मोहिते बाड़े में लगने वाले संघ का 1927 के प्रारंभ में स्वरूप विस्तृत होने लगा। अब उसमें आयु के अनुसार शिशु, बाल, तरुण तथा प्रौढ़ स्वयंसेवकों के अलग-अलग पथक बनाकर उन्हें ‘लव’, ‘चिलया’, ‘कुश’, ‘ध्रुव’, ‘प्रहलाद’, ‘अभिमन्यु’, ‘भीम’ तथा ‘भीष्म’ नाम दिए गए। अब संघ स्थान के कार्यक्रमों का निश्चित स्वरूप आ गया था। 70-80 तरुणों के एक साथ लाठी के कार्यक्रम से वातावरण इतना उत्साहपूर्ण दिखाई देता था कि खड़े हुए व्यक्ति के हृदय में वीरभाव का संचार हुए बिना नहीं रहता। डॉक्टर जी के यहां आने वाले स्वयंसेवकों से उनका कमरा सदैव भरा रहता था। उन दिनों नए-नए मित्रों को डॉक्टर जी के यहां लाकर उन्हें संघ में भर्ती कराने की बाल और तरुणों के बीच एक प्रतिस्पर्धा-सी लगी रहती थी। डॉक्टर जी के यहां बैठक में हिंदू-संगठन की आवश्यकता, भगवा ध्वज का महत्व, स्वतंत्रता, अन्य समाजों के आक्रमण और उनकी कारण-मीमांसा, दैनिक एकत्र होने तथा कार्यक्रमों का महत्व, अनुशासन आदि अनेक विषयों की चर्चा होती थी।

हिंदू-मुसलमानों के वास्तविक संबंध संपूर्ण देश में स्पष्ट होने लगे थे। मोपला-विद्रोह से शिक्षा लेकर जिन स्वामी श्रद्धानंद ने हिंदू-संगठन का मंत्र जन-जन में फूंका, 23 दिसंबर,1926 को उनकी अमानुषिक हत्या कर दी गई। पर मुसलमानों ने हत्यारे अब्दुल रशीद को ‘गाजी’ कहना शुरू कर दिया। हिंदुस्थान में मुसलमानों के स्थान-स्थान पर आक्रमण होने पर हिंदू-मुस्लिम एकता का राग अलापने वाले नेता बड़े चक्कर में पड़ गए।
उस समय यदि कोई बोलने के प्रवाह में ‘फलां स्थान पर हिंदू-मुसलमान का दंगा हुआ’ जैसा वाक्य प्रयोग करता तो डॉक्टर जी उसे तुरंत रोककर कहते, ‘मुसलमानों का दंगा’, यह उपयोग में लाओ। उनका कहना था कि आज तो केवल मुसलमान हिंदुओं को मार रहे हैं। यह साफ-साफ दिखते हुए भी इसे ‘हिंदू-मुसलमान दंगा’ कैसे कहा जा सकेगा?
