गुरु तेग बहादुर का नाम आते ही त्याग, बलिदान, प्रेम, सहनशीलता और धर्म की रक्षा के लिए निर्भयता के साथ दी गई शहादत की दिव्य छवि उभरकर सामने आती है। गुरु तेग बहादुर का जीवन एक आदर्श संन्यासी, महान योद्धा, परोपकारी समाज सुधारक और धर्म के सच्चे संरक्षक की मिसाल है। वे सिख धर्म के नवें गुरु थे, जिन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को धर्म, मानवता और मानवीय मूल्यों के संरक्षण के लिए समर्पित कर दिया। अमृतसर में गुरु हरगोबिन्द साहिब और माता नानकी जी के घर एक अप्रैल 1621 को जन्मे गुरु तेग बहादुर को आरंभ में त्याग मल नाम से जाना जाता था लेकिन उनकी साहसिक वीरता को देखते हुए उनके पिता ने उन्हें ‘तेग बहादुर’ की उपाधि दी। वे बचपन से ही गंभीर, ध्यान-साधना में रत और आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख थे। गुरु नानक देव द्वारा प्रतिपादित सिख सिद्धांतों के प्रति उनकी गहन आस्था थी, जिसे उन्होंने अपने जीवन भर न केवल आत्मसात किया, बल्कि जन-जन तक पहुंचाने का भरसक प्रयास भी किया। इस 18 अप्रैल को गुरु तेग बहादुर का प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है।
गुरु तेग बहादुर का जीवन काल अत्यंत कठिन और संकटमय परिस्थितियों से भरा था। उस समय देश में धार्मिक स्वतंत्रता संकट में थी और मुगल शासक औरंगजेब इस्लाम धर्म को बलपूर्वक थोपने पर आमादा था। कश्मीरी पंडितों सहित अनेक हिन्दुओं पर अत्याचार किए जा रहे थे और उन्हें जबरन धर्मांतरण के लिए विवश किया जा रहा था। ऐसे कठिन समय में गुरु तेग बहादुर ने जिस साहस, विवेक और आत्मबल के साथ उन चुनौतियों का सामना किया, वह आज भी हर धर्मावलंबी के लिए प्रेरणास्त्रोत है। उन्होंने न केवल अपने अनुयायियों को धर्म के मार्ग पर अडिग रहने की प्रेरणा दी बल्कि स्वयं को धर्म और सच्चाई की रक्षा हेतु समर्पित कर दिया। जब कश्मीरी पंडितों ने औरंगजेब के अत्याचारों से त्रस्त होकर गुरु तेग बहादुर से सहायता की गुहार की तो उन्होंने बिना किसी भय के उनके पक्ष में खड़े होने का निश्चय किया। गुरु जी ने औरंगजेब को स्पष्ट संदेश दिया कि यदि वह उन्हें जबरन इस्लाम में परिवर्तित करवा सके तो अन्य सभी पंडित अपने-आप धर्म परिवर्तन कर लेंगे लेकिन औरंगजेब की तमाम कोशिशों, यातनाओं और क्रूरता के बावजूद गुरु तेग बहादुर अपने धर्म से विचलित नहीं हुए।
दिल्ली के चांदनी चौक में 24 नवम्बर 1675 को जब काजी के फतवे के बाद जल्लाद जलालदीन ने गुरु तेग बहादुर का शीश धड़ से अलग किया, तब सम्पूर्ण मानवता सिहर उठी थी। यह बलिदान केवल सिख धर्म के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए एक अमिट प्रेरणा बन गया। गुरु जी के तीन प्रमुख अनुयायियों, भाई मतीदास, भाई दयालदास और भाई सतीदास को भी क्रूरतापूर्वक शहीद कर दिया गया। भाई मतीदास को आरे से चीर दिया गया, भाई दयालदास को खौलते पानी में डाला गया और भाई सतीदास को रूई में लपेटकर जला दिया गया। इन सभी ने गुरु तेग बहादुर के नेतृत्व में धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। दिल्ली स्थित गुरुद्वारा शीशगंज साहिब और गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब हमें उन अमानवीय अत्याचारों और दिव्य बलिदानों की याद दिलाते हैं।
गुरु तेग बहादुर का योगदान केवल धर्म की रक्षा तक सीमित नहीं रहा बल्कि वे सामाजिक सुधारों और मानवीय कल्याण के लिए भी निरंतर सक्रिय रहे। उन्होंने कई स्थानों की यात्राएं कर लोगों को सच्चे धर्म का उपदेश दिया। अंधविश्वास, रूढ़ियों और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध उन्होंने निर्भीकता से अपनी बात कही और लोककल्याण के मार्ग को अपनाने का संदेश दिया। पंजाब के बाहर सबसे अधिक यात्रा करने वाले गुरुओं में उनका नाम अग्रणी है। उन्होंने आनंदपुर साहिब की स्थापना की, जो बाद में खालसा पंथ का केंद्र बना। धर्मशालाओं और कुओं का निर्माण कर समाज के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए भी उन्होंने महत्वपूर्ण प्रयास किए। वे गुरु नानक देव की शिक्षाओं के अनुरूप सहज, सत्य और संयमित जीवन जीने की प्रेरणा देते रहे। गुरु ग्रंथ साहिब में उनके द्वारा रचित 116 शबद शामिल हैं, जिनमें गहन आध्यात्मिकता, मानवता और वैचारिक स्वतंत्रता का संदेश समाहित है। उनके एक प्रसिद्ध शबद की पंक्तियां हैं, ‘साधो कउन जुगति अब कीजै। जा ते दुरमति सगल बिनासै राम भगति मनु भीजै।’ इस शबद के माध्यम से उन्होंने मन को माया के बंधन से मुक्त कर सच्चे भक्ति मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। उन्होंने लोगों को बताया कि जीवन में धन, पद और शक्ति से अधिक मूल्यवान सत्य, न्याय और आत्मज्ञान है। सिख परंपरा में उनकी शहादत को सर्वोच्च सम्मान के साथ देखा जाता है। उनके बलिदान का उल्लेख करते हुए गुरु ग्रंथों में लिखा गया, ‘धरम हेत साका जिनि कीआ, सीसु दीआ परु सिररु न दीआ।’ अर्थात धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने शीश दे दिया लेकिन अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया।
गुरु तेग बहादुर की शहादत का सिख इतिहास में गहरा प्रभाव पड़ा। उनके पुत्र गुरु गोबिंद सिंह, जो उस समय केवल नौ वर्ष के थे, ने सिख परंपरा को एक नई दिशा दी। उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना कर सिखों को संगठित, सशक्त और आत्मरक्षा में निपुण बनाया। गुरु तेग बहादुर के बलिदान ने यह संदेश दिया कि धर्म की रक्षा केवल उपदेशों से नहीं बल्कि आवश्यकता पड़ने पर प्राणों की आहुति देकर भी की जाती है। गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिता के बलिदान को इस प्रकार शब्दों में व्यक्त किया, ‘तिलक जंझू राखा प्रभ ताका। कीनो बडो कलू महि साका।। साधन हेति इती जिनि करी। सीसु दीया परु सी न उचरी।।’ गुरु तेग बहादुर का जीवन मूलतः धर्म के प्रति निष्ठा, वैचारिक दृढ़ता, नैतिक उदारता और मानवीय सेवा का अद्भुत संगम था। उन्होंने न केवल धर्म की रक्षा की बल्कि यह भी सिद्ध किया कि अहिंसा, सहिष्णुता और प्रेम के मार्ग पर चलकर भी अत्याचारी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया जा सकता है। वे एक ऐसे अद्वितीय संत थे, जिन्होंने अपने विरोधियों को भी क्षमा, सहनशीलता और करुणा से परास्त किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को सदैव प्रेम, भाईचारा, एकता और समर्पण का मार्ग दिखाया। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को कोई शक्ति विचलित नहीं कर सकती।
21वीं सदी में जब संपूर्ण विश्व अनेक धार्मिक, जातिगत और सांस्कृतिक टकरावों से जूझ रहा है, गुरु तेग बहादुर का जीवन और बलिदान हमें एक सशक्त संदेश देता है कि मानवाधिकारों, धार्मिक स्वतंत्रता और नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए हर प्रकार के अन्याय का दृढ़ता से विरोध किया जाना चाहिए। भारत भूमि धन्य है, जिसने गुरु तेग बहादुर जैसे संत को जन्म दिया, जिन्होंने न केवल अपने समय में बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का दीप जलाया। उनका त्याग और बलिदान एक ऐसा प्रकाशपुंज है, जो आज भी पथभ्रष्ट मानवता को सत्य और धर्म के मार्ग पर लौटने का मार्ग दिखाता है। उनका जीवन, उनका उपदेश, उनकी शहादत और उनका आदर्श हर युग में प्रासंगिक रहेगा। उनके प्रकाश पर्व पर उन्हें स्मरण करना केवल एक रस्म नहीं बल्कि उन मूल्यों को पुनः जीवित करना है, जिनके लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी थी। गुरु तेग बहादुर का संपूर्ण जीवन हमें यह शिक्षा देता है कि परिस्थितियां चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हों, सत्य, न्याय और धर्म के लिए डट जाना ही सच्ची वीरता और भक्ति है।
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