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जांचो, परखो, निकालो रोहिंग्या

घुसपैठ भारत के लिए बड़ी समस्या है। घुसपैठियों को देश से निकाला जाना चाहिए न कि उन्हें सुविधाएं दी जानी चाहिए

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आशीष राय

भारत में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों के बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराने को लेकर ‘रोहिंग्या ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव’ की याचिका पर गत 28 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि रोहिंग्याओं के बच्चे सरकारी स्कूलों में दाखिला ले सकते हैं। स्कूल के उन्हें दाखिला देने से मना करने पर वे उच्च न्यायालय से गुहार लगा सकते हैं। यह आदेश संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूनएनएचआसी) कार्ड रखने वाले रोहिंग्याओं के बच्चों के लिए है। इससे पहले 12 फरवरी को भी ऐसी ही एक याचिका पर शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि शिक्षा हासिल करने में किसी भी बच्चे के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

12 फरवरी को न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन कोटेश्वर सिंह की पीठ ने कहा था कि किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए। हालांकि, भारत में केवल भारतीय नागरिकों के 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है। इस याचिका में शिक्षा के अतिरिक्त रोहिंग्याओं को मुफ्त राशन योजना और स्वास्थ्य योजनाओं का लाभ भी देने का अनुरोध किया गया था। साथ ही, कहा गया था कि रोहिंग्या मुसलमानों के पास आधार कार्ड नहीं हैं, इसके कारण उन्हें सरकारी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। उनके पास यूनएनएचआसी कार्ड है, जिसे भारत मान्यता नहीं देता है।

योजनाएं भारत के लोगों के लिए

भारत में मुफ्त प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य योजनाओं का लाभ भारतीय नागरिकों को मिलता ही रहा है, इसके अतिरिक्त सरकार देश में समय-समय पर अन्य मुफ्त योजनाओं का लाभ भी अपने नागरिकों को उपलब्ध कराती रही है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने बढ़ती मुफ्त सरकारी योजनाओं पर चिंता जताते हुए कहा था कि राजनीतिक दलों द्वारा अंधाधुंध और असंतुलित तरीके से मुफ्त सुविधाएं देने से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

इस तरह की योजनाएं राज्यों की वित्तीय स्थिरता को नुकसान पहुंचा सकती हैं और सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ा सकती हैं। न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति आगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा था, ‘‘इन मुफ्त योजनाओं के कारण लोग काम करने के इच्छुक नहीं हैं। उन्हें बिना काम किए मुफ्त राशन और धनराशि मिल रही है।’’ न्यायालय ने यह भी सुझाव दिया था कि सरकार को इन लोगों को मुख्यधारा में शामिल कर राष्ट्र के विकास में उनका योगदान सुनिश्चित करना चाहिए।

भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति को देखते हुए न्यायालय की यह टिप्पणी उचित भी लगती है। दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोहिंग्या घुसपैठियों के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, मुफ्त स्वास्थ्य सेवा व मुफ्त राशन की बात मानवीय आधार पर तो ठीक लग सकती है, परंतु व्यावहारिक रूप से उचित नहीं लगती। आज रोहिंग्याओं के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, मुफ्त स्वास्थ्य सेवा व मुफ्त राशन मिलेगा, कल वे बड़े होकर अपने लिए नौकरी, आवास और नागरिकता मांगेंगे। रोहिंग्याओं के बच्चों की मुफ्त शिक्षा को लेकर न्यायालय की टिप्पणी ने देश में एक विमर्श खड़ा कर दिया है कि आखिर इस देश के संसाधनों पर अधिकार किसका है? देश के संसाधनों पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विवादित बयान ने पहले भी बवाल काटा था।

अब संसाधनों पर ताजा विमर्श इसलिए भी खड़ा हुआ है, क्योंकि एक तरफ तो सरकारों द्वारा अपने ही पात्र नागरिकों को मुफ्त सुविधाएं देने से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव की चर्चा की जा रही है, वहीं घुसपैठियों के निर्वासन की जगह उन्हें मुफ्त सुविधाएं दिलाए जाने की बात हो रही है। मजेदार बात यह है कि जिन रोहिंग्याओं की बात याचिका में की गई है उन्हें भारत सरकार कई बार घुसपैठिए बता चुकी है और उन्हें देश से बाहर निकालने की नीति पर काम भी कर रही है। सरकार का कहना है कि रोहिंग्या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हो सकते हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शरणार्थियों को लेकर समस्या बनी हुई है। 14 दिसंबर, 1950 को जिनेवा (स्विट्जरलैंड) में यूएनएचसीआर की स्थापना कर शरणार्थियों की मदद करने का निर्णय हुआ और भारत से भी इस पर हस्ताक्षर करने को कहा गया। लेकिन भारत ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। आज भी भारत इसका सदस्य नहीं है, क्योंकि पड़ोसी देशों से घुसपैठ की संभावनाएं बनी रहती हैं जो सुरक्षा की दृष्टि से भी बेहद खतरनाक हैं। इसलिए घुसपैठियों और शरणार्थियों के बीच अंतर को समझना जरूरी है।

