राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी की पृष्ठभूमि में बेंगलूरु में आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की क्या विशेषता रही? क्या यह नियमित रूप से आयोजित होने वाली सभाओं से अलग थी?
इस प्रतिनिधि सभा का विशेष महत्व इसलिए था, क्योंकि यह संगठन के शताब्दी वर्ष में आयोजित हुई। सौ वर्ष निरंतर चल रहे कार्य के इस पड़ाव पर स्वयंसेवकों के लिए यह एक आत्मीय और प्रेरणादायक अनुभव रहा। यही भावना सभा में भी परिलक्षित हुई। पिछले तीन वर्ष में संगठन के विस्तार हेतु अनेक प्रयास हुए। उदाहरणस्वरूप, लगभग 2,482 कार्यकर्ताओं ने दो वर्ष समय पूर्णकालिक रूप से संगठन को समर्पित किया। ये ‘शताब्दी विस्तारक’ के रूप में कार्यरत रहे। इस प्रयास का प्रभाव यह रहा कि शाखाओं की संख्या 83,000 से अधिक हो गई। 32,000 से अधिक मिलन हुए और कुल मिलाकर लगभग 1.15 लाख शाखा-मिलन गतिविधियां विभिन्न स्थानों पर हुईं। ये आंकड़े बताते हैं कि कार्य का विस्तार अभूतपूर्व रहा।
इन प्रयासों के साथ-साथ समाज में संगठन के प्रति जो अनुकूलता देखी गई, उसके बारे में क्बा कहेंगे?
पिछले कुछ वर्षों में समाज के भीतर संगठन के प्रति उत्साह बढ़ा है। पहले जहां स्वयंसेवक अपने सीमित क्षेत्र में कार्यरत रहते थे, वहीं अब समाज के विभिन्न क्षेत्रों से सकारात्मक संपर्क स्थापित करने का एक व्यवस्थित प्रयास हुआ है। हमने उन लोगों से संपर्क साधा जो समाज के लिए सकारात्मक कार्य कर रहे हैं—संस्थाएं, व्यक्तिगत रूप से सक्रिय लोग—और उन्हें संगठन से जोड़ने की दिशा में काम किया। यह ‘आउटरीच’ का प्रयास था। इसके परिणामस्वरूप समाज में समर्थन बढ़ा है। अनेक सज्जन संगठन से जुड़ना चाहते हैं। यह संगठन के लिए एक अवसर भी है और चुनौती भी कि कैसे इन सभी को कार्य में सहभागी बनाया जाए, उनकी क्षमता के अनुसार उन्हें उचित भूमिका दी जाए।
शताब्दी वर्ष में लोगों को उत्सव की अपेक्षा थी, लेकिन संगठन ने उसे संकल्प में परिवर्तित किया। इसका कारण?
संगठन की परंपरा उत्सव मनाने की नहीं रही है। यह समाज को संगठित करने के उद्देश्य से कार्यरत है। सौ वर्ष का पड़ाव अवश्य महत्वपूर्ण है, परंतु हमारा दृष्टिकोण है कि इसे संकल्प के रूप में देखा जाए, न कि केवल उत्सव के रूप में।
तीन वर्ष तक कार्य विस्तार, गुणात्मक सुधार और समाज तक पहुंचने के प्रयास इसी भावना के तहत हुए। इस प्रतिनिधि सभा में यह संकल्प लिया गया कि हिन्दू समाज का कोई भी भाग संगठन के संपर्क से वंचित न रहे। डॉ. हेडगेवार जी ने जो कार्य आरंभ किया था, अब उसके विस्तार की जिम्मेदारी हम सभी पर है। शाखाओं के इस तंत्र के माध्यम से हम अब समाज के प्रत्येक वर्ग तक पहुंच सकते हैं।
प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों के संदर्भ में भी पारित हुआ। आप इसे वैश्विक चिंता का विषय क्यों मानते हैं?
यह केवल बांग्लादेश का आंतरिक मामला नहीं है, बल्कि यह मानवाधिकार, लोकतंत्र और विश्व शांति से जुड़ा मुद्दा है। वहां महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार, घरों में लूटपाट—यह सब संस्थागत और योजनाबद्ध ढंग से हुआ। शासन की भूमिका भी संदिग्ध रही—या तो उदासीन या प्रत्यक्ष सहयोगी। ऐसी घटनाएं यदि समय रहते नहीं रोकी जातीं, तो वे केवल स्थानीय नहीं रहतीं, उनका प्रभाव वैश्विक होता है। इस्लामिक कट्टरवाद आज वैश्विक समस्या बन चुका है। इसलिए यह विषय भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
हिंदुओं से जुड़े मामलों में अक्सर सिविल सोसाइटी और मानवाधिकार संगठनों की चुप्पी देखने को मिलती है। क्या आपको ऐसा लगता है?
बिल्कुल। यह एक प्रकार की हिपोक्रेसी (दोहरा मापदंड) है। जो लोग मानवाधिकार और सिविल सोसाइटी की बातें करते हैं, वे ऐसी घटनाओं पर मौन रहते हैं। यह प्रवृत्ति अपने देश में भी रही है और दुनिया के अन्य देशों में भी देखी गई है।
अब समय आ गया है कि सभ्य समाज इस दोहरे मापदंड का प्रतिकार करे और सच्चाई को स्पष्ट रूप से सामने लाए।
इस वर्ष प्रतिनिधि सभा में महारानी अबक्का और गत वर्ष लोकमाता अहिल्याबाई होलकर जैसी वीरांगनाओं को प्रमुखता दी गई। क्या यह किसी विशेष योजना का भाग है?
संगठन सदैव मानता रहा है कि देश के इतिहास में हर क्षेत्र, हर वर्ग और महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता और स्वतंत्रता के बाद भी इतिहास के अनेक प्रेरक प्रसंग उपेक्षित रह गए। संगठन ने हमेशा ऐसे वीरों और वीरांगनाओं की गाथा को सामने लाने का प्रयास किया है। रानी अबक्का जैसे उदाहरण प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने 16वीं शताब्दी में विदेशी आक्रमणकारियों का डटकर मुकाबला किया। यह हमारी सांस्कृतिक पूंजी है, जिसे हमें उजागर करना ही चाहिए।
आप प्रचार विभाग के प्रमुख हैं। पहले संगठन को लेकर मीडिया में उदासीनता थी, अब अति सक्रियता दिखती है। क्या मीडिया अब सकारात्मक रूप से संगठन के कार्यों को प्रस्तुत कर रहा है?
हर मीडिया को एक ही चश्मे से देखना उचित नहीं है। मीडिया में भी सभी प्रकार के लोग होते हैं। अब कई पत्रकार संगठन के कार्यों को नजदीक से देखने, समझने और प्रस्तुत करने लगे हैं।
वे संगठन की कार्यपद्धति, दृष्टिकोण और शब्दावली को जानने का प्रयास कर रहे हैं। यह सकारात्मक संकेत है। डिजिटल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने यह सुनिश्चित किया है कि संगठन के विचार समाज के विविध वर्गों तक पहुंचें। इसलिए हमें संवाद बनाकर रखना चाहिए और सकारात्मक प्रयासों को समाज के सामने लाना चाहिए।
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