गत दिनों सम्भल के जिलाधीश ने सम्भल में मनाए जाने वाले नेजा के मेले पर प्रतिबंध लगा दिया। अधिकांश लोग इस बात को नहीं जानते हैं कि उत्तर प्रदेश के 31 स्थानों पर लगाए जाने वाले नेजा के मेलों का सीधा संबंध हमलावर महमूद गजनवी के भांजे सालार मसूद गाजी से जुड़ा हुआ है, जिसके हाथों पर लाखों बेगुनाह हिंदुओं का खून है। सालार मसूद गाजी उर्फ बाले मियां की विजय स्मृति में आयोजित किए जाने वाले नेजा के मेले के आयोजन पर प्रतिबंध लगते ही विधवा विलाप शुरू हो गया। इसमें ‘सेकुलर’ हिंदू सबसे आगे हैं।
उल्लेखनीय है कि सालार मसूद गाजी ने महमूद गजनवी के बेटे मसूद गजनवी के शासनकाल में लूटपाट करने और काफिरों के खून से हाथ रंगने के लिए 50,000 सैनिकों के साथ भारत पर हमला किया था। मसूद की सेना ने लाहौर से बहराइच जाते हुए रास्ते में जहां-जहां डेरे डाले और वहां के कस्बों को लूटपाट करने के बाद उन्हें तबाह किया था और मंदिरों को ध्वस्त किया था। उन स्थानों पर शताब्दियों से उसके विजय दिवस को मनाने के लिए नेजा के मेले की परंपरा चली आ रही है। सालार मसूद गाजी के उर्स से 15 दिन पूर्व नेजे के इन मेलों का आयोजन इन शहरों मे किया जाता है। इन जगहों पर मेलों के आयोजन के बाद सालार मसूद गाजी का आलिम (ध्वजा) एक जुलूस की शक्ल में बहराइच की ओर रवाना होता है। उसके साथ लोकगायकों का एक जत्था भी होता है, जो कि ‘डफाली’ कहलाते हैं। ये लोग डफ पर लोक भाषाओं में सालार मसूद गाजी के विभिन्न ‘चमत्कारों’ के यशोगान गाते हैं। रास्ते में जिस गांव में वे डेरे डालते हैं वहां के हिंदू और मुसलमान इन ध्वजों पर नजराना पेश करते हैं, जिन्हें बाद में बहराइच स्थित सालार मसूद की दरगाह पर अर्पित करने का दावा किया जाता है।
गोस्वामी तुलसीदास ने भी सालार मसूद की दरगाह का व्यंग्यात्मक ढंग से उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है, ‘‘लही आंखि कब आंधरे, बांझ पूत कब पाय। कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाय।’’
उत्तर प्रदेश में जिन कस्बों को सालार मसूद की सेना ने तबाह किया था, उनमें से एक मेरठ है। यहां पर मसूद के सैनिकों ने नवदुर्गा के मंदिरों को तबाह किया था। वहां आज भी बाले मियां की मजार है, जहां उर्स मनाया जाता है। सालार महमूद गाजी पहला विदेशी आक्रांता था, जिसने अयोध्या पर हमला करके 500 मंदिरों को तहस-नहस किया था और लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा था।
मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार सालार ने अपने लश्कर सहित हमला करके वहां के पवित्र तीर्थ स्थल बालाकर सूर्य मंदिर को तहस-नहस कर दिया था। बहराइच से दस मील दूर चरौता में उसका सामना सुहेलदेव और उनके 15 राजाओं की संयुक्त सेना के साथ हुआ था। इस युद्ध में न केवल सालार मसूद ही मारा गया था, बल्कि उसकी सेना का एक भी सैनिक जीवित नहीं बचा था। 300 साल बाद फिरोजशाह तुगलक ने बहराइच विजय के बाद वहां पर सालार मसूद गाजी की मजार और दरगाह का निर्माण करवाया था। यहां पर गाजी मियां के उर्स मनाए जाने की परंपरा है। हैरानी की बात यह है कि अन्य विदेशी आक्रांताओं की तरह सालार मसूद गाजी को भी सूफी के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है और उसे ‘हिंदू-मुस्लिम सद्भावना के प्रतीक’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। आश्चर्य यह है कि इस आक्रांता की कब्र पर चादर चढ़ाने और नजराना पेश करने वालों में 90 प्रतिशत सेकुलर हिंदू होते हैं।
खास बात यह है कि गोस्वामी तुलसीदास ने भी सालार मसूद की दरगाह का व्यंग्यात्मक ढंग से उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है, ‘‘लही आंखि कब आंधरे, बांझ पूत कब पाय। कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाय।’’ यानी मूढ़-मति लोग बहराइच की दरगाह पर इसलिए जाते हैं कि वहां पर अंधों की आंखों में रोशनी आ जाती है और कोढ़ी रोग-मुक्त हो जाते हैं। हालांकि, यह सब साफ धोखा है। वहां पर आज तक एक भी अंधे की आंखें ठीक नहीं हुई हैं और न ही किसी कोढ़ी को कोढ़ से मुक्ति मिली है।
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