घुसपैठ बनी समस्या

पूर्ववर्ती सरकारों की तुष्टीकरण नीतियों के कारण सीमावर्ती राज्यों, खासकर असम और पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से घुसपैठ एक गंभीर, पुरानी और सतत समस्या है। घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए 1979 में आल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने आंदोलन शुरू किया था। स्थानीय लोगों को यह डर था कि बांग्लादेशी घुसपैठिए उनकी संस्कृति, भाषा व संसाधनों पर कब्जा कर लेंगे। आंदोलन के दौरान विरोध, हड़ताल और हिंसा भी खूब हुई। इसमें 1983 का नेल्ली नरसंहार जैसी घटनाएं भी शामिल हैं, जिसमें 2000 से अधिक लोग मारे गए थे। आंदोलन के कारण तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को असम में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा था। 1985 में राजीव गांधी सरकार ने आंदोलनकारियों के साथ समझौता कर लिया। असम समझौते का मुख्य उद्देश्य बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान करना और उन्हें बाहर निकालना था। समझौते के मुख्य प्रावधानों में यह जोड़ा गया कि 1 जनवरी, 1966 से पहले आए लोग भारतीय नागरिक माने जाएंगे।

1 जनवरी, 1966 से 24 मार्च 1971 के बीच आए लोग पंजीकरण के बाद 10 साल तक नागरिकता से वंचित रहेंगे। 24 मार्च, 1971 के बाद आए लोग अवैध प्रवासी माने जाएंगे और उन्हें बाहर निकाला जाएगा। सरकार को अवैध घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें देश से बाहर निकालने की जिम्मेदारी दी गई। असम में रह रहे नागरिकों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए एनआरसी को अपडेट किया जाना था। 2019 में एनआरसी अपडेट किया गया। इसमें 19 लाख से अधिक लोगों को अवैध घोषित किया गया।

एक आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक, 31 जनवरी, 2022 तक भारत में 46,000 से अधिक शरणार्थी और शरण चाहने वाले यूएनएचसीआर के तहत पंजीकृत थे। इनमें से अधिकांश म्यांमार और अफगानिस्तान से आए हुए हैं। यूएनएचसीआर का शरणार्थी कार्ड पहचान के लिए सहायक हो सकता है, लेकिन भारतीय कानून के तहत यह वैध निवास का प्रमाण नहीं माना जाता। इन आंकड़ों के अतिरिक्त छद्म नामों से होने वाली अनगनित घुसपैठों ने भारत की नींद उड़ा रखी है।

रोहिंग्याओं के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, सभी को मुफ्त राशन व मुफ्त स्वास्थ्य सेवा की वकालत करने वाली याचिकाएं घुसपैठियों को पीड़ित शरणार्थी में बदलने का एक कुत्सित राजनैतिक षड्यंत्र लगती हैं। अनुच्छेद 21अ (शिक्षा का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का विस्तार विदेशी शरणार्थियों के लिए हो सकता है, लेकिन वह भी सरकार की नीतियों पर निर्भर करता है।

घुसपैठियों को इसका लाभ नहीं दिया जा सकता। सोशल ज्यूरिस्ट सिविल राइट्स ग्रुप द्वारा दिल्ली के स्कूलों में रोहिंग्या बच्चों के प्रवेश की मांग को लेकर शीर्ष अदालत में दाखिल एक अन्य याचिका पर न्यायालय ने सुझाव दिया कि बच्चों को पहले संबंधित सरकारी स्कूलों में प्रवेश के लिए आवेदन करना चाहिए। यदि पात्रता के बावजूद उन्हें प्रवेश से वंचित किया जाता है, तो वे दिल्ली उच्च न्यायालय में राहत के लिए अपील कर सकते हैं।

पात्रता का सवाल ही तो महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये रोहिंग्या शरणार्थी नहीं, घुसपैठिए हैं और भारत में गैर मान्यताप्राप्त यूएनएचआरसी के शरणार्थी कार्ड के बहाने अवैध को वैध बनाने की साजिश में कथित लिबरल इकोसिस्टम लगा हुआ है। न्यायालय ने रोहिंग्या ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव द्वारा दाखिल याचिका में भी याचिकाकर्ता से भी रोहिंग्याओं के निवास को लेकर शपथपत्र दाखिल करने को कहा है।

