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जलियांवाला बाग नरसंहार की हुतात्माएं और अंग्रेजों का जघन्य पाप

जलियांवाला बाग नरसंहार (1919) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का दुखद अध्याय है। असभ्य अंग्रेजों के द्वारा किए गए इस महापाप का दुखद स्मरण उनकी बर्बरता, नीचता और पैशाचिक मनोवृत्ति को उजागर करता है।

by डॉ. आनंद सिंह राणा
Apr 13, 2025, 07:32 am IST
in मत अभिमत
Jalianwala Genosides

जलियावाला बाग नरसंहार की तस्वीर

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13 अप्रैल की तिथि आते ही जलियांवाला बाग के नरसंहार की बेगुनाह हुतात्माओं का हृदय विदारक दृश्य मन-मष्तिष्क को विचलित कर देता है और असभ्य अंग्रेजों के द्वारा किए गए इस महापाप का दुखद स्मरण उनकी बर्बरता, नीचता और पैशाचिक मनोवृत्ति को उजागर करता है। वहीं सामूहिक बलिदान दिवस पर भोंपू (सायरन) नहीं बजता है वो तो केवल एक के लिए बजता है, और ये दिन भी निकल जाता है।

वास्तविकता यह है कि जलियांवाला बाग हत्याकांड नहीं वरन् सामूहिक नरसंहार है, बलिदान दिवस है, परंतु वर्तमान संदर्भ में श्रद्धांजलि के साथ इस पर एक विश्लेषणात्मक विमर्श की आवश्यकता है।

इतिहास खुद को दोहराता है। सामूहिक नरसंहार की परंपरा पश्चिमी संस्कृति और इस्लामिक जिहाद का महत्वपूर्ण हिस्सा है और जिसकी पुनरावृत्ति होती रही है, यथा तथाकथित मध्यकाल में महमूद गजनवी, सिकंदर लोदी, अलाउद्दीन खिलजी, तैमूर लंग, औरंगज़ेब, नादिरशाह दुर्रानी के द्वारा हिंदुओं का नरसंहार, स्वाधीनता के पूर्व मोपला नरसंहार और स्वाधीनता के उपरांत 19 जनवरी 1990 का कश्मीरी ब्राम्हणों का नरसंहार तथा 27 फरवरी 2002 का गोधरा नरसंहार। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध और वर्तमान संदर्भ में रुस-यूक्रेन युद्ध में बूचा नरसंहार पश्चिमी संस्कृति की बर्बरता का ज्वलंत उदाहरण है।

इसलिए भारत के संदर्भ में जलियांवाला बाग नरसंहार से सबक लेने की आवश्यकता है, ताकि भविष्य में ऐसे नरसंहारों की पुनरावृत्ति ना हो सके। ऐसा तभी संभव है जब हिंदुओं को इस प्रकार के नरसंहार का मुंहतोड़ जवाब देना होगा।

हर दिन की तरह आज 13 अप्रैल भी सायं 5.00 बजने को हैं और इतिहास के अध्येता होने के कारण मन विचलित हो रहा है। मन को स्थिर रखने के लिए महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता संग्रह “मुकुल” के पृष्ठ 80 और 81 पर दृष्टि टिकी हुई है, जिसमें “जलियांवाले बाग में बसंत” कविता है “बार बार पढ़ता हूँ , तो करुण, वीर और रौद्र रस के भाव उमड़ते हैं और मन इतिहास के आज के दिन की स्मृतियाँ मस्तिष्क में टटोलने लगता है, परिणामस्वरूप मनोदशा के आवेग में प्रसूत होती है,जलियांवाला बाग के बलिदान की महागाथा और स्मृति पटल पर छा जाती है!!

सन् 1885 कांग्रेस के उदारवादियों ने बरतानिया सरकार का सदैव समर्थन कर तथाकथित स्वाधीनता संग्राम किया था और इसलिए वे बरतानिया शासन को भारत में दैवीय कृपा मानते थे। प्रथम विश्व युद्ध में कांग्रेस के साथ महात्मा गांधी ने बरतानिया सरकार का भरपूर सहयोग किया। प्रथम विश्व युद्ध के लिए भारतीय सैनिकों की भर्ती करवाई, लाखों भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध में लड़ने के लिए गए, जिसमें सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 43000 सैनिकों का बलिदान हुआ। परंतु प्रथम विश्व युद्ध में इंग्लैंड की विजय के उपरांत उन्होंने स्वराज और स्वशासन की मांग पर मौन धारण कर लिया। यह भयानक छल बरतानिया सरकार द्वारा किया गया।

