भारत

अपराजेय योद्धा

बाजीराव बल्लाळ भट्ट (पेशवा बाजीराव) ने अपने लगभग 40 वर्ष के छोटे-से जीवन में 40 लड़ाइयां लड़ीं और सभी में विजय प्राप्त की। उन्होंने अटक से कटक तक भगवा ध्वज फहराकर शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज के स्वप्न को साकार किया

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डॉ. राहुल मिश्र

हिंदवी साम्राज्य के स्वप्न को साकार करने वाले अपराजेय योद्धा श्रीमंत बाजीराव बल्लाळ भट्ट की पुण्यतिथि पर गत 28 अप्रैल को रावेरखेड़ी में एक भव्य आयोजन हुआ। मध्यप्रदेश के खरगौन जनपद में रावेरखेड़ी नर्मदा के तट पर एक अनजाना-सा गांव है। हिंदवी साम्राज्य के इस अपराजेय योद्धा की समाधि ने इस गांव को न केवल वैश्विक मानचित्र पर उकेरा है, वरन् भारतीय शौर्य और सनातन आस्था के प्रति समर्पित जन के लिए तीर्थ की भांति पूजनीय बनाया है।

डॉ. राहुल मिश्र
क्षेत्रीय निदेशक,इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय केंद्र-मुंबई

बाजीराव ने विजय पताका फहरा कर दिल्ली से लौटते समय रावेरखेड़ी में पड़ाव डाला था। यहीं उनका स्वास्थ बिगड़ा और वे 28 अप्रैल, 1740 को देवलोक गमन कर गए। श्रीमंत को पूज्य मानने वाले ग्वालियर के सिंधिया राजे ने उनकी समाधि बनवाई, जो भव्य किले जैसी है। लेकिन यह स्थान इतिहास के पन्नों में अनजाना-सा रहा। सच्चाई तो यह है कि बाजीराव पेशवा को भी कम ही लोग जानते होंगे। 2015 में एक फिल्म आई थी- बाजीराव मस्तानी। यह फिल्म नागनाथ ईनामदार के मराठी उपन्यास राऊ पर केंद्रित थी।

इस फिल्म ने समाज को बाजीराव पेशवा का जैसा परिचय देने का प्रयास किया, वह भारत के गौरवपूर्ण अतीत का अनुशीलन और समाज का सच से निदर्शन नहीं करा सका। बाजीराव की अद्भुत युद्धकला, संगठन-कौशल, शौर्य और पराक्रम, उनकी वीरता के अनेक गौरवपूर्ण अध्यायों पर एक मनगढ़ंत प्रेमकथा का आवरण डाल दिया गया है। मस्तानी बुंदेल केसरी वीर छत्रसाल की धर्म पुत्री थी और पराक्रम में भी किसी से कम नहीं थी।

महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को अपना पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड के राज्य का एक तिहाई भाग दे दिया था। कुंवरि मस्तानी ने छत्रसाल के गुरु महामति प्राणनाथ द्वारा प्रवर्तित प्रणामी संप्रदाय की विधिवत् दीक्षा ली थी। बाजीराव पेशवा और मस्तानी कुंवरि के संबंध अतीत की सचाई हैं, लेकिन इनका केवल कल्पनाजन्य विस्तार ही कथा-उपन्यासों और फिल्मों तक आता है। उनके संबंधों का सम्यक मूल्यांकन और ऐतिहासिक शोधपरक अध्ययन इतिहासकारों के अध्ययन-क्षेत्र में नहीं आ सका। फलतः सही व सर्वाङ्गपूर्ण जानकारी का अभाव हमारे चरितनायक बाजीराव बल्लाळ भट्ट को अपेक्षित मान नहीं दिला सका। सैन्य-अध्ययन में बहुत प्रचलित युद्ध तकनीक है- ब्लिट्जक्रेग। हिंदी में इसे विद्युतगति युद्ध कह सकते हैं। इसके जनक बाजीराव बल्लाळ भट्ट थे।

