बीएलए ने बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना पर हमले तेज़ कर दिए हैं। बलूच लोगों ने पाकिस्तानी झंडे की जगह अपने झंडे फहरा दिए हैं। (सोशल मीडिया/बीएलए)
पहलगाम का आतंकवादी हमला वह अंतिम बूंद बन गया, जिसके बाद भारत के संयम का घड़ा भर गया और उसने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू करके ‘आतंकिस्तानी’ ठिकानों पर लक्षित हमले किए। अगर उस समय भी पाकिस्तान ने भारत के मूड को भांपकर इज्जत बचाते हुए निकलने की कोशिश की होती, तो स्थिति संभवतः संभल सकती थी। लेकिन उसने एक बार फिर दुस्साहस की उंगली थाम भारत के सैन्य-असैन्य ठिकानों पर हमला करने का आत्मघाती विकल्प चुना। नतीजा सामने है। भारत ने पाकिस्तान के सैन्य और रणनीतिक ठिकानों पर ताबड़तोड़ हमले करके उसकी चूलें कस दीं।
एक और महत्वपूर्ण बात। इतिहास का हर कड़वा अनुभव आपके लिए सीख छोड़ता है। सबक लिया तो ठीक, वर्ना भुगतो, क्योंकि जब कभी भी इतिहास खुद को दोहराने की भूमिका गढ़ेगा, तब आप वही गलतियां करेंगे और वैसे ही आघात सहेंगे। आज पाकिस्तान के सामने खंड-खंड होने की संभावनाएं आ खड़ी हुई हैं। अगर भारत के साथ टकराव ने पाकिस्तान को और ज्यादा कमजोर कर दिया तो क्या आजादी के लिए दशकों से जान की बाजी लगा रहे बलूच इसे मौके के तौर पर नहीं लेंगे? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि जिस समय भारत पाकिस्तान के खिलाफ हमले कर रहा था, उसी समय बलूच लड़ाकों ने पाकिस्तान सेना के खिलाफ कई जगहों पर ताबड़तोड़ हमले किए।
बलोच लिबरेशन आर्मी (बीएलए), जो सेना के खिलाफ दुस्साहसी हमलों के लिए जाना जाता है, हर बार की तरह हमले के बाद बयान जारी कर हमलों की जिम्मेदारी ली। बीएलए के प्रवक्ता जीयंद बलोच ने कहा कि पाकिस्तानी सेना और बलूचों पर हमलों में उनका साथ देने वालों को निशाना बनाते हुए छह हमले किए गए। रिमोट किए गए आईईडी विस्फोट से सेना, इसकी सप्लाई लाइन और संचार नेटवर्क को निशाना बनाया गया। इससे पूर्व 7 मई को बीएलए के लड़ाकों ने जमुरान के दश्तक में सेना के बम निरोधक दस्ते पर हमला कर एक सैनिक को मार गिराया। इसी दिन जमुरान के कटगान इलाके में सैन्य चौकी पर हमला बोला गया, जिसमें कई सैनिक मारे गए। जमुरान के ही सियाह डेम इलाके में सेना पर हमला किया गया, जिसमें कम से कम दो सैनिक मारे गए।
इसके अलावा, क्वेटा में भी कई जगहों पर पाकिस्तानी सुरक्षा बलों पर अज्ञात लोगों ने हमला किया। पहला हमला बलूचिस्तान में आतंक का पर्याय फ्रंटियर कॉर्प्स (एफसी) के मुख्यालय पर किया गया। हमलावरों ने एक के बाद एक कई विस्फोट किए और वहां काफी देर तक दोनों ओर से गोलीबारी होती रही। दूसरा हमला कंबरानी रोड पर जंगल बाग के पास कैप्टन सफर खान चौकी पर हुआ। यहां भी दो विस्फोट हुए। किरानी रोड पर हजारा इलाके की चौकी पर भी हमला बोला गया। यहां दो धमाके हुए। चौथा हमला क्वेटा की आरिफ गली के पास एंटी नारकोटिक्स फोर्स के कैंप पर ग्रेनेड से किया गया। खबर लिखे जाने तक इन हमलों की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली थी।
5 मई को भी बीएलए के लड़ाकों ने बोलन और केच जिलों में सेना पर हमला करके 14 जवानों को मार दिया था। जीयंद बलोच ने कहा, “बोलन में सेना के काफिले पर आईईडी से हमला किया गया, जिसमें सेना के 12 लोग मारे गए। इनमें स्पेशल ऑपरेशन कमांडर तारिक इमरान भी था।” बहरहाल, भारत की कार्रवाई के दौरान 7-8 मई को हुए हमले खास हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितने मरे, क्योंकि बलूच लड़ाकों ने तो हाल ही में जाफर एक्सप्रेस को अगवा करके सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिकों को मार डाला था।
