राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुका है। स्थापना के बाद से संघ के लगातार विस्तार, इसकी शक्ति तथा बढ़ते प्रभाव को देखकर लोगों में संघ कार्य को जानने तथा उसे समझने की उत्सुकता बढ़ रही है। संघ को समझना है तो उसके संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार को समझना आवश्यक है। डॉ. हेडगेवार जन्म से ही देशभक्त थे, अंग्रेजों की गुलामी को लेकर उनके मन में तीव्र चिढ़ थी, आक्रोश था, जो उनकी बाल्यावस्था में अनेक रूप में प्रकट होता दिखता है। परंतु उनके मन में यह विचार भी था कि केवल स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रयास करना बीमारी के लक्षण का इलाज करने के समान है। इसलिए पहले इस पर विचार करना होगा कि इतने विशाल, समृद्ध और संपन्न भारतीय समाज के गुलाम बनने की नौबत किस कारण से आई? इसलिए मूल बीमारियों का इलाज करने हेतु समाज में आत्म जागृति, स्वाभिमान, एकता, परस्पर भाईचारा, अनुशासन और राष्ट्रीय चारित्र्य निर्माण के मूलभूत उद्देश्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के सभी प्रयासों में सक्रिय रहते हुए, उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना अक्तूबर 1925 को विजयादशमी के दिन की।
सर्व समावेशी दृष्टि

अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य, रा.स्व. संघ
संपूर्ण भारत की पहचान जिससे है, उस अध्यात्म आधारित एकात्म और सर्वांगीण जीवन दृष्टि (जिसे दुनिया हिंदुत्व अथवा हिंदू जीवन दृष्टि के नाते जानती है) उस हिंदुत्व को जगाकर संपूर्ण समाज को एक सूत्र में जोड़कर निर्दोष और गुणवान हिंदू समाज के संगठन का यह कार्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू हुआ। उस समय के सभी विचारक, मूर्धन्य चिंतक तथा नेतृत्व से परिचय तथा निकट संपर्क होते हुए भी डॉ. हेडगेवार की दृष्टि विशिष्ट, व्यापक तथा सर्व समावेशी और दूरगामी थी। उनकी दृष्टि प्रामाणिक और दूसरे तत्कालीन नेतृत्वकर्ताओं से कहीं आगे थी। उस कालखंड में भारत में अनेक आध्यात्मिक, सामाजिक या अन्य संगठन शुरू हुए और भारत को संवारने में उनका श्रेष्ठ योगदान रहा है।
उसी तरह, हिंदू समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम का एक और संगठन शुरू होना अस्वाभाविक नहीं था। परंतु पहले दिन से यह स्पष्ट था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज के अन्तर्गत एक संगठन या संस्था बनकर नहीं, बल्कि संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन बनकर काम करेगा। एक वरिष्ठ चिंतक ने कहा है कि परिकल्पना की दृष्टि से संघ और हिंदू समाज समव्याप्त है और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संघ और हिंदू समाज एकात्म है। इसलिए डॉ. हेडगेवार ने ‘वादोनाsवलम्ब्या:’ (वाद-विवाद में न पड़ते हुए) और ‘सर्वेषाम् अविरोधेन’ (किसी से विरोध न रखते हुए) संपूर्ण समाज को संगठित करने का संकल्प लिया। वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन राव भागवत ने एक वक्तव्य में कहा था, “उन्होंने भले हमारा विरोध करने का भले ही तय किया हुआ हो, परन्तु हमारा विरोधी कोई नहीं है। उनके संघ विरोध से संघ को नुकसान न हो, यह सावधानी रखते हुए हम उनसे आत्मीयतापूर्वक मिलने जाएंगे।”
आंदोलनों में सहभागिता
