प्लास्टिक पेट्रोलियम और अन्य रसायनों से बना एक कृत्रिम पदार्थ है। 98 प्रतिशत प्लास्टिक जीवाश्म से उत्पन्न होने वाले कोयले, तेल और गैस से बनता है। प्लास्टिक को विभिन्न गुण जैसे रंग, मजबूती, मुड़ने की क्षमता देने के लिए विभिन्न प्रकार के हानिकारक रसायन मिलाए जाते हैं। प्लास्टिक उद्योग में लगभग 16,000 तरह के रसायन प्रयुक्त होते हैं, जिनमें 4200 बहुत हानिकारक होते हैं। ये प्रतिरक्षा प्रणाली, मस्तिष्क, नसों, रक्त वाहिनियों और हॉर्मोन सिस्टम को प्रभावित करते हैं। प्लास्टिक ने आधुनिक मानव सभ्यता के विकास के कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनमें चिकित्सा, इलेक्ट्रॉनिक, संचार, भोजन पैकेजिंग सहित रोजमर्रा की अन्य वस्तुएं भी शामिल हैं। इसे नष्ट होने में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं।

भारतीय चिकित्सा परिषद की आचार समिति के पूर्व सदस्य
बीते 50 वर्ष में प्लास्टिक का चलन तेजी से बढ़ा है। विश्व की कोई जगह ऐसी नहीं बची जो प्लास्टिक से अछूती हो, माउंट एवेरेस्ट से लेकर समुद्र की अतल गहराई तक, विश्व के ग्रामीण परिवेश, नगरों, महानगरों से लेकर घने जंगलों तक, सब जगह प्लास्टिक पसरा हुआ है। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ पोंडा के एक अध्ययन के अनुसार, हम लगभग 5 ग्राम प्लास्टिक प्रति सप्ताह खा रहे है, जो कि एक क्रेडिट कार्ड के वजन के बराबर है। लगभग 22,000,000 माइक्रो और नैनो प्लास्टिक के कण हमारे फेफड़ों में प्रतिवर्ष सांस के द्वारा प्रवेश करते हैं।
अभी 2024 में नेचर मेडिकल जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट में मानव मस्तिष्क में एक चम्मच जितना प्लास्टिक मिलने की बात कही गई है। यह मस्तिष्क के वजन का लगभग 0.5 प्रतिशत है। अमेरिका के ईस्ट कोस्ट में हुए इस शोध में पता चला कि मानव मस्तिष्क में 1997 से 2024 तक लगातार प्लास्टिक की मात्रा बढ़ रही है। मस्तिष्क में 1 नैनोमीटर से लेकर 500 माइक्रोमीटर तक के प्लास्टिक कण मिले। 2016 में जितना प्लास्टिक मस्तिष्क में था, वह 2024 तक डेढ़ गुना हो गया। पर्यावरण में यह जिस अनुपात में बढ़ रहा है, उसी अनुपात में शरीर में बढ़ रहा है। मस्तिष्क में जो माइक्रोप्लास्टिक मिला, उसमें लगभग 75 प्रतिशत पॉलीइथीलिन था, जो प्लास्टिक की थेलियों, भोजन और पेय पदार्थों की पैकिंग में प्रयुक्त होने वाले प्लास्टिक का मूल घटक होता है।
पोस्ट्मॉर्टम रिपोर्ट से यह भी पता चला कि व्यक्ति की मृत्यु के समय आयु, लिंग, रंग, जाति और देश के भिन्न होने पर भी इसमें कुछ फर्क नहीं आया। डिमेंशिया (बढ़ती उम्र के साथ भूलने की बीमारी) से पीड़ित लोगों के मस्तिष्क में प्लास्टिक सामान्य व्यक्ति से 3 से 10 गुना ज्यादा था। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि मस्तिष्क में प्लास्टिक के कारण उन्हें यह बीमारी हुई या यह पहले से ही उनके मस्तिष्क में जमा था। ध्यान देने वाली बात है कि मानव मस्तिष्क एक बहुत नाजुक अंग है। इसमें ‘ब्लड-ब्रेन बैरियर’ होता है, जो खून में मौजूद नुकसानदेह कण और कीटाणु को मस्तिष्क तक नहीं जाने देता है। लेकिन प्लास्टिक के माइक्रो और नैनो कण इस ‘ब्लड-ब्रेन बैरियर’ को भी पार कर जाते हैं।