पाकिस्तान के लिए खतरनाक बात यह है कि जब उस पर बाहर से हमला हो रहा हो, संसद में प्रधानमंत्री शरीफ को ‘गीदड़’ कहा जाए और कई सांसद अपनी सेना पर सवाल उठा रहे हों, उस समय पाकिस्तान को कमजोर पाकर उस पर हमला बोला जाता है। बलूचिस्तान में होने वाले ऐसे किसी भी घटनाक्रम को कम करके नहीं आंका जा सकता। कारण, पाकिस्तान ने अपनी अदूरदर्शिता, अतिविश्वास और फौजी ताकत से घरेलू समस्याओं को हल कर लेने की जिद में बलूचिस्तान से लेकर खैबर पख्तूनख्वा और सिंध से लेकर पीओजेके तक ऐसे कई ज्वालामुखी बना लिए हैं, जिन्हें नीचे गर्म लावे के सागर ने आपस में जोड़ रखा है। इनमें सबसे बड़ा और खतरनाक है बलूचिस्तान का ज्वालामुखी।
अगर इसका मुहाना खुल गया तो इसमें से इतना लावा निकलेगा कि इलाके का भूगोल बदल जाए और फिर आसपास और अंदर ही अंदर आपस में जुड़े छोटे-छोटे तमाम ज्वालामुखी तो धधक ही रहे हैं- खैबर पख्तूनख्वा से सिंध तक। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर में अलग तरह का असंतोष है जो आएदिन इस पार कश्मीर में हो रहे विकास और खुशहाली की पनपी स्थायी आशाओं से उपजा है। इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान का भूगोल कैसा रहेगा, यह बलूचिस्तान के भविष्य पर निर्भर करता है। इसीलिए भारत के हमलों के साथ कदमताल मिलाते हुए बलूचिस्तान में किए गए इन हमलों को गंभीरता से देखा जाना चाहिए।
पाकिस्तान का यह सबसे बड़ा सूबा देश के लगभग 44 प्रतिशत भूभाग में है और खनिज संपदा से भरपूर है। बलूचिस्तान में आज पाकिस्तान से आजाद होने की जो छटपटाहट है, उसका कारण अतीत में है। जो जिन्ना पाकिस्तान के नायक हैं, वह बलूचिस्तान के लिए खलनायक हैं। कारण, बलूच आज जिस भूभाग को आजाद कराने की लड़ाई लड़ रहे हैं, वह इलाका मोटे तौर पर कलात रियासत के अधिकार क्षेत्र में आता था। ब्रिटिश भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिटन के साथ 1876 में हुई संधि के जरिये अंग्रेजों ने कलात को विदेश और रक्षा मामलों को छोड़कर बाकी मामलों में स्वायत्तता दी थी।
1946 में कलात के खान ने मोहम्मद अली जिन्ना को अपना कानूनी सलाहकार नियुक्त किया, जिन्होंने लॉर्ड माउंटबेटन के सामने खरान और लासबेला को कलात के साथ मिलाकर एक आजाद बलूचिस्तान देश की पैरोकारी की, लेकिन उन्हीं जिन्ना ने आजाद बलूचिस्तान को जबरन मिला लिया। उसी के बाद बलूचिस्तान को पाकिस्तान के अवैध कब्जे से मुक्त कराने के लिए बलोच आंदोलन कर रहे हैं और पाकिस्तान की सेना आंदोलन को खत्म करने के लिए हर किस्म की जोर-जबर्दस्ती करती है।
पिछले दिनों क्वेटा के सिविल अस्पताल में 50 से ज्यादा लाशें लाकर डंप करने की खबर लीक हुई। इन सभी की मौत गोली लगने से हुई थी। इन शवों को फौजियों ने अस्पताल में छोड़ा था। जगह की कमी के कारण लाशों को ढेर लगाकर रखा गया था। बलोच नेशनल मूवमेंट (बीएनएम) के प्रवक्ता ने अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों से इसकी जांच कराने की मांग की है। वैसे, अस्पतालों में फौज द्वारा शवों को डंप करने का मामला पहले भी सामने आता रहा है। 2022 के अक्तूबर में मुल्तान का निश्तर अस्पताल सुर्खियों में रहा था क्योंकि अस्पताल के मुर्दाघर की छत पर बड़ी संख्या में सड़ी-गली लाशें मिली थीं। गिद्धों के मंडराने और हवा के साथ रह-रहकर आती दुर्गंध के कारण इन शवों को डंप किए जाने का खुलासा हो सका था।
