ट्रंप 2.0 से ब्रिक्स पर संकट : टैरिफ-प्रतिबंधों के तूफान में टिक पाएगा गठबंधन?
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ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के बाद चौराहे पर खड़ा ब्रिक्स : मृत या सशक्त..?

ट्रंप की अमेरिका-प्रथम नीति से ब्रिक्स+ पर दबाव, टैरिफ और प्रतिबंधों का असर। क्या उभरती शक्तियां टिक पाएंगी.? जानने के लिए पढ़े पूरा विश्लेषण

by अक्षत द्विवेदी
Apr 10, 2025, 08:49 pm IST
in विश्लेषण
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क्या ट्रंप 2.0 की अध्यक्षता के बाद ब्रिक्स गठबंधन पूरी तरह निष्क्रिय हो गया है, या वह इस तूफान का सामना करने में सक्षम है? अमेरिका-प्रथम नीति के चार और वर्षों के बाद, उभरती हुई शक्तियों का यह समूह — ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका, जो अब नए सदस्यों के साथ विस्तारित हो चुका है — एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है। अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ, प्रतिबंधों और कूटनीतिक दबावों ने ब्रिक्स को कई मोर्चों पर चुनौती दी है। फिर भी, इस समूह ने लचीलापन भी दिखाया है: अपने सदस्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा दिया है, प्रभावशाली नए साझेदार जोड़े हैं, और पश्चिमी देशों पर निर्भरता को कम करने की योजनाओं पर दोहरी गति से काम किया है।

आर्थिक चुनौतियाँ और व्यापारिक संबंध

राष्ट्रपति ट्रंप ने व्हाइट हाउस में लौटने के बाद अपनी व्यापार नीतियों के जरिए ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्था को तुरंत झकझोर दिया। उन्होंने सार्वजनिक रूप से धमकी दी कि यदि ब्रिक्स देश “डॉलर को छोड़ते हैं,” तो वे उन पर 100% टैरिफ लगा देंगे — यह उस समूह की अमेरिकी डॉलर के अलावा अन्य मुद्राओं में रुचि पर सीधा कटाक्ष था। इन अमेरिकी नीतियों ने ब्रिक्स देशों के निर्यात को नुकसान पहुँचाया, निवेशकों को डरा दिया, और डॉलर के विकल्प तक पहुँच को सीमित कर दिया, जिससे ब्रिक्स देशों को तीव्र आर्थिक पीड़ा और अनिश्चितता का सामना करना पड़ा। लेकिन क्या अमेरिका का यह दबाव प्रभावी होगा?

2023 में, ब्रिक्स+ का कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीङीपी) लगभग $29.064 ट्रिलियन था, जो वैश्विक जीङीपी का 28% था — विश्व जीङीपी रैंकिंग 2025 सूची के अनुसार, यह उस वर्ष के लिए विश्व जीङीपी के अनुमानित $105–$106 ट्रिलियन के अनुरूप है। यदि समूह की व्यापारिक गतिविधियो को देखे तो समूह के भीतर क्षेत्रीय व्यापार में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई — 2001–2007 की औसत $143.87 बिलियन से बढ़कर 2019–2022 में $744 बिलियन हो गया, जो पाँच गुना से अधिक की वृद्धि है,  और यह इसकी बढ़ती आर्थिक एकजुटता को दर्शाता है। 2040 तक के अनुमानों के अनुसार, ब्रिक्स+ वैश्विक जीङीपी का 50% से अधिक हिस्सा हासिल कर सकता है, जो बड़े आकार की अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण से प्रेरित होगा,  और यह पश्चिमी आर्थिक प्रभुत्व को चुनौती देने की इसकी क्षमता को उजागर करता है।

