कुछ दिनों से एक वर्ग विशेष है जिसे भारत में नगरों के नाम बदले जाने पर आपत्ति हो रही है। कई वेबसाइट पर इस संबंध में लेख भी रह-रहकर प्रकाशित हो रहे हैं कि भारत में मुस्लिमों के आने के बाद के बाद जो शहरों के नाम बदले गए, उनके पूर्व के नाम किये गए, वह मुस्लिमों पर हमले के समान है। ऐसा एजेंडा बनाया जा रहा है कि जो भी नाम बदले गए, उनके आधार पर मुस्लिमों को आक्रमणकारी घोषित करके उन्हें पराया बताया जा रहा है।
एक और तर्क दिया जा रहा है कि जैसे ही किसी शहर का नाम वह कर दिया जाता है, जो इस्लामी आक्रान्ताओं से आने से पहले का था, तो मुस्लिमों को परायापन लगता है। उन्हें ऐसा प्रतीत कराया जाता है कि जैसे वे मुस्लिम आक्रांताओं के वंशज हैं और हिंदू उनके पीड़ित हैं। यह इस बात का प्रतीक होता है कि जैसे हिंदुओं को मारने वाले मुस्लिमों पर अब हिंदुओं ने विजय हासिल कर ली है। यह भी तर्क दिया जाता है कि भारतीय मुस्लिमों पर कई तरह के ऐतिहासिक अपराध थोपे जाते हैं। इतिहास को गलत तरीके से प्रस्तुत करने वाले इतिहासकारों के आधार पर कई आरोप लगाए जाते हैं। ऐसे तर्कों से भरे लेख इनदिनों लिखे जा रहे हैं। मगर अब प्रश्न उठता है कि यदि शहर के नाम को भारतीय इतिहास के अनुसार पूर्व रूप दिया जा रहा है, तो इसमें प्रश्न उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जिन्होंने उस पर क्यों नहीं बोला जब प्राचीन नाम बदला गया। यदि प्रयागराज का नाम अलाहाबाद और कालांतर में इलाहाबाद हो गया तो इतने वर्षों तक हिंदुओं को उस इलाहाबाद में पराएपन का एहसास नहीं हो रहा होगा, जो अकबर के आने से पहले प्रयागराज था और जिसका उल्लेख हिंदुओं के तमाम धार्मिक ग्रंथों में है?
यदि आज कथित लेखकों को यह लगता है कि शहर का नाम पहले वाला होने से मुस्लिमों को अजनबीपन लगने लगता है तो हिंदुओं को बख्तियारपुर जैसे शहरों के नाम सुनने में कैसा लगता होगा? यह प्रश्न क्यों नहीं उठता है?
यदि पहचान के ही प्रश्न की बात है तो यह बात भी उठनी ही चाहिए कि हिंदुओं को भी पीड़ा होती ही होगी, जब वे अपने पूर्वजों के साथ अत्याचार करने वाले लोगों के नाम पर बसे शहर में रहते होंगे। हिंदुओं की पीड़ा का क्या कोई स्थान नहीं है? और जब यह एकतरफा लेखों में कहा जाता है कि मुस्लिमों पर काल्पनिक ऐतिहासिक अपराधों का बोझ डाला जाता है, तो फिर यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि यदि हिंदुओं पर काल्पनिक ऐतिहासिक अपराध किये गए तो कश्मीर से लेकर सोमनाथ तक टूटे हुए मंदिरों के प्रमाण क्यों हैं? क्यों बुतशिकनी करने वाले लोगों को अभी तक उस समुदाय में आदर दिया जाता है, जिन्होंने प्रतिमाओं के विध्वंस पर ही ध्यान केंद्रित किया। कश्मीर में वितस्ता नदी को झेलम करने पर यह नहीं कहा जाता कि कितनी पीड़ा होती होगी अपनी माता वितस्ता को झेलम के रूप में देखें!
काशी नगर का नाम नहीं बदला गया, परंतु हिंदुओं के धार्मिक अस्तित्व पर ही अतिक्रमण करने का प्रयास किया गया और अब दुर्भाग्य यह है कि यदि हिन्दू समुदाय यह बात करता है कि यहां पर हमारे महादेव हैं, तो उसे मुस्लिमों के साथ अन्याय के रूप में दिखाया जाता है?
इसे सत्य से मुंह मोड़ना नहीं, बल्कि अपराधों को उचित ठहराना होता है। औरंगजेब ने मथुरा पर आक्रमण करके मंदिर तोड़कर उसपर गुंबद बनाकर, श्रीकृष्ण जन्मस्थली के नगर का नाम ही बदलकर इस्लामाबाद रख दिया गया था और इतना ही नहीं वृंदावन का नाम भी मोमीनाबाद कर दिया था। हालांकि ये नाम अधिक नहीं चले, क्योंकि ये चल ही नहीं सकते थे। परंतु फिर भी आज तक उसी समुदाय में से एक भी स्वर इस बात का विरोध करने के लिए उठा कि कैसे किसी धार्मिक समुदाय के आराध्य के जन्मस्थान और लीला करने वाले स्थानों के नाम दूसरी तहज़ीब के नाम पर रखा जा सकता है, जो समुदाय आज यह कहता है कि नाम बदलकर उन्हें पराया महसूस कराया जा रहा है?
क्यों यह पीड़ा तब नहीं उभर कर आई जब हिंदुओं के आराध्य प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान को फैजाबाद के रूप में जाना जाता रहा। अयोध्या का इतिहास ही जैसे नष्ट करने का प्रयास किया गया। क्या किसी ने भी उस टीस का अनुभव करने का प्रयास भी किया, जो मार्तंड सूर्य मंदिर के अवशेष देखने से उत्पन्न होती है? ये मात्र कुछ ही स्थान हैं, और मात्र इन्हीं कुछ स्थानों का उल्लेख भारत की आत्मा को उस पीड़ा से भर देता है, जिसका अनुमान वे लोग नहीं लगा सकते हैं, जो अपनी पहचान बुतशिकनी की ही रखना चाहते हैं।
ऐसे एकतरफा लेख, भारत की आत्मा पर आक्रमण और अतिक्रमण दोनों की ही पीड़ा को लगातार बढ़ाते हैं, परंतु दुर्भाग्य यही है कि भारत की सम्पूर्ण पहचान पर अतिक्रमण का ख्वाब देखने वाले वाला वर्ग उस पीड़ा को न ही समझता है और न ही कभी समझने का प्रयास भी करेगा।
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