बलूचिस्तान में आजादी के आंदोलन को दबाने के लिए लोगों को ‘गायब’ कर देना फाैज का पसंदीदा तरीका रहा है। बीएनएम के सूचना सचिव काजीदाद मोहम्मद रेहान कहते हैं, “अमूमन हर सौ लापता लोगों में से 42 को यातना देकर कुछ समय बाद छोड़ दिया जाता है, जबकि बाकी 58 का पता नहीं चलता और बाद में कई के शव सड़ी-गली हालत में कभी सामूहिक कब्र में तो कभी किसी अस्पताल की छत पर मिलते हैं।
बहुत लोगों के शव तो मिलते ही नहीं। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि सौ में करीब 9 लोगों की मौत हिरासत में हो जाती है। यह आंकड़ा इस साल के पहले तीन महीनों का है।” 14 जिलों से इकट्ठा की गई जानकारी के अनुसार इस साल जनवरी में 107 लोग लापता किए गए जिनमें 42 रिहा कर दिए गए, फरवरी में फौज और उसकी एजेंसियों ने 134 लोग अगवा किए जिनमें से 50 को बाद में छोड़ दिया गया जबकि मार्च में 181 लोग उठा लिए गए और उनमें से 87 को ही छोड़ा यानी अगवा किए गए तकरीबन 60 फीसद लोग लौटकर नहीं आए।
बलूचिस्तान में समय-समय पर सामूहिक कब्रें मिलती रही हैं और ये विदेशी माडिया में भी सुर्खी बनीं। ऐसी कब्रें खुजदार, तुरबत, डेरा बुगती से लेकर क्वेटा, ग्वादर, पंजगुर, नुशकी, बोलन जिलों में मिल चुकी हैं। इन कब्रों में ढेर लगाकर शवों को दबा दिया गया था। काजीदाद कहते हैं, “सामूहिक कब्रों के मिलने से पाकिस्तानी फौज की चारों ओर बदनामी हुई और इस स्थिति से बचने के लिए उसने अस्पतालों के जरिये शवों को ‘ठिकाने’ लगाने की रणनीति अपनाई। वैसे, दूर-दराज के इलाकों में ऐसी और सामूहिक कब्रें हो सकती हैं।”
अफगानिस्तान से लगते इलाके में पाकिस्तान के लिए दो तरह की समस्याएं खड़ी हो गई हैं। एक, आतंकवाद को बढ़ावा देकर वहां के हालात को नियंत्रित करने की उसकी रणनीति औंधे मुंह गिर गई है तो वहीं आम पश्तूनों में भी पाकिस्तान के प्रति अलगाव की भावना मजबूत हुई है। एक समय था जब पाकिस्तान अफगानिस्तान में जैसा चाहता, वैसा करता और इसमें विभिन्न सशस्त्र गुटों का इस्तेमाल करता।
इसी क्रम में उसने अफगानिस्तान तालिबान के साथ मिलकर तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को पाला-पोसा। लेकिन वही तहरीके तालिबान आज पाकिस्तान पर ही हमले कर रहा है। इसके कई कारण हैं। टीटीपी को पाकिस्तान से शिकायत है कि वह अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के इशारे पर चल रहा है और उनके साथ मिलकर इस्लामी मूल्यों के खिलाफ काम कर रहा है। टीटीपी पाकिस्तान में इस्लामी शासन की वकालत करता है। उल्लेखनीय है कि इस्लामी शासन की यही घुट्टी पिला-पिलाकर पाकिस्तान ने इन्हें पाला-पोसा। इसके साथ ही टीटीपी सीमाई इलाके में पाकिस्तान की कार्रवाई का विरोध करता है।