न्यू इंग्लैंड जर्नल आफ मेडिसिन ने भी 304 मरीजों पर की गई एक शोध रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें मस्तिष्क को रक्त पहुंचाने वाली मुख्य धमनी केरोटिड आर्टरी में रक्त प्रवाह अवरुद्ध करने वाले प्लैक की जांच की गई थी। इसमें 150 मरीजों की धमनियों में पॉलीइथीलिन और 31 में पॉलीविनाइल क्लोराइड के छोटे-छोटे टुकड़े मिले थे। इनमें इन्फ्लेमेशन भी पाया गया। यानी शरीर इन प्लास्टिक के टुकड़ों को बाहरी मानकर उनसे लड़ रहा था। जिन 257 मरीजों के प्लैक निकाल दिए गए थे, उन्हें 34 महीने तक निगरानी में रखा गया था। इसमें पता चला कि जिनके प्लैक में प्लास्टिक था, उनके लकवा होने, हृदयाघात या अन्य कारण से मृत्यु होने की दर 4.5 गुना अधिक थी।
प्लास्टिक से सबसे अधिक प्रभावित गर्भस्थ एवं नवजात शिशु होते हैं। इससे बच्चों के समय पूर्व जन्म, जन्म के समय कम वजन, मृत शिशु का जन्म, जन्मजात जननांग, हृदय आदि बीमारियां होने का खतरा भी काफी होता है। इटली में 2020 में किए गए प्रयोगों में प्लसेंटा (गर्भस्थ शिशु और मां, जिस नाल द्वारा जुड़ते हैं) में भी पाया गया। इसमें मां के दूध के 34 नमूने लिए गए थे, जिनमें 75 प्रतिशत में प्लास्टिक मिला था। विशेष रूप से प्लास्टिक की बोतल से दूध पीने वाले नवजात शिशुओं के मल में वयस्कों की तुलना में 10 गुना अधिक प्लास्टिक पाया गया। एक सामान्य बुद्धि से भी यह समझा जा सकता है कि बड़ों की तुलना में इससे बच्चे अधिक प्रभावित होंगे, क्योंकि उनका रोग प्रतिरोधात्मक तंत्र अपेक्षाकृत कमजोर होता है।
प्लास्टिक कण पॉलीइथीलिन पेय पदार्थों की बोतलें बनाने में प्रयुक्त होता है। वहीं, पॉलीएसटीरिन खाद्य पदार्थों की पैकेजिंग में प्रयुक्त होता है। इन दोनों के अंश मानव रक्त के नमूनों में मिले हैं। प्लास्टिक के यही कण बोन मैरो में भी पाए गए। रक्त और बोन मैरो तेजी से बनते और नष्ट होते हैं। साथ ही, शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति का मुख्य हिस्सा होते हैं। प्लास्टिक शरीर में कोशिका के स्तर पर नुकसान पहुंचाता है, जो रोग प्रतिरोधी शरीर में होने वाले विभिन्न कैंसर से भी बचाव करती है। लेकिन प्लास्टिक जमा होने के कारण यह कमजोर हो जाती है। हृदय और इसकी मुख्य धमनियों में, विशेषकर जिन लोगों की धमनियां चर्बी जमा होने से अवरुध होने लगती है, उसमें भी प्लास्टिक के कण पाए गए हैं। चूहों पर जब प्रयोग किया गया तो पता चला कि प्लास्टिक के कारण उन्हें हृदयाघात आया। चूहों की कैपिलरीज मानव की कैपिलेरीज से छोटी होती है।
प्लास्टिक के कण अंडकोश और लिंग में भी मिले हैं। पिछले 40 वर्ष में सामान्य वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या लगातार घट रही है। इसका महत्वपूर्ण कारण बदलती जीवनशैली के साथ टेस्टिस तक माइक्रोप्लास्टिक का पहुंचना भी हो सकता है। टेस्टिस शुक्राणुओं को जब बनाती है तो क्रोमोजोम की संख्या मानव की दूसरी कोशिकाओं से आधी रह जाती है (23 क्रोमोजोम, जबकि सामान्य कोशिका में 46 क्रोमोजोम होते हैं)। ऐसा इसलिए होता है कि आधे क्रोमोजोम माता से आते हैं। क्रोमोजोम