पिछले तीन-चार वर्ष की घटनाओं से नागपुर का वातावरण भी इस प्रकार दूषित हो गया था। 1924 से नागपुर में मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार होने के कारण उनका पारा और भी चढ़ गया था। अत: उन्होंने हिंदुओं को नाना प्रकार से सताने का प्रयत्न शुरू कर दिया। अकेला-दुकेला हिंदू मिल गया तो उसे पकड़कर पीटते थे तथा हिंदू मोहल्लों से लड़कियों को भगाकर ले जाते थे। इस प्रकार की घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती गईं। डॉक्टर हेडगेवार, गोविंदराव चोलकर, रामचंद्र कोष्टी, भाऊजी कावरे, अण्णा सोहोनी, बालाजी, सुखदेव तथा कृष्णाजी जोशी, सातों ऊंचे-पूरे भीमकाय सप्तर्षि हाथ में डंडा लेकर मुसि्लम मोहल्लों में घूमने लगे। एकाध बार तो केवल उनके जाने मात्र से भालदारपुरा के मुसलमानों ने भगाई हुई एक हिंदू लड़की को वापस कर दिया। स्वयंसेवक भी गुट बनाकर इधर-उधर घूमते तथा जहां भी गुंडई देखते, वहां जैसे-को-तैसा व्यवहार करते। डॉक्टर जी के घर पर तो कई दिनों तक पथराव होता रहा तथा कभी-कभी जलते हुए पलीते भी उनके घर के छप्पर पर पड़ने लगे। स्वाभाविक ही स्वयंसेवकों ने डंडे तथा सीटी लेकर डॉक्टर जी के घर के चारों ओर पहरा लगाना शुरू कर दिया।
नागपुर में वातावरण गरम होते हुए भी डॉक्टर जी ने कुछ तरुणों का गर्मियों में एक प्रशिक्षण-वर्ग लगाया। वे उन्हें इस योग्य बना देना चाहते थे कि वे कहीं भी जाकर स्वत: के बल पर संघ का कार्य कर सकें। साथ ही इस प्रशिक्षण का यह भी उद्देश्य था कि उसमें भाग लेने वाले लोग शाखाओं में योग्य अधिकारी के नाते काम कर सकें। इस वर्ग के लिए ‘अधिकारी शिक्षण वर्ग’ (आफिसर्स ट्रेनिंग कैंप) नाम अनेक वर्षों तक रूढ़ रहा। इस वर्ग के कार्यक्रम मोहिते बाड़े के मैदान पर प्रात: पांच बजे से नौ बजे तक चलते थे। वर्ग को सफल बनाने में श्री अण्णा सोहोनी तथा श्री मार्तण्डराव जोग ने बहुत अधिक परिश्रम किया। प्रथम वर्ग में केवल 17 चुने हुए स्वयंसेवकों को प्रवेश दिया गया था। संघ स्थान पर तहखाने में दोपहर साढ़े बारह बजे से सायं पांच बजे तक बातचीत, चर्चा, टिप्पणियां आदि विविध कार्यक्रम होते थे। इन कार्यक्रमों में डॉक्टर जी स्वयं उपस्थित रहकर स्वयंसेवकों के सम्मुख अनेक विषयों की चर्चा करते थे। सप्ताह में तीन दिन बौद्धिक वर्ग होते थे। इसके लिए सभी डॉक्टर जी के घर एकत्र होते थे। तैरना भी वर्ग के कार्यक्रमों में सम्मिलित था तथा उसके लिए डॉक्टर जी चिटणीसपुरा के एक कुएं पर प्रशिक्षार्थियों को ले जाते थे। पहले कुछ वर्ष वर्गों में यह शिक्षणक्रम चलता था।
वर्ग के दिनों में ही डॉक्टर जी के घर पर पथराव का परिमाण अधिक बढ़ गया तथा बीच-बीच में डॉक्टर जी तथा कई अन्य हिंदू नेताओं के पास गुमनाम पत्र आने लगे, जिनमें धमकी दी गयी थी, ‘सावधान रहिए, हम लोग आपका खून करने वाले हैं।’ डॉक्टर जी इन पत्रों को पढ़कर खूब हंसते और पास में बैठे हुए स्वयंसेवकों से कहते, ‘यदि इनमें इतनी हिम्मत होती, तो ये बोलते नहीं किंतु कर दिखाते।’ उनके मित्र उनसे आग्रह के साथ कहते, ‘आजकल आप अपने साथ जरा हट्टे-कट्टे रक्षक लेकर ही रात-बिरात घूमने जाइए।’ डॉक्टर जी को स्पष्ट दिखने लगा था कि आगे परिस्थति कैसी होने वाली है।
