मीठे पानी के महत्व को उजागर करने और जल संसाधनों के सतत प्रबंधन का समर्थन करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है। यह दिवस मीठे पानी के महत्व और जल संसाधनों के सतत प्रबंधन पर चर्चा करता है। 1993 में पहली बार मनाया जाने वाला यह दिवस दुनिया भर में पानी के मुद्दों और पीने के पानी से जुड़ी समस्याओं को दूर करने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता फैलाता है। विश्व जल दिवस 2025 ‘ग्लेशियर संरक्षण’ थीम पर केंद्रित है, जो दुनियाभर के ग्लेशियरों को बचाने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है क्योंकि ग्लेशियर पृथ्वी के जल चक्र को संतुलित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
विश्व जल दिवस 2025 का मुख्य फोकस ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना, स्थायी जल प्रबंधन प्रथाओं को लागू करना और ग्लेशियरों और उनके द्वारा प्रदान किए जाने वाले मीठे पानी के भंडार की सुरक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना है। संयुक्त राष्ट्र ने 2025 को ग्लेशियरों के संरक्षण का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है, साथ ही 2025 से प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को ‘विश्व ग्लेशियर दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा भी की है, जिसका उद्देश्य ग्लेशियरों के महत्व को उजागर करना और यह सुनिश्चित करना है कि उन पर निर्भर रहने वाले और क्रायोस्फेरिक प्रक्रियाओं से प्रभावित लोगों को आवश्यक जल विज्ञान, मौसम विज्ञान और जलवायु सेवाएं प्राप्त हों।
दरअसल, ग्लेशियर वैश्विक जलवायु को विनियमित करने और अरबों लोगों के लिए आवश्यक मीठे पानी को उपलब्ध कराने के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मानवीय गतिविधियों द्वारा संचालित जलवायु परिवर्तन के कारण ये महत्वपूर्ण संसाधन तेजी से पिघल रहे हैं। ग्लेशियरों का संरक्षण जल स्रोतों की सुरक्षा और वैश्विक जल संकट से निपटने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इनका संरक्षण न केवल पीने के पानी की आपूर्ति के लिए आवश्यक है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नियंत्रित करने में भी मदद करता है।
ग्लेशियर प्राकृतिक जल भंडारण के रूप में कार्य करते हैं और नदियों के प्रमुख स्रोत होते हैं। जब वे पिघलते हैं तो नदियों और जलधाराओं को जल प्रदान करते हैं, जिससे कृषि, पेयजल आपूर्ति और जैव विविधता को बनाए रखने में मदद मिलती है लेकिन जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों के कारण ग्लेशियरों का पिघलना तेज हो गया है, जिससे समुद्र के स्तर में वृद्धि और जल संकट जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज होने से मीठे पानी की उपलब्धता लगातार अनिश्चित होती जा रही है।
पृथ्वी का 70 प्रतिशत ताजा पानी ग्लेशियरों में जमा है, जो पीने के पानी, उद्योग और स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन का स्रोत बन जाता है। बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण, हिमालय, एंडीज, आल्प्स और आर्कटिक जैसे क्षेत्रों में ग्लेशियर खतरनाक दर से सिकुड़ रहे हैं, मानव बस्तियां और पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ रहे हैं। पानी मनुष्य का मौलिक अधिकार है लेकिन यह गंभीर चिंता का विषय है कि दुनिया भर में लगभग 2.2 बिलियन लोगों की पीने के पानी तक पहुंच नहीं है। जलवायु परिवर्तन, शहरीकरण और अत्यधिक मांग के प्रभाव के कारण पानी की पहुंच की कमी 21वीं सदी के लिए एक बड़ी समस्या बन गई है।
1900 के दशक की शुरुआत से ही दुनियाभर में कई ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद से कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन ने तापमान को बढ़ा दिया है और इसी के परिणामस्वरूप ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, समुद्र में गिर रहे हैं और जमीन पर वापस आ रहे हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों का स्पष्ट कहना है कि आने वाले दशकों में हम भले ही उत्सर्जन पर काफी हद तक अंकुश लगा दें, फिर भी दुनिया के बचे हुए एक तिहाई से अधिक ग्लेशियर वर्ष 2100 से पहले पिघल जाएंगे। आर्कटिक की सबसे पुरानी और सबसे मोटी बर्फ का 95 प्रतिशत हिस्सा पहले ही पिघल चुका है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि उत्सर्जन में अनियंत्रित वृद्धि जारी रही तो वर्ष 2040 तक आर्कटिक क्षेत्र गर्मियों में बर्फ रहित हो सकता है क्योंकि समुद्र और हवा का तापमान तेजी से बढ़ता रहेगा। हाल ही में किए गए कुछ अध्ययनों के अनुसार 2000 से 2023 तक ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र का स्तर लगभग 2 सेंटीमीटर बढ़ गया है। यह वृद्धि समुद्र तटीय क्षेत्रों में बाढ़ के खतरे को बढ़ाती है, जिससे प्रति वर्ष लगभग 2 मिलियन लोग प्रभावित हो सकते हैं।