प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत बरतानिया सरकार ने अपनी क्षतिपूर्ति के लिए पुनः भयंकर रुप आर्थिक शोषण आरंभ किया, व्यापारियों और किसानों को बर्बाद कर दिया। भारतीय सैनिक जो प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हुए थे, उनको नौकरियों से निकाल बाहर किया। इन सब विपरीत परिस्थितियों के चलते पंजाब में क्रांतिकारियों ने मोर्चा संभाल रखा था और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम उफान पर था।

नेतृत्व गरम दल के बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिनचंद्र पाल जैसे महारथियों के हाथ में था। पंजाब स्वाधीनता संग्राम का केन्द्र बिन्दु बन रहा था और सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम जैसा वातावरण बन रहा था। जिसके दमन हेतु सिडनी रोलेट के अध्यक्षता में बनी समिति ने रोलेट एक्ट पारित कर दिया। इस एक्ट के अंतर्गत किसी भारतीय को संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था और उसके विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती थी। इसे ही काला कानून (ब्लैक एक्ट) कहा गया जिसका सीधा पर्याय था – न दलील, न अपील, न वकील।

पंजाब में इस एक्ट का भारी विरोध था। हिन्दू मुस्लिम एकता भी चरम पर थी। मस्जिद की चाबी सत्यपालजी के पास और स्वर्ण मंदिर की चाबी सैफुद्दीन हसन किचलू के पास होने का समाचार तथा दोनों को नजरबंद कर लिया गया था एवं बहिष्कृत कर काला पानी की सजा की हवा भी गर्म थी। उपर्युक्त परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में पंजाब की स्थिति देखकर तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर साइमन ओ डॉयर घबराया हुआ था।

अतः पंजाब में नृशंसता पूर्वक दमन चक्र आरंभ कर दिया गया, जिसके विरोध में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास जलियांवाले बाग में एक शांतिपूर्ण सभा होनी थी। 13 अप्रैल 1919 बैसाखी का पर्व था। विशेषकर पंजाब और हरियाणा तथा भारत का अति महत्वपूर्ण महापर्व है, दसवें सिख गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। इस वर्ष फसलें अच्छी हुई थीं और स्वतंत्रता आंदोलन की उमंग भी जोरों पर थी और प्रतिवर्षानुसार इस अवसर पर अमृतसर में सबसे बड़ा मेला लगा था। सुबह से ही दूर दूर से लोग मेले में आये हुए थे, और जलियांवाला बाग में सभा होने की खबर भी थी।

आखिरकार 4.30 बजे 5 हजार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अपने परिवार समेत स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने के उपरांत जलियांवाले बाग पहुंच गये। उधर माईकल ओ डॉयर ने दोपहर 12.30 पर रेजीनाल्ड डायर (जनरल डायर) को बुलाकर निर्देश दे दिए। समय ठीक सायं 5.10 हो रहा था और दुर्गादास जी भाषण दे रहे थे, तभी रेजीनाल्ड डायर ने बाग को घेर लिया। फिर जो हुआ वह अंग्रेजों की विश्व की सबसे कायराना हरकत थी और लोमहर्षक नरसंहार। इस सामूहिक नरसंहार में बिना किसी चेतावनी के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 10 मिनट में 1650 धुआंधार गोलियां दागी गईं, जिसमें एक 7माह के एवं एक 6 सप्ताह के बच्चे के साथ किशोर, युवा, मातृ शक्ति और वृद्ध सहित लगभग 1000 से अधिक पंचत्व को प्राप्त होकर अमर बलिदानी हुए, और 2000 घायल हुए इसमें भी कई की मृत्यु हुई।

यह विश्व इतिहास का सर्वाधिक नृशंस सामूहिक नरसंहार है। इसका मार्मिक चित्र महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीरांगना सुभद्रा कुमारी चौहान जी की कविता “जलियांवाला बाग में बसंत” में इस प्रकार किया गया है-

“यहां कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियां भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग़ सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग़ खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहां मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहां गोली खा कर,
कलियां उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियां अधखिली यहां इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहां गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहां मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।”

यह नरसंहार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में महान् सामूहिक बलिदान एवं ‘स्व’ के लिए पूर्णाहुति है।

जलियांवाला बाग नरसंहार का प्रतिघात 13 मार्च 1940 को 21 साल बाद महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सरदार ऊधम सिंह ने इंग्लैंड जाकर दुर्दांत अपराधी नर पिशाच माईकल ओ डायर को मौत के घाट उतार कर लिया। आज भी भोंपू (हूटर) नहीं बजेगा केवल एक के लिए ही बजेगा भारत में एक ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। इसलिए आग्रह है कि आज 13 अप्रैल सायं 5.10 बजे के बाद जहां भी हों 2 मिनिट का मौन रखकर श्रद्धांजलि अर्पित करें ।ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।

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