क्या कथित समानता का छद्म विमर्श ऐसा हो सकता है कि वह अपने देश के ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में समान रूप से ख्यात एवं लोकप्रिय रचनाकार को ही विकृत कर दे? क्या किसी भी देश के सम्मानित रचनाकार की एक समय विशेष की रचना में वर्तमान समय के अनुसार एक विचारधारा के अनुसार संशोधन किया जा सकता है? यह सुनने में और समझने में अजीब लगता है और लग सकता है क्योंकि एक रचनाकार अपने समय के अनुसार रचना करता है, वह यह सोचकर कुछ नहीं लिखता कि कुछ सौ वर्षों के बाद परिवेश कैसा होगा और वह वैसे ही लिखे।
ब्रिटेन में स्ट्रैटफ़ोर्ड-ऑन-एवन में महान रचनाकार विलियम शेक्सपियर का जन्म हुआ था और वहीं पर उनकी स्मृति एवं उनके कार्यों को समर्पित म्यूजियम आदि हैं। मगर अब शेक्सपियर बर्थप्लेस ट्रस्ट अपने स्वामित्व की इमारतों को “डीकोलोनाइज़्ड” करने जा रहा है क्योंकि लोगों को डर है कि उनकी सफलता को यदि सबसे महान नाटककार के रूप में भुनाया जाएगा तो उससे “यह संदेश जाएगा कि यह श्वेत यूरोपियन श्रेष्ठता की विचारधारा का समर्थन करते हैं।“
हालांकि, यह बात सत्य है कि कुछ लोग ऐसे अतीत में रहे हैं, जिनके भीतर श्वेत नस्ल का होने के कारण श्रेष्ठता की भावना थी और जिन्होनें भारत के समृद्ध साहित्य की परंपरा का भी अपमान किया था। परंतु ऐसे व्यक्तियों में से कोई भी रचनाकार नहीं था। रचनाकारों की रचनाओं में कैसे किसी नस्ल की अभिजात्यता का बोध झलक सकता है, बशर्ते वह जानबूझकर दूसरी सभ्यता को नीचा न दिखाए और यदि ऐसा होता भी है कि किसी रचनाकार की रचना से किसी नस्ल के प्रति श्रेष्ठता का भाव परिलक्षित हो, तो उन रचनाओं की आलोचना की जाती है, रचनाओं या रचनाकार के जीवन के अनुभवों को अपने अनुसार तोड़ा-मरोड़ा नहीं जाता।
विलियम शेक्सपियर के बर्थप्लेस ट्रस्ट का यह मानना है कि वह और भी समावेशी म्यूजियम अनुभव का निर्माण करेगा और यह घोषणा की कि वह पश्चिमी दृष्टिकोण से अपने आप को हटाएगा। यह शिकायतें ट्रस्ट को मिली थीं कि शेक्सपियर के विचारों को “श्वेत श्रेष्ठता” के विचारों को फैलाने के लिए प्रयोग किया जा रहा है।
डेली मेल के अनुसार वर्ष 2022 में ट्रस्ट और बर्मिंगहम यूनिवर्सिटी की डॉ. हेलन हॉपकिंस के बीच हुई एक शोध परियोजना के दौरान इस विचार को गति मिली थी कि शेक्सपियर की ‘सार्वभौमिक’ प्रतिभा का विचार ‘श्वेत यूरोपीय वर्चस्व की विचारधारा को लाभ पहुंचाता है’।
अंग्रेजों के एक वर्ग ने जो षड्यन्त्र भारत के महान रचनाकारों के साथ करने का प्रयास किया, अब वही उनके साथ हो रहा है। जिन महान रचनाकारों ने भारत की महान संस्कृति और सभ्यता को अपने शब्दों में निरंतर लिखा, उन्हें विमर्श के स्तर पर विभाजनकारी बताया। पश्चिम के लोगों ने अपनी मान्यताओं के अनुसार भारत की सांस्कृतिक विरासत को ढालकर समझा और पढ़ा और ऐसा विमर्श बनाया जैसे कि भारतीयता का बोध कराने वाली तमाम रचनाएं दरअसल नस्लवादी हैं, उनमें ब्राह्मण आदि को लेकर श्रेष्ठता है।
अब वही खेल पश्चिम के सबसे महान नाटककार माने जाने वाले विलियम शेक्सपियर के साथ हो रहा है, जिनके नाटकों को लगभग पूरे विश्व में पढ़ाया जाता है और उनके मंचन भी किये जाते हैं। शेक्सपियर की बुद्धिमत्ता और मेधा को ही “श्वेत श्रेष्ठता” का टूल कहा जा रहा है। इसे लेकर सोशल मीडिया पर भी काफी हलचल है और लोग प्रश्न कर रहे हैं कि जिस व्यक्ति ने भाषा को आकार दिया, वह अपनी मेधा के कारण निशाने पर है।
🚨NEW: Shakespeare’s Birthplace Trust is “decolonising” the Bard—because his genius is apparently a tool of “white supremacy.”
Yes, really. The man who shaped the English language is now a problem because his greatness is too… British.
You couldn’t make it up. pic.twitter.com/Cc5W5O7jyl
— Darren Grimes (@darrengrimes_) March 16, 2025
यूरोपीय कल्चर को कला के क्षेत्र में श्रेष्ठ माना जाता है और उसकी श्रेष्ठता को “ब्रिटिश श्रेष्ठता” के रूप में देखा जाता है। अब इस परियोजना के अनुसार इस पूरे नैरेटिव ने नुकसान पहुंचाया है और ट्रस्ट को यह सलाह दी गई कि वह यह कहना बंद करें कि शेक्सपियर सबसे महान थे, बल्कि ये कहें कि वे वैश्विक स्तर पर ‘समान और भिन्न’ लेखकों के समुदाय का हिस्सा थे।
यही नहीं, लंदन थिएटर, जहां पर विलियम शेक्सपियर ने अपने नाटक लिखे थे, वहाँ पर भी इस विषय में सेमीनार आरंभ होने लगे हैं कि कैसे शेक्सपियर के महान नाटकों को डीकोलोनाइज़ किया जाए। विशेषज्ञों का यह मानना है कि शेक्सपियर के सभी नाटक इसलिए नस्लवादी हैं, क्योंकि उनमें “श्वेतता” है। इतना ही नहीं वर्ष 2021 में यह भी समाचार आए थे कि कैसे वोक अंग्रेजी टीचर्स शेक्सपियर को “श्वेत श्रेष्ठता, स्त्री द्वेष, नस्लवाद और वर्गवाद के कारण” अस्वीकार कर रहे हैं।
कई शिक्षक ऐसे थे, जिन्होनें यह कहा था कि समय आ गया है कि शेक्सपियर को पढ़ाना बंद किया जाए और नए, मॉडर्न और विविध आवाजों को सुना जाए। रोमियो और जुलीयट जैसे नाटक को “विषैले पुरुषत्व” जैसे विशेषणों से नवाजा जा रहा है। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि यदि आपके बच्चे शेक्सपियर नहीं पढ़ेंगे तो बेहतर होगा।
समावेशीकरण, समानता जैसी बातें होना और सुनना अच्छा लगता है, परंतु महान रचनाकारों को किसी समय विशेष पर प्रचलित विचारधारा के एजेंडे से देखना कहीं न कहीं साहित्य और रचनाकार दोनों के साथ अन्याय है। सोशल मीडिया पर एलन मस्क ने भी इस बात को लेकर हैरानी व्यक्त की है।
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