पाकिस्तान ने टीटीपी की गतिविधियों को रोकने के लिए अफगानिस्तान की सीमा में घुसकर हवाई हमले किए, जिससे न केवल टीटीपी बल्कि तालिबान के साथ भी उसके रिश्ते खराब हो गए और अमेरिका के जाने के बाद जिस अफगानिस्तान के पाकिस्तान के प्रॉक्सी राज्य बनकर रह जाने का अंदेशा हो गया था, वही अफगानिस्तान अब पाकिस्तान के खिलाफ खड़ा दिखता है। इसकी एक वजह यह भी है कि जब पाकिस्तान ने तालिबान सरकार पर दबाव बनाने के लिए अफगानिस्तान के साथ व्यापार मार्गों को बंद कर दिया और उसका असर अफगानिस्तान पर साफ पड़ने लगा तब चीन, रूस और ईरान जैसे देशों का अफगानिस्तान के साथ व्यापार को गति देना तालिबान के लिए राहत देने वाला साबित हुआ। इसके अलावा, तालिबान ने भारत द्वारा अफगानिस्तान में विकास परियोजनाओं पर काम करने को मान्यता देते हुए नई दिल्ली की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया।
इसके साथ ही बलूचों और पश्तूनों में ऐतिहासिक-सांस्कृतिक रूप से अच्छे रिश्ते रहे हैं और इन दोनों समुदायों के खिलाफ होने वाली पाकिस्तानी फौज की कार्रवाई इन्हें एक-दूसरे के लिए खड़े होने को प्रेरित करती है। आम पश्तून किस तरह पाकिस्तान से दूर होते जा रहे हैं, इसका संकेत पश्तून तहाफुज मूवमेंट (पीटीएम) के प्रमुख मंजूर पश्तीन के इस बयान से मिलता है- “पाकिस्तानी फौज के कहने पर हम कई दशकों से खुद को कुर्बान करते रहे, लेकिन अब हम ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि पश्तूनों को समझ आ गया है कि पाकिस्तान के पंजाबी जनरलों ने जिहाद के नाम पर हमें तोप में भरे जाने वाले बारूद की तरह इस्तेमाल किया। हम जिहाद के नाम पर जान देते रहे और पाकिस्तानी फौज पैसे बनाती रही।”
बात इतनी ही नहीं। अगर पाकिस्तान का यह मतलबी रुख पश्तून समाज में और गहरा हुआ, तो इसका व्यापक असर हो सकता है। कारण यह है कि पाकिस्तान की फौज में करीब एक चौथाई पश्तून हैं। मंजूर पश्तीन ने मजाकिया लहजे में कहा- “ पाकिस्तान की कोर स्ट्राइक यूनिट हम पश्तूनों से ही बनी है, लेकिन हम इतने मतलबी नहीं कि समूची जन्नत को भर दें, कुछ जगहें दूसरी कौमों के लिए भी तो होनी चाहिए!”
अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर दोनों ओर पख्तून आबादी बसी हुई है और ये अंग्रेजों द्वारा खींची गई डूरंड लाइन को नहीं मानते। सीमा के दोनों ओर रहने वाले इन लोगों के आपसी संबंध कैसे हैं, इसका अंदाजा 1970 के दशक में अफगनिस्तान के प्रधानमंत्री रहे मोहम्मद दाऊद खान के इस बयान से लगाया जा सकता है, “हम पख्तूनों के अधिकारों के बिना अफगानिस्तान की कल्पना भी नहीं कर सकते। अगर पख्तूनिस्तान का निर्माण होता है, तो वह अफगानिस्तान का ही हृदय होगा।”
सिंध की भूमि सिंधु घाटी सभ्यता की जननी रही है, जो विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। मध्यकाल में यह क्षेत्र सूफी संतों, सांस्कृतिक समृद्धि और बहुलवादी परंपराओं का केंद्र बना। 1843 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन आने के बाद सिंध को 1936 में अलग प्रांत का दर्जा मिला। हालांकि 1947 में भारत के बंटवारे के दौरान सिंध को बिना लोगों की राय जाने पाकिस्तान में मिला दिया गया। जी. एम. सईद सिंध के बड़े नेता रहे और उन्हें लोग बड़े सम्मान के साथ देखते हैं। सईद ने 1940 के दशक से ही सिंधी अस्मिता और स्वायत्तता की वकालत शुरू कर दी थी। 1972 में उन्होंने अलग ‘सिंधुदेश’ का विचार प्रस्तुत किया क्योंकि पाकिस्तान के साथ रहते हुए सिंध की संस्कृति, उसकी भाषा और उसके आर्थिक अधिकारों को व्यवस्थित रूप से दबाया जा रहा था।
पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसियां सिंधी राष्ट्रवादी आंदोलन को कुचलने के लिए हिंसक तरीके अपनाने के लिए बदनाम रही हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्टों के अनुसार, सिंध में लोगों को अगवा करके उन्हें तरह-तरह की यातनाएं देना और फिर हत्या कर देना आम बात है।
