की ने एक विशेष संगठन बनाया। जो बुचर बटालियन के नाम से कुख्यात है। इसके सदस्यों का काम था ईसाइयों को मारना। ये हत्या करने वाले दस्ते अक्सर हत्यारों और अन्य पूर्व दोषियों से मिलकर बने होते थे। वे लोगों को नदियों में डुबो देते थे, उन्हें चट्टानों से नीचे फेंक देते थे, उन्हें सूली पर चढ़ा देते थे और उन्हें ज़िंदा जला देते थे। कुछ ही समय में, तुर्की के ग्रामीण इलाके अर्मेनियाई लाशों से अटे पड़े थे।
बच्चों का अपहरण और महिलाओं का बलात्कार
रिकॉर्ड बताते हैं कि इस “तुर्कीकरण” अभियान के दौरान, सरकारी दस्तों ने बच्चों का अपहरण भी किया, उन्हें इस्लाम में परिवर्तित किया और उन्हें तुर्की परिवारों को दे दिया। कुछ जगहों पर, उन्होंने महिलाओं के साथ बलात्कार किया और उन्हें तुर्की “हरम” में शामिल होने या दास के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया। मुस्लिम परिवार निर्वासित अर्मेनियाई लोगों के घरों में चले गए थे और उनकी संपत्ति पर कब्जा कर लिया था।
30 लाख से करीब साढ़े तीन लाख बचे
लाखों लोगों की हत्या के बाद भी यह बहुत ही हैरानी की बात है कि अर्मेनियाई जीनोसाइड नामक शब्द कोई प्रयोग करता ही नहीं था। रिपोर्ट्स के अनुसार ऑटोमन साम्राज्य में इन हत्याओं के आरंभ होने से पहले लगभग 3 मिलियन (30 लाख)लोग अर्मेनियाई थे, मगर जब 1922 में यह जीनोसाइड रुका, तब केवल 3,88,000 अर्मेनियाई लोग ऑटोमन साम्राज्य में शेष थे। तुर्की सरकार अभी तक इस जीनोसाइड को नकारती है। उसका कहना है कि आर्मेनियाई शत्रु थे और उन्हें युद्ध में मारना कोई बुरी बात नहीं है।
अमेरिका ने किया स्वीकार
युद्ध में सैनिकों से युद्ध किये जाते हैं और युद्ध के मैदानों में किये जाते हैं। ऐसा नहीं किया जाता जो अर्मेनियाई लोगों के साथ तुर्की ने इतने वर्षों तक किया। हालांकि 24 अप्रैल 2021 को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जो बिडेन ने इसे स्वीकारा कि अर्मेनियाई लोगों का जीनोसाइड तुर्की ने किया था।
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