जून-जुलाई से ही हिंदू बस्तियों में मुसलमानों की टोलियां कुछ देखभाल करती हुई नजर आती थीं तथा मस्जिद में बार-बार होने वाली बैठकों के समाचार भी आगे आने वाले संकट की सूचना दे रहे थे। उस समय महाराष्ट्र में सर्वत्र ब्राह्मण-अब्राह्मण के बीच बड़ी कटुता निर्मित हो गई थी। इससे मुसलमानों को आशा थी कि इस कटुता का लाभ लेकर हिंदू संगठन की तैयारी करने वाले तथा मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करने वाले सफेदपोश लोगों को अच्छा सबक सिखाया जा सकेगा, क्योंकि कम से कम उस समय तो अब्राह्मणवादी और मुसलमान दोनों ही सफेदपोश वर्ग के विरोध में खड़े थे। यद्यपि नागपुर में भी इन विचारों की छूत पहुंच चुकी थी, फिर भी उनकी तीव्रता को शांत करने वाली एक शक्ति भी यहां उदित हो चुकी थी।
नागपुर के भोंसले घराने में श्रीमंत रघुजीराव तथा उनके छोटे भाई श्रीमंत राजा लक्ष्मणराव भोंसले दोनों ही मन एवं कृति से वादातीत भूमिका लेकर संपूर्ण हिंदू समाज के प्रति एकत्व और ममत्व की भावना से दिन-प्रतिदिन का व्यवहार करते थे। उसी प्रकार डॉ. मुंजे तथा डॉ. हेडगेवार आदि ने अपने प्रयत्नों से समाज के सभी वर्गों के व्यक्तियों एवं नेताओं को अपने प्रेम की परिधि में समाविष्ट कर रखा था, किंतु लगता है कि मुसलमानों को इसकी कल्पना ठीक प्रकार से नहीं थी। वे तो यह स्पष्ट देख रहे थे कि यदि हमने सफेदपोश वर्ग पर आघात किया, तो कोष्टीपुरा के लोग आनन्दातिरेक से नाच उठेंगे तथा मौका पड़ने पर हमारी सहायता भी करेंगे। किंतु समय रहते उनके षड्यंत्र का सुराग मिल चुका था। ईद के दिन डॉ. मुंजे को पत्र आया, जिसमें लिखा था, ‘तुम्हारा खून करने वाले हैं।’ उस दिन डॉक्टर जी तथा कुछ स्वयंसेवक रक्षा करने की दृष्टि से डॉ. मुंजे के घर पर ही रात्रि को सोये। रात के समय मुसलमान गुंडों की एक टोली उनके घर के पास से निकली। स्वयंसेवकों ने उनकी खूब खबर ली। इस घटना से वातावरण और भी तंग हो गया। मुसलमान मोहल्लों में रात्रि को लाठी के शिक्षा-वर्ग भी चलने लगे।
स्टेशन पर तथा अन्यत्र स्वयंसेवकों का घूमना-फिरना अधिक सतर्कता से प्रारंभ हो गया। इन दिनों स्वयंसेवक तथा नागपुर के विभिन्न भागों के कार्यकर्ता डॉक्टर जी के पास मिलने आते तथा उन्हें ज्ञात समाचार बता जाते। उन दिनों अण्णा सोहोनी में तो विशेष जोश दिखता था। उन्होंने लाठी के साथ-साथ कुछ लोगों को धनुर्विद्या की भी शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया था।