2024 में, अमेरिका का ब्रिक्स+ समूह के साथ द्विपक्षीय व्यापार लगभग $914 बिलियन था, जिसमें अमेरिकी निर्यात $330.6 बिलियन और आयात $583.4 बिलियन थे, जिससे $252.8 बिलियन का व्यापार घाटा हुआ। ब्रिक्स+ समूह, अमेरिका के कुल आयात का 17.4% और निर्यात का 15.7% हिस्सा बनाता है; ऐसे में कोई भी प्रतिशोधात्मक कार्रवाई आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर सकती है, उपभोक्ताओं के लिए कीमतें बढ़ा सकती है, और निर्यात बाजारों को कम कर सकती है, जिससे अमेरिकी उद्योगों को नुकसान हो सकता है। उदाहरण के लिए, केवल चीन से आयात ($438.9 बिलियन) मशीनरी और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे सामानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। संक्षेप में कहें तो, पश्चिम से अलगाव इतनी आसानी से नहीं हो सकता। फिर भी, यह दबाव निश्चित रूप से ब्रिक्स सदस्यों को मजबूरी में एक-दूसरे के और करीब ले आया है। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि तेल और अन्य आवश्यक वस्तुओं पर अमेरिकी प्रतिबंध “वास्तव में ब्रिक्स देशों को एक-दूसरे के करीब ला रहे हैं,” क्योंकि वे इस दबाव से उबरने के लिए सहयोग कर रहे हैं।

भू-राजनीतिक परिवर्तन और ब्रिक्स का वैश्विक प्रभाव

ट्रम्प की एकतरफा विदेश नीति ने ब्रिक्स के लिए भू-राजनीतिक समीकरणों को भी बदल दिया। इस अवसर को भांपते हुए, बीजिंग और मास्को ने ब्रिक्स को अमेरिकी प्रभुत्व के प्रतिरोधक के रूप में प्रोत्साहित करने की कोशिश की। दोनों शक्तियों ने ब्रिक्स के ज़रिए एक बहुध्रुवीय व्यवस्था की वकालत की, जिसमें उभरती अर्थव्यवस्थाओं को अधिक मजबूत आवाज़ मिले। हालांकि, बड़े समूह का विस्तार ब्रिक्स+ समूह अपने अंदर नई दरारें भी लाता है। मूल ब्रिक्स पहले से ही विविध हितों के कारण संघर्ष कर रहे थे — अब ईरान और यूएई या मिस्र और इथियोपिया जैसे प्रतिद्वंद्वियों के बीच की दूरियों को पाटना इस समूह की एकता की असली परीक्षा होगी। यह एकता पहले से भी कभी-कभी डगमगाती रही है चीन द्वारा ब्रिक्स के तेज़ी से विस्तार की कोशिशों ने भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका की आपत्तियों को लगभग अनदेखा कर दिया, जो अपने प्रभाव के कम होने और ईरान जैसे कट्टरपंथी विरोधी पश्चिमी देशों की सदस्यता को लेकर चिंतित थे।

इन चुनौतियों के बावजूद, ब्रिक्स ढांचा अभी तक बिखरा नहीं है — बल्कि यह ट्रंप के बाद के युग में उन कुछ मंचों में से एक बना हुआ है, जहां चीन, भारत और रूस के नेता एक ही मेज़ पर बैठते हैं। इस संतुलन साधने में भारत की भूमिका निर्णायक रही है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने कहा, “चीन हमेशा से मानता है कि भारत तथा चीन परस्पर आपसी साझेदार बनना ही दोनों पक्षों के लिए एकमात्र सही विकल्प है।”

वित्तीय और मौद्रिक नीतियाँ

संभवत: ट्रंप की अमेरिका और ब्रिक्स के बीच सबसे तीखा संघर्ष वित्तीय क्षेत्र में देखने को मिला। ब्रिक्स राष्ट्र लंबे समय से वैश्विक वित्त पर अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व से असहज रहे हैं, जो वाशिंगटन को प्रतिबंधों के ज़रिए डॉलर को एक हथियार के रूप में उपयोग करने की असाधारण क्षमता देता है। पुतिन द्वारा आयोजित एक ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में, मास्को ने “ब्रिक्स पे” नामक एक प्रस्तावित नेटवर्क का अनावरण किया, जिसका उद्देश्य पश्चिम-नियंत्रित बैंकिंग सिस्टम को दरकिनार करना था।

