एक बार फिर कश्मीर की घाटी से हिन्दू शवों के ढेर उठे — इस बार तीर्थयात्रियों से धर्म पूछा गया। नाम नहीं, जाति नहीं, पूजा का तरीका नहीं-धर्म। फिर चलाई गईं गोलियां। किसी आतंकवादी संगठन ने ज़िम्मेदारी नहीं ली? नहीं, ज़रूरत ही क्या है- जब राष्ट्र में ही कुछ ऐसे घोषित सत्यवादी हैं, जो इस्लामी जिहाद की लाश पर भी ‘सेकुलर पेंटिंग’ करने को तैयार हैं।
और हैरानी की बात यह नहीं कि हत्याएं हुईं -वह तो पुराने भारत की कहानी है, जिसमें ‘काफ़िरों’ की जान हमेशा सस्ती रही। हैरानी की बात यह है कि इस बार सबसे ज़ोर से दुख उन लोगों ने व्यक्त किया जिनका नाम अक्सर ‘कट्टरपंथ’ के दायरे में रखा जाता है — मौलाना, ओवैसी, मुस्लिम पत्रकारों ने तकलीफ़ जताई, आतंकियों को खुली गालियाँ दीं और यह स्वीकारा कि जिहाद ने यहाँ बहुत बड़ी रेखा लांघी है।
लेकिन ‘सद्भावना के ठेकेदार’ कहां हैं?
दूसरे छोर पर वही पुराने चेहरे थे – पुरस्कार-लिप्त, फेस्टिवल-प्रेमी, नारीवादी से लेकर नव-बुद्धिजीवी तक – जिनकी कलमें तब सूख जाती हैं जब गोली हिन्दू सीने को चीरती है।
इनमें से कुछ ने मृतकों की सूची को ही ‘मनगढ़ंत’ कह दिया। कुछ ने मुस्लिम नाम ठूंसकर “सांप्रदायिक संतुलन” की काली कवायद की, और बाकी बचे लोगों ने कश्मीर से फेसबुक लाइव करते हुए लोगों को “घूमने आइए” कहकर शवों के ढेर, पुंछे सिंदूर और क्रंदन का उपहास किया।
ये कौन लोग हैं? वही जो “डर लगता है भारत में” का पोस्टर लेकर विदेशी मीडिया को भारत की छवि बेचते हैं। वही जो “भारत तो पितृसत्ता की प्रयोगशाला है” कहते हैं, लेकिन काफिर-कुश जिहाद पर एक शब्द नहीं लिखते। वही जो “हिंदू चरमपंथ” शब्द को गढ़ते हैं, लेकिन इस्लामी आतंकवाद शब्द उनके लेखन से गायब रहता है।
एक लेखिका, जिन्हें ‘गौरव’ कहकर बुलाया गया, जिन्होंने ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी तक को अपनी बौद्धिक सौदेबाज़ी से कलंकित किया, उन्होंने झूठ को ‘संवेदना’ का नाम दिया। एक और एक्टिविस्ट, जो “हिंदू होने पर शर्म आती है” जैसे वाक्य कहकर लाइक्स बटोरते हैं, वे इस नरसंहार पर ऐसे मौन रहे जैसे किसी शोकसभा में नहीं, बल्कि ऑस्कर की लॉबी में खड़े हों।
क्या इतने शवों के बाद भी आपकी आत्मा जागती नहीं? या जागती है तभी जब ‘वोटबैंक’ के गाल लाल किये जाएं?
इन लेखकों, कवियों, मंचीय क्रांतिकारियों से कोई पूछे कि जब गोली हिन्दू को लगती है, तो तुम्हारे कलम की स्याही क्यों सूख जाती है? क्या तुम्हारी संवेदना का मीटर केवल “गौरक्षक” के खिलाफ़ ही चलता है? ये वे लोग हैं जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिन्दू समाज से इतनी घृणा करते हैं कि जिहादियों के हाथों मारे गए हिन्दुओं के शवों को भी ‘न्यूट्रल नैरेटिव’ से ढंकने का षड्यंत्र रचते हैं।
ये हिन्दू या सेकुलर नहीं, ये काठ के शेर हैं
क्या आपको नहीं लगता कि इस देश का सबसे बड़ा संकट जिहाद नहीं, बल्कि उन हिन्दी-अंग्रेज़ी बोलने वाले सपाट चेहरों का जाल है, जो हर आतंकी को ‘भटके हुए नौजवान’ कहकर खड़े हो जाते हैं – पर हिन्दू की चीख पर उन्हें केवल ‘राजनीतिक एजेंडा’ दिखता है?
ओवैसी तक ने इसे जघन्य कहा। लेकिन हिन्दू नामधारी पत्रकार, शायर, विचारक – कुछ रुपये और विदेशी फ़ेलोशिप के बदले – आतंकियों के पक्ष में बयान गढ़ते रहे।
ओवैसी को छोड़ो, तुम बिक गए!
कश्मीरी नरसंहार में बंदूक पाकिस्तान की थी, लेकिन पर्दा भारत के भीतर के इन “बुद्धिजीवियों” ने ताना। ये वही लोग हैं जो हर आतंकी हमले को “घटना” और हर हिन्दू प्रतिकार को “फासीवाद” कहते हैं। इनका नैतिक पतन अब भाषा से परे है – यह मानवता की चिता पर खड़े हो कर कविता पढ़ने का उत्सव मनाते हैं।
यदि भारत को बचे रहना है, तो सबसे पहले इस आंतरिक विषबेल को पहचानना होगा। कश्मीर के हिन्दुओं से पहले, इन मंचों पर बैठे नकली हिन्दुओं को बेनकाब करना होगा।
क्योंकि लड़ाई केवल पाकिस्तान या आतंक से नहीं है।
लड़ाई उन मुखौटेधारी कलमों से है जो क़ातिल के कसीदे काढ़ते हैं। सच्ची कराह नहीं, झूठी कविता लिखते हैं।
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