संघ के प्रारंभ में तथा 1927 के संघर्ष के पूर्व डॉक्टर जी ने बैठकों तथा सभाओं में अनेक बार यह बताया था कि ‘मैं अकेला हूं’ की भावना कितनी आत्मघाती तथा हास्यास्पद है। उन दिनों लोग इधर-उधर बोलते रहते थे, ‘हिंदू तो मृत्यु मार्ग का अनुसरण करने वाली जाति है, संस्कृत मृत भाषा है। आज की परिस्थिति में इस समाज का सिर उठाना असंभव है। अत: भाग्य में जो लिखा होगा वही होगा’ आदि आदि। इन बातों को सुनकर डॉक्टर जी अत्यंत व्यग्र हो जाते थे, किंतु उन्होंने कभी लोगों की हां में हां नहीं मिलायी। उनका मत कहता था कि हिंदू के मन की यह धारणा कि ‘मैं अकेला हूं’ उसकी भीरुता का कारण है। यदि सामूहिक जीवन के व्यवहार से इस भाव को दूर कर दिया तो हिंदू समाज का खरा पुरुषार्थी एवं पराक्रमी स्वरूप अपने आप विश्व के सम्मुख प्रकट होने लगेगा।
वे विश्वासपूर्वक प्रतिपादन करते थे कि यह भीरुता और पलायन-चापल्य नष्ट करना है तो सबको प्रतिदिन एकत्र आकर ‘मैं अकेला नहीं, अपितु हम अनेक हैं’ का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करना चाहिए। हिंदुओं के टूटे धैर्य तथा अवसान को पुन: जाग्रत करने की दिशा में ही उनके संपूर्ण उद्योग केंद्रित थे। ‘अब पराभव नहीं, पराक्रम’ यही छाप अपनी बोलचाल से वे अपने संपर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के मन पर डालते थे।
डॉक्टर जी जहां एक ओर अपने समाज को जाग्रत एवं सुसज्ज करने का प्रयत्न कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर मुसलमानों द्वारा हिंदू मोहल्लों में आक्रमण का व्यूह किस प्रकार रचा जा रहा है, इसकी भी खोज-खबर रखते थे। इसी कारण गणेशोत्सव में महालक्ष्मी तथा गौरी के प्रसाद के दिन महाल क्षेत्र में दंगा करने की मुसलमानों की योजना का उन्हें पहले ही पता लग गया था। अत: झगड़े के सम्भाव्य क्षेत्र में स्थान-स्थान पर उन्होंने लाठियां इकट्ठी करके रखवा दीं। साथ ही असुरक्षित दिखने वाले क्षेत्रों में डॉक्टर जी ने स्वयं जाकर लोगों को सचेत रहने की सूचना दी।
अगस्त मास के अंत में मुसलमान मोहल्लों में 4 सितंबर को निकलने वाले एक जुलूस के हस्तपत्रक बांटे गए। यह जुलूस किसी पुण्यतिथि का बहाना लेकर निकाला जाने वाला था। हस्तपत्रक के ऊपर ‘फातेहा रब्बानी’ (पुण्यतिथि), यह शीर्षक दिया था। उस हस्तपत्रक में लिखा हुआ था, ‘‘मुसलमान भाइयों को इत्तिला दी जाती है कि तीन साल पहले सय्यद मीर साहब की मृत्यु हुई। उनकी पुण्यतिथि के निमित्त 4 जून, 1927 को दिन के दो बजे एक जुलूस हंसापुरी कब्रिस्तान की ओर जाने के लिए नवाब मोहल्ले से महाल, वाकर रोड तथा गांजा खेत के रास्ते से जाएगा। अत: सभी इस्लामी बंधुओं से प्रार्थना है कि उपर्युक्त तारीख को जुलूस निकलने के पहले ही बारह बजे नवाबपुरा की मस्जिद में इकट्ठा होकर जुलूस में शामिल हों। इससे जुलूस में जोश और गर्मी आएगी तथा आप सब सवाब के हकदार होंगे।’’ नीचे किसी हुसैन शरीफ के हस्ताक्षर थे।