व्यक्ति निर्माण तथा समाज संगठन का यह सदा सर्वदा परिस्थिति निरपेक्ष ‘नित्य’ कार्य अविरत चलता रहेगा तथा समय-समय पर परिस्थितिवश समाज में उठने वाले अन्य आह्वान से निपटने के लिए ‘अनित्य’ कार्य में भी स्वयंसेवक अपनी सक्रिय भूमिका निभाएंगे, यह वस्तुपाठ भी हेडगेवार जी ने अपने आचरण से सिखाया। संघ स्थापना से पहले 1921 में महात्मा गांधी के आवाहन पर हुए असहयोग आंदोलन में डॉ. हेडगेवार सहभागी हुए थे। उन्हें एक वर्ष कारावास भी सहना पड़ा था। संघ स्थापना के पश्चात् महात्मा गांधी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत 1930 के सत्याग्रह में (‘अनित्य’ कार्य) स्वयंसेवक के नाते हेडगेवार जी अन्य स्वयंसेवकों के साथ सहभागी हुए थे और 9 महीने कारावास में रहे। परंतु उसी के साथ संघ का ‘नित्य’ कार्य अविरत चलता रहे, इसके लिए उन्होंने सरसंघचालक का दायित्व अपने सहयोगी डॉ. लक्ष्मण वासुदेव परांजपे को सौंपा था। यह ‘नित्यानित्य विवेक’ हेडगेवार जी की विशेषता थी, जो न केवल महत्वपूर्ण थी, बल्कि संघ कार्य की आगे की यात्रा के लिए मार्गदर्शक भी थी।
भगवा ध्वज गुरु
समाज से धन लेकर समाजहित के कार्य करने की परंपरा भारत में पहले भी थी, आज भी है। परंतु संघ कार्य देश कार्य है, मेरा कार्य है और यह समाज से धन लेकर नहीं, स्वयंसेवकों से गुरु दक्षिणा के रूप में प्राप्त समर्पण राशि से ही चलेगा, ऐसा अनोखा विचार हेडगेवार जी ने किया और उसे लागू किया, जो आज भी चल रहा है। श्रेष्ठ आदर्श व्यक्ति को गुरु मानने की परंपरा भारत में सदियों से रही है और आज भी प्रचलित है। परंतु संपूर्ण समाज का संगठन होने के बावजूद संघ में कोई व्यक्ति गुरु नहीं है। हिंदू समाज जितना प्राचीन है, उसका गुरु, हिंदुत्व का प्रतिनिधि और उतना ही प्राचीन कोई प्रतीक हो सकता है, यह सोच कर भगवा ध्वज गुरु के नाते संघ में स्थापित हुआ।
स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता (आयरिश मूल की मार्गरेट नोबेल) ने 1906 में स्वतंत्र भारत के ध्वज का पहला नमूना बनाया था। उसमें भगवा कपड़े पर पीले रंग में वज्र अंकित था।
स्वतंत्र भारत का राष्ट्रध्वज कैसा हो, इस पर विचार के लिए 1931 में कांग्रेस कार्यसमिति ने ध्वज समिति बनाई थी। जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मास्टर तारा सिंह, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, पट्टाभि सीतारमैया (संयोजक), काका कालेलकर और डॉ. हार्डिकर इसके सदस्य थे। सभी ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव रखा कि भारत का ध्वज एक रंग का हो और वह भी भगवा हो। कारण, यह रंग भारत के सभी लोगों को सहज स्वीकार्य है और यह प्राचीन भारत के इतिहास के साथ दीर्घ काल से जुड़ा हुआ है। समिति का प्रस्ताव था कि आयताकार भगवा कपड़े वाले ध्वज पर नीले रंग का चरखा अंकित हो। आर्य समाज और हिंदू महासभा के ध्वज भी भगवा ही थे, जिस पर सूर्य या ओंकार अंकित है। उस समय के प्रस्तावित या प्रचलित सभी ध्वज पर कोई न कोई चिह्न अंकित दिखता है। परंतु 1927 से संघ में प्रचलित गुरु के स्थान पर स्थापित भगवा ध्वज पर कोई चिह्न अंकित नहीं है। कारण, संघ, समाज के अन्तर्गत एक संस्था या संगठन न होकर संपूर्ण समाज का संगठन है, यह मूल संकल्पना है।
ऐसे थे डाॅक्टर जी
1939 में डॉ. हेडगेवार जी कुछ सप्ताह तक बीमारी (निमोनिया) के कारण नासिक में निवास कर रहे थे। तब उनकी सेवा-सुश्रूषा के लिए श्रीगुरुजी को डॉ. हेडगेवार के समीप रहने का अवसर प्राप्त हुआ था। श्रीगुरुजी ने यह अनुभव किया था कि संघ के जन्मदाता का जीवन न केवल पारदर्शी है, अपितु देशभक्ति से इतना ओत-प्रोत है कि गहरी निद्रा में भी डॉक्टर जी के मुंह से जो शब्द निकलते थे, वे राष्ट्र की चिन्ता के ही रहते थे। ऐसे अनोखे व्यक्तित्व के धनी थे डॉ. हेडगेवार जी और इसी कारण वे एक अनोखी कार्यशैली विकसित करने में समर्थ सिद्ध हुए थे।
