कस्तूरबा जयंती विशेष : वो 'बा' ही थीं! जो गांधी जी के चरमोत्कर्ष की सारथी बनीं
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कस्तूरबा गांधी जयंती विशेष : वो ‘बा’ ही थीं! जो गांधी जी के चरमोत्कर्ष की सारथी बनीं

कस्तूरबा गांधी सिर्फ महात्मा गांधी की पत्नी नहीं थीं, वे स्वतंत्रता संग्राम की एक वीरांगना थीं। जानिए कैसे ‘बा’ ने हर सत्याग्रह में निभाई अग्रणी भूमिका और बनीं एक सच्ची प्रेरणा।

by डॉ. आनंद सिंह राणा
Apr 11, 2025, 06:00 am IST
in मत अभिमत
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20 जनवरी 1942 को जब जबलपुर रेलवे स्टेशन पर रेलगाड़ी रुकी,तब “बा”के स्वागत के लिए वीरांगना सुभद्रा कुमारी चौहान के संग सत्याग्रही महिलाओं की भीड़ उमड़ पड़ी थी, वहीं गाँधी जी का स्वागत जबलपुर के महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किया था। यह वह समय था ,जब 21 जनवरी को गांधी जी काशी विश्वविद्यालय के होने वाले रजत जयंती वर्ष में सम्मिलित होने जा रहे थे, तब “बा” भी साथ थीं।
आज 11 अप्रैल को वीरांगना “बा” की जयंती पर , इस भावभीने प्रसंग का स्मरण करते हुए , उनके जीवन वृत्त का सिंहावलोकन प्रस्तुत करने का एक गिलहरी जितना प्रयास है।

वीरांगना कस्तूरबा गांधी से महात्मा गाँधी का विवाह हुआ था। तथाकथित नारीवादियों को बता दूँ कि “बा”ने भारतीय सभ्यता और संस्कारों के आलोक में वो स्थान प्राप्त किया था कि गाँधी जी ने उन्हें अपना गुरु मान लिया था।इसलिए वीरांगना कस्तूरबा गांधी के नाम से महात्मा गाँधी को जानना समीचीन है।

गाँधी जी के सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, उपवास और ब्रम्हचर्य के अनुष्ठान में “बा” सहधर्मचारिणी रहीं तो वहीं दूसरी ओर स्वतंत्रता संग्राम में सारथी कई भूमिका निभाई। वास्तव में महात्मा गाँधी की सफलता के मूल में “बा” की देवीय शक्ति ही थी।

वीरांगना स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कस्तूरबा गांधी (1869-1944) का जन्म, 11 अप्रैल सन् 1869 ई. में काठियावाड़ के पोरबंदर नगर में हुआ था। इस प्रकार कस्तूरबा गाँधी आयु में गाँधी जी से 6 मास बड़ी थीं। कस्तूरबा गाँधी के पिता ‘गोकुलदास मकनजी’ साधारण स्थिति के व्यापारी थे।

गोकुलदास मकनजी की कस्तूरबा तीसरी संतान थीं। उस जमाने में कोई लड़कियों को पढ़ाता तो था नहीं, विवाह भी अल्पवय में ही कर दिया जाता था। इसलिए कस्तूरबा भी बचपन में निरक्षर थीं और सात साल की अवस्था में 6 साल के मोहनदास के साथ उनकी सगाई कर दी गई। तेरह साल की आयु में उन दोनों का विवाह हो गया।

“बा” और बापू 1888 ई. तक लगभग साथ-साथ ही रहे परंतु गांधी जी के इंग्लैंड प्रवास के समय अलग – अलग रहने पड़ा लेकिन “बा” ने अपने कर्तव्यों का पालन भलीभाँति किया।इंग्लैंड से लौटने के बाद शीघ्र ही बापू को अफ्रीका जाना पड़ा। जब 1896 में वे भारत आए तब बा को अपने साथ ले गए। तब से “बा”, बापू के पथ का अनुगमन करती रहीं। उन्होंने उनकी तरह ही अपने जीवन को सादा बना लिया।