इस यात्रा के लिए महालक्ष्मी के दिन दोपहर दो बजे का समय निश्चित करने के पीछे मुसलमानों की चाल थी। नागपुर-बरार भाग में महालक्ष्मी का उत्सव बड़े वैभव तथा साज-बाज के साथ मनाया जाता है। उस दिन बड़ी सजावट की जाती है। लोग दोनों देवी-प्रतिमाओं का रेशमी तथा जरी के कीमती वस्त्रों से शृंगार करते हैं तथा घर के हीरे, मोती, सोने आदि मूल्यवान गहनों से उन्हें अलंकृत कर घर-घर पूजा की जाती है। नैवेद्य के लिए नाना प्रकार की चीजें पकायी जाती हैं। दोपहर दो बजे से सायंकाल तक देवी आरोगती हैं। मुसलमानों के नेताओं ने यह योजना बनायी थी कि दोपहर को भोजन की दौड़धूप में यदि हिंदू मोहल्लों पर हमला बोल दिया तो भगदड़ मच जाएगी तथा उस स्थिति का लाभ उठाते हुए महालक्ष्मी की प्रतिमाओं को तोड़-फोड़कर उनके अलंकार लूटने का अक्षरश: स्वर्ण-अवसर हाथ लग जाएगा। इसी प्रकार के मनमोदक खाते हुए दिन के बारह बजे नवाबपुरा की मस्जिद के पास नागपुर तथा आसपास के गांवों से मुसलमानों का इकट्ठा होना शुरू हो गया।
उस समय डॉक्टर जी नागपुर में नहीं थे। वे प्रतिवर्ष के अनुसार गणेशोत्सव में भाषण देने के लिए चांदा, वर्धा आदि स्थानों के दौरे पर गए थे, किंतु जाने से पहले उन्होंने मुसलमानों की तैयारी तो हेर ली थी, किंतु हिंदुओं की सजगता का पता नहीं चलने दिया था। डॉक्टर जी की सूचना के अनुसार श्री अण्णा सोहोनी के नेतृत्व में स्वयंसेवक मोहिते बाड़े की टूटी दीवार की आड़ में बारह बजे दोपहर से ही इकट्ठा होने लगे। अण्णा जी ने उनको ठीक प्रकार से बांट दिया तथा डॉक्टर मुंजे के घर से महाल तक सभी गली-कूचों में उन्हें सावधानी के साथ छिपकर बैठने की सूचना दी। कुल सोलह टुकड़ियां बनायी गयी थीं। सब मिलाकर सौ-सवा सौ तरुण होंगे। जैसा कि निश्चित हुआ था रविवार, दिनांक 4 सितंबर को दोपहर के दो बजे मुसलमानों का जुलूस निकला।
‘अल्ला हू अकबर’ तथा ‘दीन दीन’ के नारे गला फाड़-फाड़कर लगाए जा रहे थे। जुलूस में सहस्रावधि मुसलमान लाठी, तलवार, भाला, छुरिका आदि शस्त्रास्त्र से सज्ज अत्यंत उन्मत्त जैसा बर्ताव करते हुए जा रहे थे। फिर भी पुलिस ने उनकी ओर अंगुली भी नहीं उठायी। वह अत्यंत डरावना दृश्य था। कालीकर गली, वाइकर गली, केलीबाग, सिटी हाईस्कूल का प्रवेशद्वार, डॉ. हरदास का अस्पताल आदि सभी क्षेत्रों में घरों में बैठे हुए हिंदू डर रहे थे। परंतु दूसरी ओर इन्हीं गलियों में छिपे स्वयंसेवक भी निर्भयता से जुलूस की बाट देख रहे थे। थोड़ी ही देर में सड़क से जाने वाला जुलूस वाइकर गली में गाली-गलौज तथा मार-पीट करता हुआ घुस पड़ा; किंतु गली में एक ओर चुपके से खड़े हुए स्वयंसेवकों ने उस संकरी गली में घुसे हुए गुंडों के ऊपर अपने प्रहार के हाथ दिखाने शुरू कर दिए। गुंडे उल्टे पांव भागने लगे। यह वार्ता बिजली की तरह सारे क्षेत्र में घर-घर में फैल गई।