भारत का संपूर्ण समाज एक
राष्ट्रीय चारित्र्य निर्माण और सामूहिक गुणों की उपासना (साधना) हेतु तथा अपने ध्येय का नित्य स्मरण करने हेतु दैनंदिन एकत्र होने के लिए शाखा नामक कार्यपद्धति संघ में विकसित हुई। दैनंदिन सामान्यतः एक घंटा चलने वाली शाखा में यह भाव जगाया जाता है कि भारत का संपूर्ण समाज एक है, समान है और सभी अपने हैं। साथ ही, उद्यम, साहस, धैर्य, शक्ति, बुद्धि और पराक्रम जैसे गुण विकसित करने के लिए खेल आदि विविध कार्यक्रम शाखा पर होने लगे। अनुशासन, एकता, वीरत्व और सामूहिकता का भाव निर्माण करने हेतु परेड, बैंड के ताल पर पथ संचलन और योग-व्यायाम जैसे कार्यक्रम, जो ब्रिटिश सेना से स्वीकार किए गए, शाखा में होने लगे और आज भी हो रहे हैं। शाखा वास्तव में सामूहिक गुणों की उपासना और व्यक्तिगत गुणों का सामूहिक अभ्यास का एक कार्यक्रम है, साधन है। समाज को अपना मान कर उसके लिए कुछ न कुछ (कभी-कभी सब कुछ) देने का (वापस लौटाने का) संस्कार इसी शाखा से प्राप्त होता है। इस विचार को व्रत के नाते स्वीकार कर जीवन भर उसका पालन करने का संकल्प लेकर जीने वाले सहयोगी कार्यकर्ताओं को देखकर, उनके संपर्क से प्रेरित होकर आनंद के साथ हजारों-लाखों कार्यकर्ताओं के द्वारा यह समर्पण यज्ञ अविरल चल रहा है।
आज संपूर्ण भारत के कुल 924 जिलों में से 98.3 प्रतिशत जिलों में संघ की शाखाएं चल रही हैं। कुल 6,618 खंडों में से 92.3 प्रतिशत खंडों (तालुका), कुल 58,939 मंडलों में से (मंडल माने 10-12 ग्रामों का एक समूह) 52.2 प्रतिशत मंडलों में, 51710 स्थानों पर 83,129 दैनिक शाखाएं तथा अन्य 21936 स्थानों पर 22866 साप्ताहिक मिलन केंद्रों के माध्यम से संघ कार्य का देशव्यापी विस्तार हुआ है, जो लगातार बढ़ रहा है। इन 83129 दैनिक शाखाओं में से 59 प्रतिशत शाखाएं छात्रों की हैं तथा शेष 41 प्रतिशत व्यवसायी स्वयंसेवकों की शाखा में से 11 प्रतिशत शाखाएं प्रौढ़ (40 वर्ष से ऊपर आयु) स्वयंसेवकों की हैं। बाक़ी सभी शाखाएं युवा व्यवसायी स्वयंसेवकों की हैं।
खेल आदि कार्यक्रमों के माध्यम से व्यक्ति निर्माण का जो कार्य संघ शाखा द्वारा चलता है, उसमें केवल पुरुष आते हैं। इसी कार्य हेतु महिलाओं के बीच राष्ट्र सेविका समिति के माध्यम से शाखाएं चल रही हैं।
स्वयंसेवकों द्वारा प्रचार विभाग, संपर्क विभाग तथा सेवा विभाग के माध्यम से जो समाज जागरण के कार्य चल रहे हैं, उन सभी में महिलाओं का सहभाग है। यह सहभाग और बढ़े इसके भी प्रयास किए जा रहे हैं। इसी तरह, समाज परिवर्तन के कार्य में धर्म जागरण समन्वय, ग्राम विकास, कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, गौ संवर्धन, पर्यावरण संरक्षण, घुमंतू कार्य तथा सामाजिक सद्भाव कार्य हेतु जहां-जहां स्वयंसेवक सक्रिय हैं, उनमें साथ मातृशक्ति और समाज की सज्जन शक्ति भी सक्रिय है तथा उनका सक्रिय सहभाग बढ़े, ऐसा संघ का आग्रह तथा प्रयास रहता है। एक राष्ट्रीय विचार को लेकर समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में व्यवस्था परिवर्तन हेतु मजदूर, किसान, छात्र, विद्यालय, धार्मिक संत, राजनीति, कलाकार, अधिवक्ता, लघु उद्यमी, वनवासी बंधु, खेल आदि 35 विविध क्षेत्रों के माध्यम से स्वयंसेवक सामाजिक जीवन में सक्रिय हैं।
