दिल्ली

बिगड़ैल छात्र राजनीति पर अंकुश लगाने का समय

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रौनक खत्री, जो कि कांग्रेस समर्थित छात्र संगठन एन एस यू आई से संबद्ध है, ने श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के शिक्षक–शिक्षिकाओं के साथ अत्यंत अभद्र, अशालीन और अमर्यादित व्यवहार किया।

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प्रो. रसाल सिंह

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रौनक खत्री, जो कि कांग्रेस समर्थित छात्र संगठन एन एस यू आई से संबद्ध है, ने श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के शिक्षक–शिक्षिकाओं के साथ अत्यंत अभद्र, अशालीन और अमर्यादित व्यवहार किया। इससे शिक्षा जगत खासकर दिल्ली विश्वविद्यालय स्तब्ध और क्षुब्ध है। श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स शिक्षक संघ और दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ सहित लगभग सभी शिक्षक संगठनों और हजारों छात्रों–शिक्षकों ने इस पर सख्त कार्रवाई की मांग की है।

रौनक खत्री ‘विजिलेंटी जस्टिस’/ कंगारू कोर्ट का नया रहनुमा बनने पर उतारू हैं। सस्ती लोकप्रियता के लिए निंदनीय स्टंटबाजी और रीलें बनाकर सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर वायरल करना कहां तक उचित है? आर्ट्स फैकल्टी के डीन प्रो. अमिताभ चक्रवर्ती, लॉ फैकल्टी के चुनाव अधिकारी, अदिति कॉलेज की प्राचार्या के साथ बदतमीजी, केशव महाविद्यालय के “इंस्पेक्शन” जैसी घटनाओं की सूची लंबी है। रौनक के सोशल मीडिया अकाउंट ऐसी वारदातों से अटे पड़े हैं। ऐसा आचरण घोर आपत्तिजनक, निंदनीय और अक्षम्य है। विश्वविद्यालय प्रशासन को इस पर गंभीर संज्ञान लेने की जरूरत है। ऐसे वातावरण में छात्र, शिक्षक और प्रशासनिक कर्मी निश्चिंततापूर्वक अपना कर्तव्य पालन नहीं कर सकते।

लोकतंत्र में छात्र संघों और छात्र नेताओं की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। छात्रसंघ युवा मन का सकारात्मक, संगठित और साकार रूप हैं। वे युवाओं की शक्ति और ऊर्जा के अभिव्यक्त और मान्य प्रतिनिधि रहे हैं। स्वाधीनता आंदोलन से लेकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन, आपातकाल विरोधी आंदोलन, राम मंदिर निर्माण आंदोलन, बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) द्वारा चलाए गए आंदोलन, आरक्षण संबंधी सामाजिक न्याय आंदोलन, श्रीनगर के लाल चौक पर राष्ट्रध्वज फहराने संबंधी तिरंगा आंदोलन और निर्भया कांड के बाद चले भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना/लोकपाल (इंडिया अगेंस्ट करप्शन) आंदोलन तक सभी बड़े समाज–सत्ता प्रतिष्ठान बदलने संबंधी आंदोलनों में छात्रों और छात्र संघों की बड़ी भूमिका रही है। उल्लेखनीय है कि आपातकाल विरोधी आंदोलन में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ और पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ की अग्रणी भूमिका थी।

अरुण जेटली, विजय गोयल, सीताराम येचुरी, प्रकाश करात, देवी प्रसाद त्रिपाठी, नीतिश कुमार, लालू प्रसाद यादव, सुशील कुमार मोदी, रविशंकर प्रसाद आदि तमाम बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई और लंबे संघर्ष और जद्दोजहद के बाद भारत देश में लोकतंत्र की बहाली हुई। यह वह दौर था जब छात्र व्यवस्था में सुधार या बदलाव की सकारात्मक राजनीति करते थे। छात्र संघ व्यक्तिगत स्वार्थों और महत्वाकांक्षाओं से परे जाकर सामाजिक–राष्ट्रीय मुद्दों और छात्रहित के लिए त्याग और समर्पण के साथ काम करते थे। वे सपने देखने वाले जुनूनी लोग थे। वे ‘कैरियरिस्ट’ नहीं थे।

राजनीति उनके लिए कैरियर नहीं थी। वे पढ़ते–लिखते भी थे। सामाजिक–राजनीतिक मुद्दों की समझ रखने वाले अच्छे वक्ता होते थे। वे चुनाव जीतने के लिए स्थानीय थैलीशाहों और गुंडों के मोहताज नहीं थे। न उन्हें किसी बड़े घर का बेटा या राजनीतिक परिवार का उत्तराधिकारी होने की आवश्यकता थी। वे कॉमन स्टूडेंट्स में से निकले हुए असाधारण प्रतिभा वाले मेहनती और जुझारू लोग थे। इसलिए उनका छात्रों पर प्रभाव होता था। छात्र उनके आह्वान पर,उनकी एक आवाज पर जुड़ते और जुटते थे।