विश्व के कुछ हिस्सों में ग्लेशियरों के पिघलने की दर अधिक है। मध्य यूरोप में ग्लेशियरों का 39 प्रतिशत तक सिकुड़ना देखा गया है जबकि अंटार्कटिका और उप-अंटार्कटिका द्वीपों ने अपने हिमनद आयतन का केवल 2 प्रतिशत ही खोया है। ग्लेशियरों की पीछे हटने की दर में भी वृद्धि हुई है। 2012-2023 के दशक में ग्लेशियरों के पिघलने की दर में 36 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव को दर्शाती है। भारत में भी ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र स्तर में वृद्धि हो रही है। भारत के तटीय शहरों में समुद्र स्तर में वृद्धि देखी गई है। मुंबई में 1987 से 2021 के बीच समुद्र स्तर में 4.44 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है, जो तटीय क्षेत्रों में बाढ़ और कटाव के जोखिम को बढ़ाती है।
हिमालय को ‘तीसरा ध्रुव’ कहा जाता है, जो अंटार्कटिक और आर्कटिक के बाद बर्फ का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के ग्लेशियर भी दस गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं और वर्ष 2000 के बाद इनके पिघलने की रफ्तार में ज्यादा तेजी आई है। हिमालयी ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना गंभीर खतरे को न्यौता दे रहा है। भारत की जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट के अनुसार, हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। 1981 से 1990 के बीच ग्लेशियल झीलों के फटने की घटनाएं औसतन 1.5 प्रति दशक थी, जो 2011 से 2020 के बीच बढ़कर 2.7 प्रति दशक हो गई। यह वृद्धि हिमालय और उसके निचले इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए गंभीर खतरा है। यदि ग्लेशियर इसी रफ्तार से पिघलते रहे तो एशिया में गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी के किनारे रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए पानी का संकट खड़ा हो सकता है।
इन नवीनतम आंकड़ों से स्पष्ट है कि ग्लेशियरों का पिघलना न केवल पर्यावरणीय संतुलन को बाधित कर रहा है बल्कि इसका मानव जीवन, आजीविका और वैश्विक जलवायु पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कई गंभीर प्रभाव हो सकते हैं। ग्लेशियर पृथ्वी की सतह के तापमान को नियंत्रित करते हैं। इनके पिघलने से समुद्र स्तर बढ़ता है और प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बढ़ती है। ग्लेशियरों के सिकुड़ने से जल स्रोतों पर निर्भर समुदायों को पीने और कृषि के लिए जल उपलब्धता में कमी का सामना करना पड़ सकता है। ग्लेशियरों के सिकुड़ने का जैव विविधता पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है। दरअसल ग्लेशियरों से जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होते हैं, जिससे वनस्पति और जीवों की अनेक प्रजातियां संकट में आ सकती हैं। पहाड़ी और तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आजीविका और सुरक्षा को भी ग्लेशियरों के पिघलने से गंभीर खतरा हो सकता है। इसलिए ग्लेशियरों के संरक्षण के लिए तत्काल और प्रभावी कदम उठाने अत्यावश्यक हो गए हैं।
ग्लेशियरों को बचाने और जल स्रोतों को सुरक्षित रखने के लिए ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करना, वनों की कटाई रोकना और वृक्षारोपण, पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखना, स्थानीय और वैश्विक स्तर पर जागरूकता, वैज्ञानिक अनुसंधान एवं तकनीकी उपाय और ग्लेशियर संरक्षण नीतियां बनाना और लागू करना जैसे कदम इस दिशा में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए सौर, पवन, जलविद्युत जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग बढ़ाने की आवश्यकता है। जंगलों का संरक्षण और वनीकरण भी जलवायु संतुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं। इसके अलावा हिमालयी और अन्य ग्लेशियर क्षेत्रों में अतिक्रमण और अनियंत्रित पर्यटन को नियंत्रित करना भी अब बहुत आवश्यक है।
सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को मिलकर ऐसी सख्त पर्यावरणीय नीतियां बनानी चाहिए, जो ग्लेशियरों की सुरक्षा सुनिश्चित करें। स्कूलों, कॉलेजों और मीडिया के माध्यम से ग्लेशियर संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक शोधों के माध्यम से ग्लेशियरों पर प्रभाव का अध्ययन करके प्रभावी समाधान निकाले जा सकते हैं। बहरहाल, ग्लेशियर संरक्षण न केवल जल सुरक्षा के लिए आवश्यक है बल्कि यह पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने में भी सहायक है। हमें अपने जल स्रोतों की रक्षा करने और ग्लेशियरों के संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। सरकारों, संगठनों और समुदायों को मिलकर इस दिशा में कार्य करना होगा ताकि भविष्य की पीढ़ियों को जल संकट से बचाया जा सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरण मामलों के जानकार और ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के लेखक हैं)
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