आज सूचनाओं के इस युग में सोशल मीडिया के माध्यम से समाज के सामने भांति-भांति के विचार परोसे जाते हैं। ऐसे वातावरण में हमारे अंदर यह विवेक होना चाहिए कि उसमें से क्या ग्रहण करना और क्या छोड़ना है। कुछ लोग इसे सद्विवेक भी कहते हैं। व्यक्ति, परिवार, समाज एवं देश के लिए जो हितकारक है, बस वही स्वीकार्य हो तो जनमत को परिष्कृत कहा जा सकता है। रा.स्व.संघ की शाखा जनमत परिष्कार का कार्य करते हुए विवेकशील स्वयंसेवकों का निर्माण करती है, जो समाज और आगे देश को उचित दिशा में ले जाते हैं
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1925 में प्रारम्भ हुआ। डॉ. हेडगेवार की मृत्यु 1940 में हुई। बीच के 15 साल में संघ कार्य का देश भर में विस्तार हुआ। 1940 में हुए प्रशिक्षण वर्ग में देशभर से 1400 कार्यकर्ता आए थे। 9 जून को वर्ग का समारोप हुआ। तत्कालीन सरसंघचालक परम पूजनीय डॉक्टर हेडगेवार का उसमें उद्बोधन हुआ। डॉक्टर जी का कार्यकर्ताओं को वह अंतिम मार्गदर्शन था। डॉक्टर जी को इसकी शायद कल्पना रही होगी इसलिए उन्होंने अपनी सारी शक्ति जुटाकर वह भाषण दिया था।

वरिष्ठ प्रचारक, रा.स्व.संघ
उन्होंने कहा था, ‘‘…मुझे नहीं लगता मैं आज आपके सामने दो शब्द भी ठीक से बोल पाऊंगा। संघ की दृष्टि से यह वर्ष अत्यंत भाग्यशाली है। आज मैँ अपने सामने हिंदू राष्ट्र का छोटा सा स्वरूप देख रहा हूं। मेरा व आपका परिचय ना होते हुए भी ऐसी क्या बात है कि जिसके कारण आपका अंत:करण मेरी ओर और मेरा अंत:करण आपकी ओर खिंचा चला जा रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तत्वज्ञान ही इतना प्रभावी है कि जिन स्वयंसेवकों का आपस में परिचय नहीं है, उनके बीच एक दूसरे की ओर देखते ही प्रेम निर्माण हो जाता है। बात करते-करते वे एक दूसरे के मित्र हो जाते हैं। मैं 24 दिन बीमारी के कारण बिस्तर पर था, परंतु मेरा अंत:करण आपके निकट था। आज आप अपने-अपने घरों को वापस जा रहे हैं। मैं आपको प्रेमपूर्वक विदा दे रहा हूं। आप प्रतिज्ञा कीजिए कि ‘जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक मैं संघ को नहीं भूलूंगा’।
डाक्टर साहब ने आगे कहा, ‘‘आज मेरे द्वारा कितना काम हुआ, इसका रोज सोते समय ध्यान करें। संघ के कार्यक्रम ठीक से करने, रोज संघस्थान पर उपस्थित रहने भर से ही संघकार्य समाप्त नहीं हो जाता। ‘आसेतु हिमालय’ फैले हुए हिंदू समाज को हमें संगठित करना है।…महत्वपूर्ण कार्यक्षेत्र संघ के बाहर है। संघ केवल स्वयंसेवक तक सीमित नहीं है। संघ के बाहर के लोगों के लिए भी संघ है। राष्ट्र उद्धार का सच्चा मार्ग सभी लोगों को बताना हमारा कर्तव्य है।…हिंदू समाज का अंतिम कल्याण संगठन में ही है। दूसरा कोई भी काम संघ को नहीं करना है।
‘‘संघ आगे क्या करेगा? यह प्रश्न निरर्थक है। संघ, संगठन का यही काम आगे बहुत गति से करने वाला है। निश्चित ही, इस मार्गक्रमण से एक स्वर्णिम दिवस आएगा जब संपूर्ण भारतवर्ष संघमय होगा। इसके बाद हिंदुओं की ओर तिरछी नजर से देखने का साहस संसार की कोई भी ताकत नहीं करेगी।…हम किसी पर आक्रमण करने नहीं निकले हैं, परंतु हम पर आक्रमण ना हो, इतनी सावधानी हमें रखनी ही पड़ेगी।’’