जब 1932 में हरिजनों के प्रश्न को लेकर बापू ने यरवदा जेल में आमरण उपवास आरंभ किया उस समय “बा” साबरमती जेल में थीं। उस समय वे बहुत बेचैन हो उठीं और उन्हें तभी चैन मिला जब वे यरवदा जेल भेजी दी गई।
धर्म के संस्कार “बा” में गहरे बैठे हुए थे। वे किसी भी अवस्था में मांस और शराब लेकर मानुस देह भ्रष्ट करने को तैयार न थीं। अफ्रीका में कठिन बीमारी की अवस्था में भी उन्होंने मांस का शोरबा पीना अस्वीकार कर दिया और आजीवन इस बात पर दृढ़ रहीं।

दक्षिण अफ्रीका में 1913 में एक ऐसा कानून पास हुआ जिससे ईसाई मत के अनुसार किए गए और विवाह विभाग के अधिकारी के यहाँ दर्ज किए गए विवाह के अतिरिक्त अन्य विवाहों की मान्यता ,अमान्य की गई थी। दूसरे शब्दों में हिंदू, मुसलमान, पारसी आदि लोगों के विवाह अवैध करार दिए गए और ऐसी विवाहित स्त्रियों की स्थिति पत्नी की न होकर रखैल सरीखी बन गई। बापू ने इस कानून को रद्द कराने का बहुत प्रयास किया।

परंतु जब वे सफल न हुए तब उन्होंने सत्याग्रह करने का निश्चय किया और उसमें सम्मिलित होने के लिये स्त्रियों का भी आह्वान किया। पर इस बात की चर्चा उन्होंने अन्य स्त्रियों से तो की किंतु “बा” से नहीं की। वे नहीं चाहते थे कि बा उनके कहने से सत्याग्रहियों में जाएं और फिर बाद में कठिनाइयों में पड़कर विषम परिस्थिति उपस्थित करें। वे चाहते थे कि वे स्वेच्छानुसार जाएं और जाएं तो दृढ़ रहें। जब “बा” ने देखा कि बापू ने उनसे सत्याग्रह में भाग लेने की कोई चर्चा नहीं की तो बड़ी दु:खी हुई और बापू को उलाहना दी। फिर वे स्वेच्छानुसार सत्याग्रह में सम्मिलित हुई और तीन अन्य महिलाओं के साथ जेल गईं।

जेल में जो भोजन मिला वह अखाद्य था अत: उन्होंने फलाहार करने का निश्चय किया। किंतु जब उनके इस अनुरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो उन्होंने उपवास करना आरंभ कर दिया। निदान पाँचवें दिन अधिकारियों को झुकना पड़ा। किंतु जो फल दिए गए वह पूरे भोजन के लिये पर्याप्त न थे। अत: “बा” को तीन महीने जेल में आधे पेट भोजन पर रहना पड़ा। जब वे जेल से छूटीं तो उनका शरीर ठठरी मात्र रह गया था।

दक्षिण अफ्रीका में जेल जाने के सिवा कदाचित् वहाँ के किसी सार्वजनिक काम में भाग नहीं लिया किंतु भारत आने के बाद बापू ने जितने भी काम उठाए, उन सबमें उन्होंने एक अनुभवी सैनिक की भाँति हाथ बँटाया।

चंपारन के सत्याग्रह के समय “बा” भी तिहरवा ग्राम में रहकर गाँवों में घूमती और दवा वितरण करती रहीं। उनके इस काम में निलहे गोरों को राजनीति की बू आई। उन्होंने “बा” की अनुपस्थिति में उनकी झोपड़ी जलवा दी। “बा” की उस झोपड़ी में बच्चे पढ़ते थे। अपनी यह चटशाला एक दिन के लिए भी बंद करना उन्हें पसंद न था । अत: उन्होंने सारी रात जागकर घास का एक दूसरा झोपड़ा खड़ा किया। इसी प्रकार खेड़ा सत्याग्रह के समय “बा” स्त्रियों में घूम घूमकर उन्हें उत्साहित करती रही।