अंत में अंधेरे का आश्रय लेकर भालदारपुरा की ओर भागने के सिवाय मुसलमानों के सम्मुख और कोई चारा नहीं बचा। रविवार रात्रि को सारे शहर में झड़पें (टक्कर) होती रहीं; किंतु उनमें हिंदुओं का ही पलड़ा भारी था। रात-भर लोगों ने स्वयंप्रेरणा से अपने-अपने क्षेत्र में पहरा लगाया। इसके बाद तीन दिन सोमवार, मंगलवार तथा बुधवार मारधाड़ में ही बीते। सोमवार को मुसलमानों ने हिंदुओं की एक अर्थी पर हमला किया। इस घटना से हिंदू एकदम क्षुब्ध हो गए तथा उन्होंने मुसलमानों के कुछ घरों तथा एक मस्जिद को आग लगा दी। सोमवार सायंकाल सेना बुला ली गई। गोरे सिपाही चारों ओर गश्त लगाने लगे। तीन-चार दिन तक हिंदुओं ने जो एकता और जागरूकता दिखायी उसके कारण मुसलमानों के पैर उखड़ गए तथा वे सेना की छत्रछाया में अपने बाल-बच्चों को गोंड राजा के किले में ले गए। इस संघर्ष में नागपुर के जीवन पर हिंदुओं का सिक्का जम गया।
नागपुर में दंगे का समाचार डॉक्टर जी को चांदा में मिला। वे तुरंत नागपुर के लिए चल दिए। श्री बालकृष्ण वाघ भी उनके साथ थे। डॉक्टर जी रास्ते में वर्धा कुछ देर के लिए ठहरे। वहां उन्हें नागपुर से आया एक पत्र मिला। उसमें लिखा था, ‘‘सरकार तथा मुसलमान दोनों ही डॉक्टर जी के आने की बाट देख रहे हैं। अत: उन्हें वर्धा में ही ठहर जाना चाहिए।’’ श्री आप्पा जी जोशी ने भी नागपुर की गंभीर स्थिति देखकर उनको न जाने की सलाह दी। उन्होंने बहुत कुछ आग्रह किया; परंतु डॉक्टर जी ने एक नहीं सुनी। दंगे के तीसरे दिन दोपहर को वे नागपुर पहुंच गए। स्टेशन पर सन्नाटा छाया हुआ था।
पुलिस के एक सिपाही ने डॉक्टर जी को बताया कि शहर जाने में खतरा है। पर डॉक्टर जी उसकी तरफ मुस्कराकर पैदल ही घर की ओर चल पड़े। जब वे घर पहुंचे तो उन्हें घर के ऊपर फूटी खपरैल तथा आंगन में खपड़ों का ढेर दिखायी दिया। उससे उन्होंने अंदाज लगा लिया कि उनके पीछे घर पर भारी ढेलेबाजी हुई है। घर में किसी को चोट तो नहीं आई, इसका पता लगाकर वे अस्पताल गए तथा वहां दंगे में घायल लोगों तथा स्वयंसेवकों से प्रेमपूर्वक मिले। उसी प्रकार जो व्यक्ति समाज की रक्षा करने के प्रयत्न में स्वर्गवासी हुए उनके घर जाकर उनके पराक्रम के लिए धन्यता तथा परिवार वालों के साथ संवेदना प्रकट की। कई लोग दंगे के अभियोग में गिरफ्तार किए गए थे। उनके घर जाकर भी डॉक्टर जी ने आश्वासन दिया कि आप चिंता न कीजिए, उनकी मुक्ति के लिए सब प्रकार से प्रयत्न किए जाएंगे।
डॉ. मुंजे तथा राजा लक्ष्मणराव भोंसले के नेतृत्व में नागपुर हिंदू सभा की ओर से आपदाग्रस्त व्यक्तियों की सहायता के लिए एक समिति नियुक्त की गई। उसमें डॉक्टर जी भी थे। इस समिति ने मुकदमों के लिए सबूत तथा धन इकट्ठा किया। हिंदुओं की ओर से मुकदमों की पैरवी करने के लिए कई वकील भी इसी समिति की ओर से खड़े किए गए।
स्वाभाविक ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा उसके संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार का नाम नागपुर तथा प्रांत के कोने-कोने में पहुंच गया। तरुणों के पैर अब मोहिते संघ स्थान की ओर ही बढ़ने लगे। स्वयंसेवकों की संख्या लगभग 1,000 तक हो गई। इस घटना के बाद डॉक्टर जी का लोगों के मन में एक स्वतंत्र एवं विशेष आदर का स्थान बन गया तथा लोग विवाह, यज्ञोपवीत आदि घर के