भारत

घर वापसी का जोर, चर्च कमजोर

झारखंड में लोभ—लालच से ईसाई बने जनजातीय बंधु फिर से अपने मूल धर्म की ओर लौट रहे हैं। घर वापसी को पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन का समर्थन मिल रहा है। जनजातीय समाज के लोग इसे एक अच्छा संकेत मान रहे हैं

Published by
रितेश कश्यप

इन दिनों झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों में जनजातीय समाज द्वारा अनेक ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, जिनमें ईसाई मिशनरियों और बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति आक्रोश दिखाई दे रहा है।

गत दिनों पश्चिमी सिंहभूम के जगन्नाथपुर अनुमंडल के बड़ापासेया गांव में ईसाई बने छह परिवारों के 29 लोग अपनी मूल संस्कृति में लौट आए। इन ग्रामीणों को छह वर्ष पहले मिशनरी संस्थाओं ने बहला-फुसलाकर ईसाई बनाया था। इनकी घरवापसी में ‘आदिवासी हो समाज युवा महासभा’ की महत्वपूर्ण भूमिका रही। संगठन के नोवामुंडी प्रखंड अध्यक्ष माटा बोबोंगा ने बताया कि उन्हें मिशनरी संस्थाओं की सचाई समझाई गई। इसके बाद ही वे लोग घरवापसी के लिए तैयार हुए। बता दें कि ‘आदिवासी हो समाज युवा महासभा’ कई वर्ष से प्रयास कर रही है कि जो लोग अपनी मूल संस्कृति से दूर गए हैं, उन्हें फिर से वापस लाया जाए। उसके अच्छे परिणाम भी आने लगे हैं।

‘आदिवासी हो समाज युवा महासभा’ के राष्ट्रीय महासचिव गब्बर सिंह हेम्ब्रम कहते हैं, “ईसाई मिशनरियां पहले सेवा और शिक्षा के नाम पर सुदूर जनजातीय क्षेत्रों में पहुंचती हैं। फिर वहां चर्च की स्थापना करती हैं और गांव में गरीब, कर्ज में डूबे लोगों को चिह्नित करती हैं। इसके बाद वे लोगों को अपनी समस्याओं से छुटकारा दिलाने का लालच देकर अपने जाल में फंसाती हैं। पिछले 15 वर्ष से हमारा संगठन जनजागरण में जुटा है। इसका परिणाम यह है कि अब हमें कई अन्य संगठनों और पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन का भी समर्थन मिल रहा है।”

इससे पहले 31 मार्च को जगन्नाथपुर के नोवामुंडी प्रखंड में एक वर्ष पहले ईसाई बनी 40 वर्षीया तिली कुई अपने सात बच्चों के साथ अपने मूल धर्म में लौट आईं। उनकी घरवापसी में ‘हो समाज युवा महासभा’ के जगन्नाथपुर अनुमंडल अध्यक्ष दियुरी बलराम लागुरी और सहायक दियुरी बुधराम अंगरिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही। तिली कुई कहती हैं, “मेरे पति सोनू हेम्ब्रम लंबे समय तक टी.बी. से पीड़ित रहे और इलाज के अभाव में उनकी मृत्यु हो गई। इसके बाद मिशनरी लोगों ने मुझे यह कहकर भ्रमित किया कि चर्च में प्रार्थना करने से सब ठीक हो जाएगा। मैं उनके झांसे में आ गई। मैं हर रविवार को मालुका के संत पॉल स्कूल स्थित चर्च में प्रार्थना के लिए जाती थी, लेकिन मन से कभी ईसाइयत को स्वीकार नहीं कर पाई। अब मैं अपने मूल धर्म में लौट आई हूं। इसके बाद ईसा-मसीह की तस्वीरें और चर्च की सभी सामग्री मिशनरी के लोगों को लौटा दी है।”

सबसे सकारात्मक बात यह है कि घरवापसी के इस आंदोलन को मजबूती देने में पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन पूर्ण रूप से समर्पित हैं। बता दें कि ये वही चंपई हैं, जिन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा में लंबा समय बिताया और हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री रहे। संभवतः उस दौरान उन्होंने कुछ ऐसी वास्तविकताएं देखी होंगी, जिनके कारण उन्हें घरवापसी के लिए सड़कों पर उतरना पड़ा है। यह सुखद है कि इस कार्य में उन्हें जनजातीय समाज के उन प्रमुख लोगों का समर्थन मिल रहा है, जिन्हें समाज अपने ‘पुरोहित’ के रूप में देखता है।

ऐसे ही 11 अप्रैल को स्वतंत्रता सेनानी सिद्धो-कान्हू की जयंती पर सरायकेला-खरसावां के राजनगर में ‘आदिवासी सांवता सुशार अखाड़ा’ द्वारा एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसमें हजारों की संख्या में जनजातीय लोग शामिल हुए। इस अवसर पर चंपई सोरेन ने कहा कि जब हमारे पूर्वजों ने अपने अस्तित्व की लड़ाई में कभी समझौता नहीं किया, तो हम कैसे हार मान सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ महीनों बाद वे संथाल परगना से इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाएंगे, जिसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई देगी। चंपई के इस रुख से लग रहा है कि आने वाले समय में झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ और कन्वर्जन का मुद्दा और गर्म होने वाला है।

Share
Leave a Comment

Recent News