राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में कर्नाटक के प्रमुख साप्ताहिक अखबार विक्रम ने ‘संघ शतपथ’ शीर्षक के साथ एक विशेष अंक निकाला है। इस अंक में पत्रिका के संपादक रमेश डोडापुरा ने आरएसएस के सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले जी का साक्षात्कार लिया। संघ, समाज और मंदिरों के कल्याण को लेकर सवाल किए गए। प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश…
सवाल: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शाखा इसकी अनूठी परंपराओं में से एक है। शाखा का संचालन सभी के लिए खुला है, लेकिन आरएसएस की तरह शाखा का संचालन आज तक कोई नहीं कर पाया है। इस सफलता के पीछे का रहस्य क्या है?
दत्तात्रेय होसबाले: मानव निर्माण के लिए एक सदी से भी पहले इस प्रणाली को तैयार किया गया था। किसी कस्बे या गांव में शाखा का होना संघ की उपस्थिति का होना है। संघ संस्थापक पूजनीय डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार स्वतंत्रता आंदोलन समेत अन्य गतिविधियों में शामिल हुए और अपार अनुभव प्राप्त किया था। उस अनुभव से शाखा की अवधारणा और कार्यप्रणाली उभरी। डॉ. हेडगेवार ने इस प्रणाली के बारे में गहराई से सोचा होगा। जैसा कि आपने कहा, शाखा पूरी तरह से खुली, सार्वजनिक स्थानों पर आयोजित की जाने वाली दैनिक एक घंटे की गतिविधि है। यह बेहद सरल है और इसमें कोई रहस्य नहीं है। हालाँकि, यह सरल होते हुए भी आसान नहीं है। शाखा का प्रारूप सीधा है, लेकिन इसमें वर्षों तक दैनिक भागीदारी की आवश्यकता होती है, जिससे इसे बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। यह तत्काल परिणामों की अपेक्षा किए बिना एक निश्चित मानसिकता, अनुशासन, समर्पण और दृढ़ता की मांग करता है। कुछ लोगों ने शाखा की नकल करने का प्रयास किया है, लेकिन इसे बनाए रखने के लिए निस्वार्थता, दृढ़ता और त्याग की भावना की आवश्यकता है संघ का एक लोकप्रिय गीत है, जिसमें कहा गया है, “शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है”। संघ के 100 साल के इतिहास ने साबित कर दिया है कि यह सामाजिक संगठन और परिवर्तन के लिए सबसे प्रभावी मॉडल है।
सवाल: संघ की एक और विशिष्ट विशेषता प्रचारक प्रणाली है। जब डॉ. हेडगेवार जी ने इसकी अवधारणा की थी, तो क्या भारतीय परंपरा में इसके लिए कोई मिसाल या मॉडल था?
दत्तात्रेय होसबाले: संघ में प्रचारक प्रणाली की उत्पत्ति के बारे में कई व्याख्याएँ हैं। हालाँकि, डॉ. हेडगेवार ने इस विचार को कहाँ से प्राप्त किया, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। सत्य तो ये है कि हमारे समाज ने लंबे समय से साधुओं और संतों की परंपरा को कायम रखा है जो व्यक्तिगत आकांक्षाओं को अलग रखते हुए राष्ट्र, धर्म और आध्यात्मिक खोज के लिए अपना जीवन समर्पित करते हैं। हजारों सालों से हमारे पास ऐसे ऋषि और संत हैं जिन्होंने निस्वार्थ भाव से उच्च उद्देश्य के लिए काम किया है। इसी प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक युवकों ने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को त्यागकर स्वयं को पूर्णतः आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया।
डॉ. हेडगेवार स्वयं भी ऐसे ही वातावरण से निकले थे। समर्थ रामदास ने महाराष्ट्र में ‘महंत’ की अवधारणा प्रस्तुत की, जो प्रचारक के जीवन से काफी मिलती-जुलती है। यद्यपि डॉ. हेडगेवार ने इस अवधारणा को अपनाने का स्पष्ट उल्लेख कभी नहीं किया, लेकिन यह देखते हुए कि उन्होंने महाराष्ट्र में ही आरएसएस की शुरुआत की थी, यह संभव है कि वे ऐसे विचारों से प्रभावित रहे हों। डॉक्टर जी ने स्वयं समाज के लिए स्वयं को समर्पित करने का उदाहरण प्रस्तुत किया। इस दृष्टि से देखें तो डॉक्टर जी संघ के प्रथम प्रचारक हैं। उनका दृष्टिकोण था कि भारत में कहीं भी शाखा स्थापित की जा सकती है और देश के किसी भी कोने से प्रचारक निकल सकते हैं। भारत के विविध सांस्कृतिक और भाषाई परिदृश्य की गतिशीलता को समझने और इन दोनों विचारों को सामने लाने की क्षमता उनकी विशेषता थी। ऐसी दूरदर्शिता और रणनीतिक दृष्टि किसी सामान्य व्यक्ति या मात्र बौद्धिक विचारक में नहीं पाई जाती। दुर्भाग्य से, हमारे पास डॉ. हेडगेवार के व्यापक लिखित कार्य या भाषण नहीं हैं जो उनकी विचार प्रक्रिया में गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकें।
विक्रम: डॉ. हेडगेवार के व्यक्तित्व का वर्णन कैसे किया जा सकता है?
दत्तात्रेय होसबाले: वे एक सच्चे दूरदर्शी थे। वे भविष्य को देख सकते थे और आगे क्या होने वाला है, इसका अनुमान लगा सकते थे। उनका व्यक्तित्व आत्म-विनीत था क्योंकि, उन्होंने कभी व्यक्तिगत मान्यता या प्रसिद्धि की तलाश नहीं की। चूंकि वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे, इसलिए उन्हें अपने काम को दस्तावेज करने का कभी अभ्यास नहीं था। एक बार, जब एक लेखक ने उनसे कहा कि वह उनके जीवन के बारे में लिखना चाहता है, तो डॉ. हेडगेवार ने दृढ़ता से मना कर दिया।
उनके लिए, संगठन ही सब कुछ था, और उनका सारा योगदान संघ के मिशन को समर्पित था। उन्होंने कभी अपने या अपनी उपलब्धियों के बारे में बात नहीं की। 1989 में उनके जन्म शताब्दी समारोह के दौरान ही देश के कई लोगों ने पहली बार उनकी तस्वीर देखी थी। तब तक लोग संघ के बारे में तो जानते थे, लेकिन इसके संस्थापक के बारे में कुछ नहीं जानते थे।
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