डाक्टर साहब ने जैसा कहा था कि ‘महत्वपूर्ण कार्यक्षेत्र संघ के बाहर है। संघ केवल स्वयंसेवक तक सीमित नहीं है। संघ के बाहर के लोगों के लिए भी संघ है। राष्ट्र उद्धार का सच्चा मार्ग सभी लोगों को बताना हमारा कर्तव्य है।’
संघरचना में उक्त काम गटनायक करता है। 7-8 स्वयंसेवकों के घरों में संपर्क करने का काम उसे दिया जाता है। वह प्रत्येक के घर लगातार जाता है। मां-पिता, भाई-बहन तथा घर के अन्य सदस्यों से परिचय करना, संघ के संबंध में उनको जानकारी देना, यह काम वह सहजता से करता है। वह परिवार के वरिष्ठ सदस्यों को आदर के साथ नमन करता है। बार-बार जाने से वह उस परिवार का एक घटक ही बन जाता है। मान लें कि एक गटनायक 8 परिवारों में जाता है, प्रत्येक परिवार में औसत पांच सदस्य हों तो एक गटनायक एक प्रकार से 400 लोगों का मानस संघानुकूल अर्थात राष्ट्रानुकूल बनाता है। एक शाखा में अगर पांच गटनायक भी हों तो भी एक शाखा कम से कम 2000 लोगों का प्रबोधन करती है। इसी को एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘जनमत परिष्कार’ कहा है। गटनायक संपर्क सीढ़ी के पहले पायदान का कार्यकर्ता होता है।
जाग्रत रहे विवेक
जनमत अनेक माध्यमों से बनता ही रहता है। शिक्षा, साहित्य, कला, संगीत, संवाद माध्यम, सोशल मीडिया, चुनाव के समय विभिन्न पार्टियों द्वारा की जाने वाली चर्चाएं आदि के माध्यम से जनमत बनता ही रहता है। वर्तमान युग सूचना का है। विचारों की बरसात हम पर सतत होती रहती है। ऐसे वातावरण में क्या ग्रहण करना और क्या छोड़ना, इसका विवेक जाग्रत रखना पड़ता है। कुछ लोग इसे सद्विवेक बुद्धि भी कहते हैं। व्यक्ति, परिवार, समाज एवं देश के लिए जो हितकारक है, वह स्वीकार्य होना चाहिए। ‘मेरे हित में है, परंतु परिवार के हित में नहीं, परिवार के हित में है, परंतु समाज (जाति, यूनियन, संप्रदाय आदि) के हित में नहीं, समाज के हित में है, परंतु देश हित में नहीं, ऐसी बातों को छोड़ देना चाहिए। मेरे, परिवार के, समाज के तथा देश के हित में जो होगा वही स्वीकार होगा’, इसे ही विवेक बुद्धि कहते हैं। व्यक्ति तथा समाज की सद्विवेकबुद्धि जाग्रत रखने हेतु जो प्रयत्न हो रहे हैं उसे ‘जनमत परिष्कार’ कहा जा सकता है। ऐसा कार्य साधु-संत, कीर्तनकार, प्रवचनकार, ऋषि-मुनि, भिक्खू वर्ग करता रहता है। जिन्हें स्वत: का कोई स्वार्थ नहीं है, जो सत्तातुर, कामातुर, धनातुर, मानातुर नहीं हैं तथा राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हैं, वे ही लोग जनमत परिष्कार कर सकते हैं। संघ स्वयंसेवक की समाज में भूमिका अर्थात राष्ट्रीय जीवन में भूमिका ‘जनमत परिष्कार’ की ही है। स्वयंसेवक भगवा ध्वज अर्थात ‘त्याग मूर्ति’ को साक्षी मानकर यह प्रतिज्ञा करता है-‘‘मैं संघ कार्य प्रामाणिकता, निस्वार्थ बुद्धि और तन-मन-धन से करूंगा।’’ स्वयंसेवक को किसी भी वस्तु का मोह नहीं होता। एक कविता की दो पंक्तियां उसके अंतर में सदैव गूंजती रहती हैं-
‘वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत समुहार। छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना, हिंदू राष्ट्र के तारणहार।।’