जबकि ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला डा सिल्वा जैसे नेता साझा मुद्रा की वकालत करते रहे,  लेकिन आलोचकों का तर्क है कि ऐसी महत्वाकांक्षाएं अभी “बहुत दूर की बाते” हैं। ब्रिक्स मुद्रा का निर्माण बड़े राजनीतिक समझौते की मांग करेगा — जो यूरो ज़ोन जैसे राजकोषीय और मौद्रिक एकीकरण के स्तर का होगा — और ऐसा कोई परिदृश्य निकट भविष्य में दिख नहीं रहा।

ब्रिक्स राष्ट्र, अचानक मौद्रिक क्रांति की बजाय, धीरे-धीरे वित्तीय आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। उनका न्यू डेवलपमेंट बैंक, जिसे एक मिनी-वर्ल्ड बैंक के रूप में देखा जाता है, अब स्थानीय मुद्राओं में परियोजनाओं को फंड करना शुरू कर चुका है ताकि डॉलर-आधारित व्यवस्था पर निर्भरता कम की जा सके। हालांकि न्यू डेवलपमेंट बैंक अभी भी अपने समकक्षों जैसे कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक की तुलना में काफी छोटा है और उन्हें पूरी तरह प्रतिस्थापित नहीं कर सकता, लेकिन जब पश्चिमी ऋणदाता पीछे हटते हैं तो यह सदस्य देशों के लिए वित्तीय राहत का साधन बनता है।

संक्षेप में कहें तो, ब्रिक्स का वैश्विक वित्तीय व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने का सपना बरकरार है, लेकिन यह सावधानीपूर्वक आगे बढ़ रहा है। यह समूह सीधे टकराव से बचते हुए धीरे-धीरे डॉलर के एकाधिकार को खत्म करने की दिशा में संतुलित रणनीति अपना रहा है।

ट्रंप की क्रिप्टो नीति और ब्रिक्स+ के लिए भविष्य की संभावनाएँ

ट्रंप की क्रिप्टो नीति एक अहम सवाल उठाती है- क्या क्रिप्टो को बढ़ावा देना अनजाने में अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को कमजोर कर रहा है? ट्रंप द्वारा रणनीतिक बिटकॉइन रिज़र्व स्थापित करने का मतलब है कि अमेरिकी सरकार स्वयं अब अपनी राष्ट्रीय आरक्षित संपत्तियों में एक ऐसा संपत्ति रखेगी जो डॉलर प्रणाली के बाहर है। दीर्घकाल में, यदि लोग अपनी संपत्ति डॉलर के बजाय क्रिप्टो में रखें, जिससे फेडरल रिज़र्व की मुद्रा आपूर्ति और ऋण पर पकड़ कमजोर हो सकती है -तो यह एक प्रकार की धीमी आंतरिक “डि-डॉलराइज़ेशन” होगी।

वैश्विक स्तर पर भी, अमेरिका की क्रिप्टो नीति एक दोधारी तलवार है। एक ओर, प्रशासन को उम्मीद है कि डॉलर-समर्थित स्टेबलकॉइन अन्य देशों की डिजिटल मुद्राओं को पीछे छोड़ देंगे। दूसरी ओर, अमेरिका द्वारा क्रिप्टो को गले लगाने से अमेरिकी प्रतिद्वंद्वी देशों को डॉलर को दरकिनार करने का अवसर मिल रहा है। एक स्पष्ट उदाहरण है- रूस, प्रतिबंधों के कारण,  डॉलर-आधारित प्रणाली से बाहर किए जाने के बाद, रूस ने बिटकॉइन, ईथर और USD टेथर जैसे क्रिप्टोकरेंसीज़ का उपयोग कर चीन और भारत को तेल व अन्य निर्यात का व्यापार करना शुरू किया।