1922 में जब बापू गिरफ्तार किए गए और उन्हें छह साल की सजा हुई उस समय उन्होंने जो वक्तव्य दिया वह उन्हें वीरांगना के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

उन्होंने गांधी जी के गिरफ्तारी के विरोध में विदेशी कपड़ों के त्याग के लिए लोगों का आह्वान किया। बापू का संदेश सुनाने नौजवानों की तरह गुजरात के गाँवों में घूमती फिरीं।

1930 में दांडी कूच और धरासणा(धरसाना) के धावे के दिनों में बापू के जेल जाने पर “बा” एक प्रकार से बापू के अभाव की पूर्ति करती रहीं। वे पुलिस के अत्याचारों से पीड़ित जनता की सहायता करती, धैर्य बँधाती फिरीं। 1932 और 1933 का अधिकांश समय उनका जेल में ही बीता।1939 में राजकोट के ठाकुर साहब ने प्रजा को कतिपय अधिकार देना स्वीकार किया था किंतु बाद में मुकर गए।

जनता ने इसके विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करने के लिये सत्याग्रह करने का निश्चय किया। “बा” ने जब यह सुना तो उन्हें लगा कि राजकोट उनका अपना घर है। वहाँ होने वाले सत्याग्रह में भाग लेना उनका कर्तव्य है। उन्होंने इसके लिये बापू की अनुमति प्राप्त की और वे राजकोट पहुँचते ही सविनय अवज्ञा के अभियोग में नजरबंद कर ली गईं। पहले उन्हें एक एकांत सुनसान में बसे गाँव में रखा गया जहाँ का वातावरण उनके तनिक भी अनुकूल न था।

जनता ने आंदोलन किया कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, उन्हें चिकित्सा की सुविधा से दूर रखना अमानुषिक है। फलत: वे राजकोट से 10-15 मील दूर एक राजमहल में रखी गयीं। बा के जाने के कुछ समय बाद बापू ने भी सत्याग्रह में भाग लेने का निश्चय किया और वहाँ पहुँचकर उपवास आरंभ किया। जब बा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने एक समय ही भोजन करने का निश्चय किया। बापू के उपवास के समय वे सदैव ही ऐसा करती थीं।

दो तीन दिन बाद ही राजकोट सरकार ने यह भुलावा देकर कि वे बापू से मिलना चाहें तो जा सकती हैं, उन्हें बापू के पास भेज दिया। किंतु जब शाम को कोई उन्हें नजरबंदी के स्थान पर वापस ले जाने नहीं आया तब पता चला कि इस छलावे से उन्हें रिहा किया गया है। बापू को यह सह्य न था। उन्होंने “बा” को एक बजे रात को जेल वापस भेजा। राजकोट सरकार की हिम्मत न हुई कि वह सारी रात उन्हें सड़क पर रहने दे। वे वापस राजमहल ले जाई गयीं और उसके बाद दूसरे दिन वे बाकायदा रिहा की गयीं।

9 अगस्त 1942 को बापू आदि के गिरफ्तार हो जाने पर बा ने, शिवाजी पार्क (बंबई) में, जहाँ स्वयं बापू भाषण देने वाले थे, सभा में भाषण करने का निश्चय किया किंतु पार्क के द्वार पर पहुँचने पर गिरफ्तार कर ली गईं। दो दिन बाद वे पूना के आगा खाँ महल में भेज दी गईं। बापू गिरफ्तार कर पहले ही वहाँ भेजे जा चुके थे। उस समय वे अस्वस्थ थीं। गिरफ्तारी की रात को उनका जो स्वास्थ्य बिगड़ा वह फिर संतोषजनक रूप से सुधरा नहीं और अंततोगत्वा “बा” ने 22 फ़रवरी 1944 को अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया और अनंत यात्रा की ओर निकल गईं।

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