छत्रपति शिवाजी महाराज ने गुरिल्ला युद्ध पद्धति से मुगलों को अनेक युद्धों में परास्त किया था। उनकी युद्ध पद्धति को विस्तारित करते हुए बाजीराव ने बिजली की गति से शत्रु पर टूट पड़ने की पद्धति अपनाई। शत्रु जब तक युद्ध के हालात को समझ पाए, तब तक शत्रु उस पर चौतरफा आक्रमण करना। इसी युद्ध पद्धति के कारण उन्हें हर युद्ध में विजयश्री मिली। ब्रिटिश सेना के फील्ड मार्शल बर्नार्ड लॉ मांटगोमरी द्वितीय विश्वयुद्ध के सबसे सफल और प्रमुख कमांडर थे। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ वारफेयर’ में उन्होंने बाजीराव पेशवा की अश्वसेना सहित उनकी युद्ध पद्धति की प्रशंसा की है। वे लिखते हैं, “पेशवा बाजीराव प्रथम एक भी युद्ध नहीं हारे। वे सदैव संख्याबल में कम, किंतु कुशल घुड़सवार सैनिकों के साथ बिजली की गति से आक्रमण कर दुश्मन की लाखों की सेना को परास्त कर देते थे।’’

28 फरवरी, 1728 को संभाजीनगर (पूर्ववर्ती औरंगाबाद) के समीप हुआ ‘पालखेड़ का युद्ध’ उनके रण कौशल का उत्कृष्टतम उदाहरण है। इस युद्ध में उनकी नवोन्मेषी युद्धनीति, रणनीति और राजनीतिक कुशलता का अद्भुत साम्य दिखता है। इसी कारण विश्व के चर्चित और प्रसिद्ध युद्धों में यह युद्ध महत्वपूर्ण स्थान रखता है और आज भी ‘केस-स्टडी’ के रूप में पढ़ा-पढ़ाया जाता है। ब्रिटेन और अमेरिका में सैन्य-अध्ययन के अंतर्गत पालखेड़ के युद्ध को ‘केस-स्टडी’ के रूप में पढ़ाया जाता है।

पिता बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के उपरांत छत्रपति शाहूजी महाराज के समक्ष पेशवा के पद को लेकर बड़ा संकट खड़ा हो गया था। उस समय बाजीराव लगभग 19 वर्ष के थे। उनकी वीरता और कर्मठता ने शाहूजी महाराज को बहुत प्रभावित किया और उन्होंने बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया। इसके बाद 20 वर्ष तक बाजीराव ने कभी अपनी कमर की तलवार नहीं खोली, कभी अश्व की सवारी नहीं छोड़ी और अटक से कटक तक भगवा ध्वज फहराकर शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज के स्वप्न को साकार किया। इतिहास साक्षी है कि शक्तिशाली सेनापति हो या सामान्य-सा सैनिक या परिवार का व्यक्ति, अवसर पाते ही सत्ता हथियाने के प्रयास प्रारंभ कर देता है।

मध्यकाल तो ऐसे विश्वासघातों से भरा पड़ा है, जहां सत्ता के लिए भाई ने भाइयों को मार डाला, पिता को बंदी बना लिया, भतीजे ने चाचा की धोखे से हत्या कर दी, आदि। लेकिन इसी मध्यकाल में बाजीराव बल्लाळ भट्ट की स्वामिभक्ति, त्याग, समर्पण, आदर्श और नैतिकता की अक्षय कीर्ति सनातन भारतीय परंपरा के उदात्त, भारतीय जीवन-पद्धति और जीवन दर्शन के जीवंत-जागृत साक्ष्य के रूप में हमारे समक्ष है। पेशवा बाजीराव की प्रधान मुद्रा में अंकित एक-एक शब्द उनके विराट व्यक्तित्व को उद्घोषित करता है। उनकी मुद्रा में अंकित है-“श्रीराजा शाहूजी नरपती हर्षनिधान-बाजीराव बल्लाळ पंतप्रधान।”