की आधी संख्या के कारण शुक्राणु शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के लिए ‘बाहरी’ हो जाते हैं, इसलिए शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र उन्हें खत्म करने लग जाता है। ‘ब्लड-टेस्टिस बैरियर’ के कारण इससे बचाता है। इसे हमारा प्रतिरक्षा तंत्र भी भेद नहीं पाता है। लेकिन प्लास्टिक इस ब्लड-टेस्टिस बैरियर को भी बेकार कर देता है। नपुंसकता के कारण जिन लोगों में आॅपरेशन कर पिनाइल इम्प्लांट लगाना पड़ा और जब लिंग के ऊतकों की जांच की गई तो उसमें भी प्लास्टिक मिला।
मिंडेरो-मोनाको आयोग ने प्लास्टिक के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर पर काफी शोध किया है। इसके अनुसार, कोयला खदानों में काम करने वाले लोगों को फेफड़े के कैंसर, फेफड़े व सांस संबंधी बीमारी अधिक होते हैं। प्लास्टिक बनाने वाले, इसे पुनर्चक्रित करने वाले, प्लास्टिक के कपड़े बनाने वाले कर्मियों में ब्लड कैंसर, लिम्फोमा, स्तन कैंसर, ब्रेन कैंसर, मूत्राशय का कैंसर, हृदयाघात, मस्तिष्क और नसों की बीमारी ज्यादा होती है। वहीं, प्लास्टिक फैक्टरियों के पास स्थित कॉलोनी में समय पूर्व प्रसव, शिशु विकास कम होना, ब्लड कैंसर, मानसिक और फेफड़ों की बीमारी ज्यादा होती है। प्लास्टिक में मिले हुए रसायन हॉर्मोन सिस्टम को बिगाड़ देते हैं। रिपोर्ट में प्लास्टिक के दुप्रभावों को रेखांकित करते हुए बताया गया है कि यह सभी इनसानों को समान तरीके से प्रभावित नहीं करता, बल्कि कमजोर, गरीब, बच्चे, महिलाएं, बीमार व विश्व के दक्षिण हिस्से में रहने वाले लोगों को अधिक नुकसान पहुंचाता है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक पूरी दुनिया में हर साल इनसान 43 करोड़ मीट्रिक टन प्लास्टिक बना रहा है। इसमें दो तिहाई प्लास्टिक जल्द ही कचरा बन जाता है, जो नष्ट नहीं होता।
प्लास्टिक से होने वाले नुकसानों के बारे में जानकारी अभी भी कम है। इसलिए अभी स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह किस-किस तरह से पर्यावरण और शरीर को नुकसान पहुंचाता है। इसलिए सिंगल यूज प्लास्टिक के इस्तेमाल पर समय रहते रोक नहीं लगाया गया, तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है। विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने शताब्दी वर्ष में पंच परिवर्तन में पर्यावरण को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। संघ की प्रेरणा से बीते एक दशक से विभिन्न समाज के लोग अपने सार्वजनिक व मांगलिक कार्यक्रमों में प्लास्टिक या डिस्पोजेबल वस्तुओं का उपयोग नहीं कर रहे हैं। प्रयागराज में हाल ही में सम्पन्न महाकुंभ में भी संघ की इसी प्रेरणा से शून्य बजट वाला विश्व का सबसे बड़ा अभियान ‘एक थाली, एक थैला’ जनभागीदारी से सफल बनाया गया गया। इस अभियान से 29,000 टन अपशिष्ट कम हुआ, जिससे 140 करोड़ रुपये की बचत हुई। साथ ही महाकुंभ में आने वाले 66 करोड़ यात्रियों के माध्यम से समूचे भारत में पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए डिस्पोेजेबल का उपयोग बंद करने संबंधी जागरूकता आई है।
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