ब्रिक्स, अमेरिकी डॉलर को टक्कर देने के लिए एक नई डिजिटल मुद्रा बनाने पर सक्रिय रूप से चर्चा कर रहा है, जिसे “द यूनिट” कहा जा रहा है। इसके साथ ही “ब्रिक्स ब्रिज” नामक एक बहुपक्षीय डिजिटल भुगतान और निपटान मंच का भी ज़िक्र हुआ, जो स्विफ्ट के बिना ही कई मुद्राओं में त्वरित पीयर-टू-पीयर लेन-देन को सक्षम बनाता है। जिस पर फरवरी 2024 में ब्राज़ील के साओ पाउलो में हुई ब्रिक्स वित्त मंत्रियों की बैठक में चर्चा की गई। भारत ने भी 2022 के अंत में डिजिटल रुपया के पायलट कार्यक्रम शुरू किए थे और अब वह थोक और खुदरा दोनों स्तरों पर इसका परीक्षण विस्तार कर रहा है।

संक्षेप में कहा जाए तो, तकनीकी तैयारी धीरे-धीरे उभर कर सामने आ रही है: इन देशों के पास डिजिटल अवसंरचना मौजूद है और वे ब्लॉकचेन तकनीकों का सक्रिय परीक्षण कर रहे हैं जो साझा डिजिटल मुद्रा को समर्थन देने के लिए आवश्यक हैं। आगे की प्रमुख बाधाएं अब तकनीकी क्षमता की नहीं, बल्कि आर्थिक समन्वय और राजनीतिक सहमति की हैं।

मिश्रित मुद्रा मॉडल का प्रस्ताव

पाँच (और अब बढ़ते हुए) सदस्य देशों के बीच तथा अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ व्यापार को एक ब्रिक्स कॉइन के माध्यम से सुविधाजनक बनाया जा सकता है। एक विश्लेषण के अनुसार, यदि ब्रिक्स के भीतर होने वाले 50% व्यापार को एकल डिजिटल मुद्रा में निपटाया जाए, तो प्रत्येक लेन-देन में प्रतिभागियों को 1% से 2% तक लागत की बचत हो सकती है। इससे अरबों डॉलर की दक्षता संबंधी लाभ उत्पन्न होंगे, जिनका उपयोग आगे के विकास के लिए किया जा सकता है। एक विचार यह है कि एक आरक्षित मुद्रा बनाई जाए जो ब्रिक्स की मुद्राओं की एक टोकरी से समर्थित हो — जिसे कभी-कभी “R5” या R5+ कहा जाता है (क्योंकि सभी पाँच मूल मुद्राएँ — रियल, रूबल, रुपया, रेनमिन्बी और रैंड — ‘R’ से शुरू होती हैं)। ऐसी टोकरी, अस्थिरता को कम कर सकती है (एक मुद्रा की गिरावट को दूसरी की वृद्धि संतुलित कर सकती है) और प्रतीकात्मक रूप से प्रत्येक सदस्य को इसमें भागीदारी का अनुभव देती है।

वर्षों की उथल-पुथल के बाद, ब्रिक्स अब एक चौराहे पर खड़ा है। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के दौरान आर्थिक दबाव, भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और वित्तीय प्रतिक्रिया के संगम ने इस समूह की आंतरिक एकता को निस्संदेह कमजोर किया है। फिर भी, चीन और भारत की अर्थव्यवस्थाएँ (हालिया मंदी के बावजूद) वैश्विक विकास के इंजन बनी हुई हैं; संसाधनों से भरपूर रूस और मध्य पूर्व के नए सदस्य ऊर्जा सुरक्षा की कुंजी रखते हैं; और ब्राज़ील व अन्य देश खाद्य आपूर्ति और जलवायु समाधान के लिए अपरिहार्य हैं। इन आपसी निर्भरताओं के कारण ब्रिक्स का विचार – एक गैर-पश्चिमी शक्तियों के गठबंधन के रूप में – अब भी आकर्षक बना हुआ है। आने वाले वर्ष यह तय करेंगे कि यह समूह एक प्रतिक्रियात्मक गठबंधन से आगे बढ़कर वैश्विक मानदंडों को आकार देने वाली एक सक्रिय शक्ति में बदल सकता है या नहीं।

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