इक्कीसवीं सदी आते–आते मुख्यधारा की राजनीति में अपराधियों और धन–पशुओं का वर्चस्व और बोलबाला होने लगा था। छात्र संघ और छात्र राजनीति भी इस बदलाव से अछूती नहीं रह सकी। जब छात्र राजनीति मुख्यधारा की राजनीति का शॉर्टकट माना जाने लगा तो उसमें गिरावट आने लगी। यह विचारणीय प्रश्न है। छात्रसंघ चुनाव जीतने की अर्हता जाति, धनबल और बाहुबल हो गया।

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छात्र संघ चुनाव में लिंगदोह नियमावली की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती हैं। छात्र संगठनों में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी रहती है। पूरी चुनावी व्यवस्था ऐसी हो चुकी है कि सही और सकारात्मक ढंग से चुनाव लड़कर जीतना लगभग असंभव है। इसके लिए सिर्फ छात्र नेताओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उनके अलावा उनके संगठन, चुनावी तंत्र और मतदाता यानि कि छात्र समुदाय भी इस गिरावट के लिए जिम्मेदार हैं। छात्रों की प्रत्याशियों की अकादमिक क्षमता, भाषण कला, मुद्दों की समझ और सक्रियता के प्रति उदासीनता दुखद है। बढ़ती गुंडागर्दी और हिंसा के कारण कई राज्य सरकारों और कई विश्वविद्यालयों ने छात्र संघ चुनावों पर रोक लगा दी है।

उल्लेखनीय है कि इस बार दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में लिंगदोह नियमावली के उल्लंघन का गंभीर संज्ञान लिया था। लेकिन उसके द्वारा की गई कार्रवाई नाकाफी है। पिछले कुछ सालों से देखने में यह भी आ रहा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुने हुए छात्रनेता शिक्षकों, प्रशासनिक कर्मियों और अधिकारियों आदि के साथ अभद्रता, गाली–गलौज और मारपीट तक करने लगे हैं।

विश्वविद्यालयों को गुंडों का चारागाह नहीं बनने दिया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब छात्रनेता कैंपस में मनमानी करेंगे और चौथ/लेवी वसूलेंगे। छात्रावासों और अतिथि गृहों पर अवैध कब्जे करके उन्हें अपने अड्डे बना लेंगे। जोर–जबरदस्ती, छेड़छाड़, मारपीट और अन्य अपराध विश्वविद्यालय का रोजनामचा हो जाएगा। देश के दर्जनों विश्वविद्यालयों में ऐसा होना शुरू हो गया था। इसलिए वहां छात्रसंघ चुनाव पर रोक लगा दी गयी है। इसी प्रकार माननीय न्यायालय को भी इन घटनाओं का स्वतः संज्ञान लेकर ऐसे आपराधिक तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। चुनाव प्रक्रिया पर भी निरंतर निगरानी रखने की आवश्यकता है।

आज छात्र राजनीति का शुद्धिकरण करना अत्यंत आवश्यक है। चुनाव प्रक्रिया को व्यावहारिक बनाकर, धनबल, बाहुबल से मुक्त करके और लिंगदोह नियमावली का अनुपालन सुनिश्चित करके एकबार फिर छात्र राजनीति को रचनात्मक और सकारात्मक बनाया जा सकता है। व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर और संस्थान हित को सर्वोपरि मानने वाले छात्र ही छात्रसंघों में आगे आ सकें, ऐसा वातावरण और प्रक्रिया बनाई जानी चाहिए। अगर हम निरन्तर बढ़ती ऐसी घटनाओं और प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं लगाएंगे तो इस अपराध के सहभागी माने जाएंगे। कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अकारण ही नहीं लिखा था –
“समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध! जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध!!”

कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड, हार्वर्ड, लिवरपूल, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे विदेशी संस्थानों में छात्रसंघ छात्रों और विश्वविद्यालय की बेहतरी के लिए समर्पित रहे हैं। ऐसा अन्य तमाम विदेशी विश्वविद्यालयों में भी सुनाई/दिखाई पड़ता है। सांस्थानिक हितों के लिए समर्पित छात्र प्रतिनिधि ही लोकतंत्र को स्वस्थ और परिपक्व बनाने में अपना योगदान दे सकते हैं। राजनीति में करियर बनाने की चाह में छात्र राजनीति को दूषित करने वाले भारतीय विश्वविद्यालयों के छात्रनेता अपनी परीक्षाओं के साथ–साथ मुख्यधारा की राजनीति में भी क्यों ‘फेल’ हो रहे हैं? उन्हें इस विषय पर आत्ममंथन करना चाहिए।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कॉलेज में प्राचार्य हैं)

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