मंगल कार्यों में भी उन्हें आग्रहपूर्वक निमंत्रित करते। ऐसे अवसरों पर डॉक्टर जी पांच-सात स्वयंसेवकों के साथ जाते थे। विदा करते समय यजमान डॉक्टर जी के गले में पुष्पहार डालकर उनको नारियल तथा रुपए की भेंट बड़ी श्रद्धापूर्वक देता था। उन दिनों अखाड़ों के प्रमुखों का इस पद्धति से सम्मान किया जाता था। साधारण लोग संघ को भी डॉ. हेडगेवार का एक अनुशासनपूर्ण अखाड़ा मानकर उनका इस प्रकार सत्कार करते थे। किंतु डॉक्टर जी के हृदय में यह दृढ़ विश्वास था कि थोड़े ही दिनों में संघ भारत की सीमाओं में चतुर्दिक् व्याप्त होकर वटवृक्ष के समान संपूर्ण समाज को अपनी छाया के तले वैसे ही सुख और सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करने को आश्वस्त कर देगा जैसा कि उसने अपने दो वर्ष के जीवन में ही नागपुर के हिंदू समाज को किया था।
नागपुर का वायुमंडल जैसे ही स्वच्छ होने लगा, उन्होंने धीरे-धीरे स्वयंसेवकों के मन की टोह लेना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने उनके मन पर यह विशुद्ध भाव अंकित करने का प्रयत्न किया कि समाज के घटक होने के कारण यदि हमने उस पर आने वाले आक्रमण को आगे बढ़कर अपने ऊपर झेल लिया तथा रक्षा के लिए आक्रमणकारियों पर प्रत्याघात किया तो हमने कर्तव्य मात्र का ही पालन किया है। मां के द्वारा बालक की चिंता अथवा संतान के द्वारा माता-पिता की सेवा जितनी स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक हमें अपना समाज के प्रति कर्तव्य लगना चाहिए।
उसका वृथाभिमान मन में नहीं उत्पन्न होना चाहिए, बल्कि अपने पराक्रम की शेखी न मारते हुए अथवा स्वयंसेवकों द्वारा सहन किए हुए दु:ख के लिए रोते न बैठते हए हमें अपने समाज की अर्थात् जनता जनार्दन की अल्प-स्वल्प सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, इसका आनंद मानकर कर्तव्य-पालन का संतोष मात्र मन में रखना चाहिए। डॉ. हेडगेवार ने एक ही विचार सदैव रखा और वह था, ‘‘आपस के सारे कृत्रिम, ऊपरी भेद मिटाकर संपूर्ण हिंदू समाज एकत्व और प्रेम की भावना से तथा ‘हिंदू जाति की गंगा के हम सब बिंदु हैं’ इस अनुभव से खड़ा हो गया तो दुनिया में कोई भी शक्ति हिंदू की ओर टेढ़ी नजर से नहीं देख सकेगी।’’
वह शुभ दिन
शक संवत् 1811 की चैत्र सुदी प्रतिपदा को डॉ. हेडगेवार का जन्म हुआ। अंग्रेजी वर्ष में यह 1 अप्रैल, 1889 का दिन है। भोंसलों की राजधानी नागपुर में विजय की गुढ़ी फहराते समय जन्मा यह बालक ही हिंदू राष्ट्र का द्रष्टा और संगठन का स्रष्टा, इस चरित्र का नायक डॉ. केशवराव हेडगेवार था।
वह अशुभ घड़ी
21 जून, 1940 (ज्येष्ठ बदी द्वितीया, शक 1862) को डॉ. साहब का ज्वर 106 डिग्री तक पहुंच गया। श्री बालासाहब घटाटे ने दौड़कर डॉ. हरदास एवं डॉ. ना.भा. खरे को बुलाया, पर उन्होंने सब आशा छोड़ दी और बताया कि अब अंत समय आ पहुंचा है। चारों ओर हाहाकार मच गया।
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