स्वयंसेवक जहां भी रहे वह वहीं अनेक परिवारों से आत्मीय और स्नेह संबंध बना लेता है। वह किसी के प्रति भेदभाव अथवा पूर्वाग्रह नहीं रखता। अपने चरित्र, निस्वार्थ सेवा, स्नेहमय और नम्र व्यवहार के कारण अपने क्षेत्र में वह आदर का पात्र होता है। समाज में किसी एक वर्ग का, जाति का, पक्ष का प्रवक्ता बनकर वह कार्य नहीं करता। किसी की भी सहायता के लिए वह दौड़ कर जाता है, इसके कारण अनेक लोगों को वह अपने मोहल्ले का, समिति का आधार लगता है। लोग उससे चर्चा करते हैं। यहीं से उसका जनमत परिष्कार का कार्य प्रारंभ होता है। डॉ. हेडगेवार द्वारा अपने आखिरी संदेश में दिया गया मार्गदर्शन उसे याद आता है-‘राष्ट्रोद्धार का सही मार्ग लोगों को बताना हमारा कर्तव्य है।…हिंदू समाज का कल्याण संगठन में ही है।’
तृतीय सरसंघचालक माननीय बालासाहब देवरस कहते थे, ‘आत्मीयतापूर्ण पारिवारिक संपर्क यदि होंगे तो चर्चा सुगम एवं सहज होगी।’ गृह संपर्क संघ शाखा का प्राण है। 10,000 की जनसंख्या में कम से कम एक शाखा, यह औसत आज भी रखी जाती है अर्थात एक शाखा द्वारा 2000 परिवारों से संपर्क रखना अपेक्षित है। समाज संघ का और संघ समाज का, यही मंत्र है। समाज का मन जानने के लिए संपर्क आवश्यक है। शाखा संपर्क के अवसर ढूंढती ही रहती है। रक्षाबंधन एक ऐसा ही अवसर है। बंधु भावना का विस्तार करने हेतु रक्षाबंधन का पर्व अत्यंत उपयोगी है।
संपर्क और नियोजन
लोक संपर्क, लोक संस्कार, लोक संग्रह तथा लोक नियोजन, इन्हें हम डॉक्टर जी के जीवन सूत्र कह सकते हैं। इन्हीं सूत्रों का अवलंबन कर स्वयंसेवक समाज में कार्य करते हैं। जनसंपर्क से आत्मीयता और सहजता निर्माण हो, यही जनसंपर्क का उद्देश्य होना चाहिए। लोक संस्कार यानी समाज के अनुकूल, देश के अनुकूल विचार एवं व्यवहार होना चाहिए। लोक संग्रह यानी देश के अनुकूल विचार करने वाले व्यक्तियों को अपने काम में शामिल करना तथा लोक नियोजन यानी संगठन कार्य में अपने आप को झोंक देने वाले कार्यकर्ता निर्माण करना। यह चक्र सतत चलता रहना चाहिए।
संघ का प्रयत्न है कि जनसंपर्क का दायरा जितना बढ़ा सकते हैं, उतना बढ़ाया जाए। समाज के सभी वर्गों (वैज्ञानिक, खिलाड़ी, कलाकार, साधु-संत, धर्माचार्य, किसान, मजदूर, जनजातीय बंधु आदि) के गणमान्य नागरिकों की सूची तैयार कर उनसे संपर्क बढ़ाने का प्रयत्न होता है। प्रतिनिधि सभा में पारित होने वाले प्रस्तावों पर चर्चा होती है। परम पूजनीय सरसंघचालक जी के विजयादशमी (दशहरा) उत्सव पर दिए उद्बोधन के संदर्भ में प्रयत्नपूर्वक भारत के अनेक शहरों में चर्चा आयोजित की जाती है। अपने अंतिम भाषण में डॉ. हेडगेवार ने यह भी कहा था-‘‘संघ की दृष्टि से यह वर्ष अत्यंत सौभाग्य का है। आज मैं अपने सामने हिंदू राष्ट्र का (अर्थात जाग्रत हिंदू समाज का) एक छोटा स्वरूप देख रहा हूं। निश्चित ही संगठन के बढ़ते जाने से एक ऐसा स्वर्णिम दिन आएगा, जब संपूर्ण भारतवर्ष संघमय होगा। फिर संपूर्ण विश्व में हिंदू समाज की ओर तिरछी नजर से देखने की हिम्मत किसी की नहीं होगी।’’ इस प्रकार की अजेय शक्ति से संपन्न हिंदू समाज के खड़े होने से ही विश्व एवं मानवता का कल्याण संभव है। इसी ध्येय से डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी।
‘लोकमन संस्कार करना, यह परमगति साधना है।
और रचना गौण है सब, यह शिखर संयोजना है।।’
संगठन गढ़े चलो, सुपंथ पर बढ़े चलो… शताब्दी सोपान (5):
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