बलूचिस्तान की तरह ही यहां के प्राकृतिक संसाधनों (कोयला और गैस इत्यादि) का दोहन तो होता है, लेकिन राजस्व का बड़ा हिस्सा पंजाब को भेज दिया जाता है। इसके अलावा, सिंध नदी के पानी को पंजाब की ओर मोड़ने वाले कलाबाग बांध जैसे प्रोजेक्ट्स ने सिंध के किसानों को बर्बाद कर दिया है। साथ ही, सेना द्वारा सिंधियों की जमीनों पर अवैध कब्जा करने की घटनाएं भी धड़ल्ले से होती हैं जिसके कारण वहां टकराव होते रहते हैं।
अलग सिंधुदेश बनाने का आंदोलन जिये सिंध मुत्तहिदा महाज (जेएसएमएम) और सिंधुदेश रिवॉल्यूशनरी आर्मी (एसआरए) जैसे संगठन चला रहे हैं। इसके अलावा दुनिया के विभिन्न देशों में बसे सिंधी बाहर रहते हुए भी अलग सिंधुदेश की मांग को जिंदा रखे हुए हैं।
इसके साथ ही समय-समय पर ये लोग कराची जैसे शहरों में अलग देश की मांग को लेकर प्रदर्शन भी करते रहते हैं। सिंध में आजाद होने का जो आंदोलन चल रहा है, वह सिंधियों के अपने सांस्कृतिक अस्तित्व, आर्थिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा की लड़ाई भी है। पाकिस्तान की दमनकारी नीतियों के बावजूद सिंधी जनता का आंदोलन निरंतर मजबूत हो रहा है। इसके अलावा अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर का अपना दर्द है जो समय-समय पर सीमा पार होने वाले प्रदर्शनों से झलकता है।
वहां के लोगों की खाने-पीने की बुनियादी आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो पातीं। वहां भारत समर्थक पोस्टर और नारे बताते हैं कि वहां के लोगों में पाकिस्तान के प्रति असंतोष किस तरह भरा हुआ है। ऐसे तमाम वीडियो सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं जहां उनके स्थानीय नेता भारतीय कश्मीर में हो रहे विकास का उदाहरण देकर पाकिस्तान की सरकारों को कोसते हैं। जाहिर है, वहां के लोगों के दिलों में भी टीस है जो कब किस रूप में सामने आ जाए, कहना मुश्किल है।
1971 में बांग्लादेश आजाद जरूर हुआ, लेकिन इसकी भूमिका तो काफी पहले से बननी शुरू हो गई थी और वर्तमान परिस्थितियां कोई संकेतक हैं तो बलूचिस्तान भी उसी रास्ते पर बढ़ता दिख रहा है। आगे क्या होगा, कब होगा, कहना मुश्किल है। बस इतना कहा जा सकता है कि पाकिस्तान की क्षितिज पर स्याह बादल छाए हुए हैं।
भारतीय शहरों पार पाकिस्तान के ड्रोन और मिसाइल हमले को विफल करते हुए भारत ने जबरदस्त जवाबी कार्रवाई की। इससे पाकिस्तान में हड़कंप मचा हुआ है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अब अपनों के निशाने पर आ गए हैं। 9 मई को पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली में पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क्यू) के सांसद ख्वाजा आसिफ ने प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ को बुजदिल करार दिया। सांसद ने कहा कि इस समय सीमा पर फौजी इस उम्मीद से प्रधानमंत्री की ओर देख रहा है कि हमारा नेता दिलेरी से मुकाबला करेगा। लेकिन जब देश का प्रधानमंत्री बुजदिल हो… मोदी का नाम तक न ले सके, वह सीमा पर खड़े फौजी को क्या संदेश देगा?
राजस्थान में 1,070 किलोमीटर लंबी सीमा पर चौकसी बढ़ा दी गई है। यही कारण है कि वहां पाकिस्तान की हर हरकत विफल हो रही है
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