प्रतीकात्मक तस्वीर
बात-बात पर परमाणु हथियारों की धमकी देने वाले पाकिस्तान के सैन्य ठिकानों को भारत ने बर्बाद कर दिया है। अब पाकिस्तान परमाणु का ‘प’ भी बोलने से घबरा रहा है।
पाकिस्तान ने वर्षों से परमाणु हथियारों की आड़ में आतंकवाद को राज्य-प्रायोजित नीति के रूप में पोषित किया, यह मान कर कि भारत किसी निर्णायक उत्तर से बचेगा। लेकिन, ऑपरेशन सिंदूर ने इस भ्रम को दूर कर दिया है। भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु हथियारों को लेकर चला आ रहा तनाव मात्र सैन्य प्रतिस्पर्धा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यापक भू-राजनीतिक, कूटनीतिक और रणनीतिक विमर्श का एक जटिल स्वरूप भी धारण कर चुका है।
इस तनाव की उत्पत्ति दोनों देशों की ऐतिहासिक शत्रुता, विभाजन की पीड़ा, कश्मीर विवाद और सुरक्षा चिंताओं से उपजती है, लेकिन इसे अधिक गहराई से समझने हेतु हमें दोनों देशों की परमाणु नीति, नैतिक दृष्टिकोण और रणनीतिक व्यवहार का आलोचनात्मक अध्ययन करना आवश्यक है। भारत जहां परमाणु हथियारों के संदर्भ में एक जिम्मेदार, संयमित और ‘पहले प्रयोग नहीं’ की नीति को अपनाता है, वहीं पाकिस्तान का दृष्टिकोण ‘परमाणु ब्लैकमेल’ का रहा है।
पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1950 के दशक में परमाणु हथियारों की कटु आलोचना की थी। उन्होंने इन्हें मानवता के लिए विनाशकारी घोषित करते हुए भारत की नैतिक प्रतिबद्धता को रेखांकित किया था कि भारत इस प्रकार के अस्त्रों के निर्माण से परहेज करेगा। परंतु जैसे-जैसे वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य बदला और क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन में बदलाव आया, भारत को अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा। 1974 में ‘स्माइलिंग बुद्धा’ नामक परमाणु परीक्षण और 1998 में पोखरण में संपन्न ‘ऑपरेशन शक्ति’ इस परिवर्तनशील रणनीति का प्रतिबिंब थे।
इसे भी पढ़ें: पाकिस्तान फिर बेनकाब, न्यूक्लियर संयंत्र से रेडियेशन का दावा झूठा, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने दी रिपोर्ट
पाकिस्तान ने भारत के 1998 के परीक्षणों के तुरंत पश्चात अपने परमाणु परीक्षण कर यह दर्शाया कि उसकी परमाणु रणनीति मूलतः भारत की प्रतिक्रिया में निर्मित और निर्देशित है। उस समय के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने इन परीक्षणों को पाकिस्तान की संप्रभुता और सुरक्षा की रक्षा हेतु अपरिहार्य बताया। किंतु समय के साथ पाकिस्तान के सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व द्वारा परमाणु हथियारों की बार-बार धमकी देना यह स्पष्ट करता है कि वे इन शस्त्रों को केवल निवारक साधन न मानकर एक सक्रिय कूटनीतिक और मनोवैज्ञानिक उपकरण के रूप में प्रयोग करते हैं।
2000 में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री शमशाद अहमद का यह कथन- ‘पाकिस्तान अपनी संप्रभुता के किसी भी संभावित उल्लंघन की स्थिति में परमाणु हथियारों का प्रयोग कर सकता है,’ उसकी आक्रामक मानसिकता को उजागर करता है। 2013 में जनरल खालिद किदवई द्वारा प्रतिपादित ‘फुल स्पेक्ट्रम डिटेरेंस’ सिद्धांत इस प्रवृत्ति को और गहन करता है, जिसमें प्रत्येक संभावित सैन्य खतरे के उत्तर में परमाणु हथियारों के उपयोग की अवधारणा सम्मिलित है। यह एक अत्यंत खतरनाक और अस्थिर करने वाली परमाणु रणनीति है, जो दक्षिण एशिया में शक्ति-संतुलन को निरंतर संकट में डालती है।
10 मई की रात बलूचिस्तान के चगाई हिल्स में आए भूकंप जैसे झटकों को कुछ विश्लेषकों ने सामान्य भू-वैज्ञानिक घटना न मानते हुए एक संदिग्ध रणनीतिक गतिविधि से जोड़कर देखा है। पाकिस्तान में रेडिएशन की निगरानी हेतु अमेरिकी बी-350 ए.एम.एस. विमान की गतिविधियां, साथ ही मिस्र के एक कार्गो विमान द्वारा रेडियोधर्मी तत्वों को निष्क्रिय करने वाले रसायनों का छिड़काव–यह सब एक परोक्ष परमाणु संकट की आशंका को बल देते हैं। ये घटनाएं इशारा करती हैं कि पाकिस्तान अपने परमाणु परिसरों की सुरक्षा और संभावित रिसाव की स्थिति से भयाक्रांत था।
भारत सरकार द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि भारत की कार्रवाई पाकिस्तान के परमाणु ठिकानों को लक्ष्य बनाकर नहीं की गई थी, फिर भी पाकिस्तान के नूरखान एयरबेस को हुए संभावित नुकसान ने उसकी सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी। पाकिस्तान का परमाणु ढांचा तकनीकी दृष्टि से अत्यंत असमान और बिखरा हुआ है। इसके तीन मुख्य घटक–विखंडनशील पदार्थ, वॉरहेड्स और डिलीवरी सिस्टम– भौगोलिक दृष्टि से अलग-अलग और असुरक्षित हैं।
पनडुब्बी आधारित परमाणु क्षमताओं के अभाव में पाकिस्तान की निर्भरता ज़मीन और वायु आधारित प्रणालियों पर है, जिनमें नूरखान, मिनहास, शहबाज, रफीक, मसरूर एयरबेस तथा सरगोधा, खुज़दार, गुजरांवाला, पानो अकिल और अर्को जैसे सैन्य अड्डे सम्मिलित हैं। भारत ने परमाणु धमकी के ‘कागज़ी शेर’ को समाप्त कर दिया है।
Leave a Comment