इन सभी कार्यों में महिला सहभाग बढ़े, इसके भी प्रयास चल रहे हैं। ये सभी कार्य, जिसमें स्वयंसेवक सक्रिय हैं, स्वतंत्र और स्वायत्त हैं। यह संघ की अवधारणा है और आचरण भी। संघ की 100 वर्ष की यात्रा और लक्षणीय विस्तार आसान नहीं था। प्रथम उपेक्षा, बाद में उपहास, फिर अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए हर स्तर पर हर तरह से इसका विरोध हुआ। कहीं-कहीं तो संघर्ष भी हुए। पर राष्ट्र के पुनर्निर्माण की यात्रा अविरत चलती रही। कार्यकर्ताओं का परिश्रम, त्याग, बलिदान, समाज का सहयोग तथा ईश्वर के आशीर्वाद के बल पर ‘संघ बढ़ता जा रहा है’। आज संघ कार्य में समाज का समर्थन और सहभाग भी बढ़ रहा है। समय-समय पर समान मुद्दों के आधार पर समाज सहयोग भी कर रहा है। इस कारण संघ की शक्ति, प्रभाव के साथ समाज की मानसिकता में परिवर्तन अब दिखने लगा है।
संघ कार्यकर्ताओं का जोर विजयादशमी 2025 तक संघ कार्य की गति बढ़ाकर इसे और अधिक व्यापक बनाने पर रहेगा ताकि अधिकाधिक लोग संघ के सीधे संपर्क में आकर इसे समझ सकें और संघ से जुड़ सकें।
2025 की विजयदशमी के बाद स्वयंसेवक अधिक से अधिक लोगों को उनकी रुचि के अनुसार समाज परिवर्तन के पांच विशिष्ट क्षेत्रों में सहयोगी बनाने के लिए सक्रिय होंगे। ‘पंच परिवर्तन’ के पांच विषय हैं- कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्धन, स्वदेशी जीवन शैली तथा लोक-कर्तव्य बोध। संघ की यशस्वी विकास यात्रा देख कर लोग अचंभित होते हैं, प्रशंसा करते हैं, अभिभूत होते दिखते हैं। इस सारी सफलता का श्रेय संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार के व्यक्तित्व, दर्शन और उनकी अमोघ कार्यपद्धति को जाता है। राजनीतिक सत्ता पर अवलंबित न रह कर समाज आधारित रचनाएं खड़ी करने के आग्रह के कारण समाज का यह परिवर्तन शाश्वत परिणाम में परिवर्तित होता दिखता है। एक संघ गीत है-“ केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस। जाग्रत जनता के केंद्रों से होगा अमर समाज।।” यह सब देखते और करते हुए एक मर्यादा भी ध्यान में आती है कि संपूर्ण समाज को यदि जाग्रत, संस्कारी, गुणवान तथा संगठित करना है तो केवल शाखा का व्याप बढ़ाने से यह पूर्णतः साध्य नहीं होगा। इसके लिए समाज की स्वाभाविक व्यवस्थाएं जैसे परिवार, विद्यालय, महाविद्यालय तथा समाज द्वारा ऐसे संस्कार देने की व्यवस्था करनी होगी।
जब हर जगह, हर स्तर पर ऐसे अनुकरणीय उदाहरण दिखेंगे तो उसे देखकर समाज के सभी लोग (बालक-बालिका, युवक-युवती) इस प्राचीन और विशिष्ट राष्ट्र की वास्तविक अवधारणा को समझेंगे और उसके अनुकूल आचरण और व्यवहार करेंगे, तभी संपूर्ण समाज में परिवर्तनकारी सकारात्मक शक्ति का निर्माण होगा। तभी समृद्ध, सशक्त और सक्रिय भारत अपनी सर्व समावेशी, एकात्म और सर्वांगीण सांस्कृतिक पहचान बना कर एक दीपस्तंभ के समान मानवता को मार्गदर्शन करने की स्थिति में आएगा और अपना वैश्विक दायित्व निभाने के लिए सक्षम, तत्पर होगा। संघ की शाखाओं के माध्यम से तथा स्वयंसेवक अपने आचरण से जो राष्ट्र कार्य कर रहे हैं वह समाज की स्वाभाविक व्यवस्थाओं के माध्यम से होना शुरू होगा। विजयशाली संगठित समाज निर्मित होगा, होते रहेगा और संपूर्ण समाज का कार्य बनकर, संघ कार्य चलता रहेगा।
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