पंतप्रधान बाजीराव बल्लाळ छत्रपति शाहूजी महाराज की ओर से मुद्रा अंकित करते थे। दक्षिण से उत्तर तक अपने अश्वों की पदचाप से विधर्मी आक्रांताओं द्वारा पददलित भारतभूमि को स्वातंत्र्य का अमृतपान कराने वाले इस अपराजेय योद्धा ने कभी न तो राज्य लिप्सा पाली, न ही यश की लालसा। उन्होंने अखंड भारत, हिंदवी स्वराज के लिए अपने तन-मन को गलाया, समर्पित किया। बाजीराव पेशवा को ‘राऊ’ कहा जाता था यानी सरदारों में सर्वश्रेष्ठ। यह उपाधि उन पर खरी बैठती थी।

मराठा साम्राज्य का विस्तार और म्लेच्छ आक्रांताओं की कुत्सित चालों व नीतियों का दमन करते हुए दिल्ली तक अपनी कीर्ति-पताका फहराने वाले बाजीराव पेशवा को हम ‘महाराष्ट्र केसरी’, ‘हिंद केसरी’ के रूप में जानते हैं। ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष करते हुए सिंह की भांति विधर्मियों पर टूट पड़ने वाले श्रीमंत बाजीराव ने मुगलों को दिल्ली के आसपास तक सीमित कर दिया था। उनके भय से मुगल शासकों को दिल्ली भी हाथ से जाती दिख रही थी।

मध्य प्रदेश के खरगाैन जिले के रावेरखेड़ी स्थित पेशवा बाजीराव का समाधि स्थल

बाजीराव ने ही समूचे भारतदेश की अखंडता और हिंदू राजसत्ता पर आद्धृत हिंदू पदपादशाही का सिद्धांत दिया था। स्वातंत्र्यवीर सावरकर की इसी नाम से रचित पुस्तक में इसका उल्लेख मिलता है। बाजीराव ने देश के विभिन्न राज्यों में शक्ति केंद्र स्थापित किए। होलकर, पवार, सिंधिया, गायकवाड़, शिंदे आदि वीर राजे-रजवाड़े उनके प्रयासों से ही सशक्त और समर्थ होकर सक्रिय हुए।

प्रश्न उठता है कि पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट को नई पीढ़ी कितना जानती है? निःसंदेह ‘फिल्मी नैरेटिव’ ने बहुत गलत संदेश दिया है, जिसका सुधार हमारा दायित्य है। हमारा इतिहास केवल पराजय का इतिहास नहीं है, जैसा कि बताया-पढ़ाया जाता है। यह पेशवा बाजीराव जैसे महान योद्धाओं की अपरिमित शौर्यगाथाओं से भरा हुआ है। बाजीराव ने लगभग 40 वर्ष के छोटे-से जीवन में 20 वर्ष के अंतराल में 40 लड़ाइयां लड़ीं और सभी में विजय प्राप्त की।

विश्व इतिहास में सिकंदर को महान और अपराजेय बताया जाता है। लेकिन वह भी परास्त हुआ था, भारत को जीतने का उसका सपना कभी सच नहीं हो सका था। यहां से उसे वापस लौटकर जाना पड़ा था। ऐसे में जो जीता, वो सिकंदर कैसे हुआ? पेशवा बाजीराव ने शत प्रतिशत युद्ध जीते। इसलिए जो जीता, वह बाजीराव कहा जाना चाहिए। ‘जो जीता, वो बाजीराव’ का उद्घोष करते हुए पेशवा बाजीराव के प्रति आस्थावान देशभक्तों का एकत्रीकरण रावेरखेड़ी में हुआ।

सनातन भारतीय परंपरा के रक्षक, रण-धुरंधर, पराक्रमी, अद्वितीय योद्धा, हिंद केसरी, प्रबल प्रतापी पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट का समाधि-स्थल उनकी पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम के कारण 28 अप्रैल को चर्चा में आया। यहां चहल-पहल हुई, लेकिन शेष समय में यह पवित्र स्थल उपेक्षित ही रहता है। ज्ञात हुआ है कि कुछ समय पूर्व कुछ जागरूक लोगों के प्रयासों से आवागमन के साधन सुलभ हुए हैं, लेकिन अब भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। विशेष रूप से आगामी पीढ़ी को ऐसे अद्वितीय नायक, अपराजेय योद्धा के बारे में बताया जाना।

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