रोहिंग्या छद्म नामों से इस देश में रह रहे हैं और उनकी पहचान कठिन हो रही है। अपराध करने के बाद पकड़े जाने पर इनका खुलासा होता है। घरों में हिंदू नामों से काम करते हुए कितनी बार इन्हें पकड़ा गया है। यदि कोई व्यक्ति अवैध रूप से भारत में प्रवेश करता है या बिना वैध दस्तावेजों के रहता है, तो उसके खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई की जा सकती है, जिसमें जेल और जुर्माना दोनों शामिल हैं। चिंता की बात यह है कि रोहिंग्याओं के बच्चों को स्कूलों में प्रवेश, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त राशन, मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं मिलते ही असम जैसी समस्या पूरे देश में फैल जाएगी। बच्चों की शिक्षा के बाद रहने की जगह, फिर रोजगार, फिर हर चीज में हिस्सेदारी। यह बात तो समझनी ही पड़ेगी कि रोहिंग्या अवैध रूप से भारत आए हैं और यहां की अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे पर अनुचित दबाव डाल रहे हैं। उनके कारण भारत में सुरक्षा संबंधी खतरे भी पैदा हो रहे हैं।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और इस तंत्र के लोक का मानना रहा है कि सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी अपने नागरिकों की सुरक्षा और कल्याण को सुनिश्चित करना है। भारत एक विकासशील देश है, जहां संसाधन सीमित हैं और उन्हें भारतीयों के हित में ही उपयोग किया जाना चाहिए। भारत में गरीबी, बेरोजगारी और संसाधनों की कमी जैसी समस्याएं पहले से ही हैं और यदि घुसपैठियों को भी ये सुविधाएं दी जाएंगी तो इसका सीधा नुकसान भारतीय नागरिकों को ही होगा। जहां तक वैध शरणार्थियों की बात है, भारत ने हमेशा उनके प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया है।

1971 में जब बांग्लादेश का गठन हुआ, तब भारत ने लाखों बांग्लादेशी शरणार्थियों को शरण दी थी। दलाई लामा और तिब्बती शरणार्थियों को भारत ने दशकों से रहने दिया है। श्रीलंका से भागकर आए तमिल शरणार्थियों को भी भारत ने शरण दी है। सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम में भी यही किया है, जिसमें हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है।

वर्तमान में अपने नागरिकों के दबाव में कई विकसित देश तो अवैध घुसपैठियों के साथ-साथ ‘शरणार्थियों’ के प्रति भी सख्त नीतियां अपनाए हुए हैं और उनके निर्वासन की प्रक्रिया भी तेज कर दी है। साधन संपन्न विकसित देश अमेरिका इसका उदहारण है, जहां से अवैध प्रवासियों के निर्वासन से भारत भी प्रभावित हुआ है।

विदेशी अधिनियम- 1946, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम- 1920 और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए)- 2019 के प्रावधानों का उपयोग करते हुए पूरे भारत में रह रहे रोहिंग्या घुसपैठियों की सटीक पहचान के लिए बायोमेट्रिक डेटा एकत्र करके स्थानीय प्रशासन और पुलिस को निर्देश दिए जा सकते हैं कि वे अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्याओं की सूची बनाएं, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही निर्वासन प्रक्रिया से तालमेल बैठाते हुए इन घुसपैठियों के निर्वासन की प्रक्रिया को तेज किया जा सके। अन्यथा आने वाले समय में ये घुसपैठिए देश की संप्रभुता के लिए खतरा बन सकते हैं। प्रस्तुति : आशीष राय

सरकार का रुख

भारत में घुसपैठियों के खिलाफ समय-समय पर कार्रवाई की जाती रही है, जो अभी भी जारी है। उदाहरण के लिए, 2020 में सरकार ने संसद में बताया था कि तीन वर्ष में लगभग 4,000 बांग्लादेशी नागरिकों को पकड़ा गया, जिनमें से कुछ को वापस भेजा गया। इसी वर्ष दिल्ली पुलिस ने 58 से अधिक बांग्लादेशियों को निर्वासित किया है और 8 को गिरफ्तार किया है। महाराष्ट्र में मुंबई पुलिस ने बीते 3 वर्ष में लगभग 696 बांग्लादेशी घुसपैठियों को गिरफ्तार किया है, लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में देरी के कारण केवल 222 को निर्वासित किया जा सका है।

हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में कानून-व्यवस्था को लेकर समीक्षा बैठक में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों को देश में घुसने, उनके दस्तावेज बनवाने और रहने में मदद करने वाले पूरे नेटवर्क के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने को कहा है। इससे पहले पिछले वर्ष रोहिंग्या घुसपैठियों से जुड़े मामले में सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने कहा था, ‘हमें अपने नागरिकों को प्राथमिकता देने की जरूरत है।’ सरकार ने कहा था कि भारत में अवैध रूप से दाखिल हुए रोहिंग्याओं को देश में रहने की अनुमति देना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक हो सकता है।

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