महाराष्ट्र

भाषाएं हमारी साझी विरासत

98वें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा- भाषा के नाम पर भेद डालने की कोशिश को भाषाओं की साझी विरासत ही उचित जवाब देती है। भाषाओं को समृद्ध करना सबका सामूहिक दायित्व

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वैभव डांगे

साहित्य को समाज का प्रतिबिंब कहा जाता है, क्योंकि इसमें समाज को बदलने की शक्ति होती है। अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन ऐसा ही एक मंच है, जो 100 वर्ष से मराठी भाषा को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

मराठी साहित्य की बहुत पुरानी परंपरा है। संत ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी और पसायदान कृति ने समाज में विश्व कल्याण की सोच विकसित की तो संत नामदेव की कृति अभंग ने सामाजिक समरसता का ऐसा स्रोत दिया, जिसे गुरु गोविंद सिंह की गुरुवाणी में स्थान मिला। भक्ति आंदोलन हो या स्वतंत्रता आंदोलन, सभी कालखंड में मराठी साहित्य का योगदान रहा। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से लेकर स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर तक के काल पर दृष्टि डालें तो सृजनकारी समाज के निर्माण की नई तस्वीर उभरकर सामने आती है। हालिया कालखंड में कवि कुसुमाग्रज, आचार्य प्रल्हाद केशव अत्रे और पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे, तक साहित्य की समृद्धशाली परंपरा रही है।

मराठी सहित सभी क्षेत्रीय भाषाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण सदैव से स्पष्ट रहा है। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर का मत था कि हमारी संस्कृति हजारों वर्ष तक अनेक झंझावात झेलने के बावजूद इसलिए अखंड बनी रही, क्योंकि हमने स्वत्व को अभिव्यक्त करने वाली भाषाओं को कभी नहीं छोड़ा। भाषाओं की तुलना पुष्पों से करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘हमारी सभी भाषाएं और उपभाषाएं खिले हुए पुष्पों के समान हैं, जिनसे हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की सुरभि प्रवाहित होती है।’’ उन्होंने भाषाओं की तुलना इंद्रधनुष के विविध रंगों तथा उनकी आंतरिक एकता को इंद्रधनुष के परिधानों को जन्म देने वाली सूर्य की किरण के समान बताया था।

महाराष्ट्र में सामाजिक नवनिर्माण में साहित्य सम्मेलन हमेशा से प्रभावी रहा है। दिल्ली में इस वर्ष अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के आयोजन के पीछे बड़ा कारण था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 3 अक्तूबर, 2024 को मराठी को अभिजात भाषा का दर्जा दिया जाना। प्रधानमंत्री मोदी ने मराठियों दशकों पुरानी मांग पूरी की। कार्यक्रम में संघ की 100 वर्ष की यात्रा का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र की धरती पर एक मराठी भाषी महापुरुष ने 100 वर्ष पहले रा.स्व.संघ का जो बीज बोया था, वह वटवृक्ष के रूप में अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। अपनी यात्रा में संघ ने सांस्कृतिक प्रयासों से वेदों से लेकर विवेकानंद तक, भारत की महान परंपरा और संस्कृति को नई पीढ़ी तक पहुंचाया है।

भाषा को लेकर चल रहे भेदभाव पर उन्होंने कहा कि कई बार जब भाषा के नाम पर भेद डालने की कोशिश की जाती है, तो हमारी भाषाओं की साझी विरासत ही उसका सही जवाब देती है। इन भ्रमों से दूर रहकर भाषाओं को समृद्ध करना, उन्हें अपनाना, यह हम सबका सामूहिक दायित्व है। इसलिए आज हम देश की सभी भाषाओं को मुख्यधारा भाषा के रूप में देख रहे हैं। हम मराठी समेत सभी प्रमुख भाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं। अंग्रेजी न जानने के कारण प्रतिभाओं की उपेक्षा करने वाली सोच को हमने बदल दिया है।

प्रधानमंत्री ने जिस दुष्प्रभाव की ओर संकेत किया, उसका कारण है महाराष्ट्र के प्रगतिशील होने के बाद भी साहित्य सम्मेलनों का वैचारिक अस्पृश्यता से अछूता नहीं होना। वीर सावरकर से लेकर रमेश पतंगे तक सबको इसका दंश झेलना पड़ा। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया कि समाज को प्रगतिशील बनाना है तो साहित्यकारों और साहित्य सम्मेलनों को वैचारिक अस्पृश्यता समाप्त करना होगा। इस दिशा में साहित्य सम्मेलन अग्रणी भूमिका तभी निभा सकते हैं, जब वे विविध विचारों को चर्चा के केंद्र में लाने की पहल करेंगे।

मतभिन्नता के साथ चलने पर समाज और राष्ट्र प्रगति नहीं कर पाएगा। अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्ष डॉ. तारा भावलकर ने भी समाज को एकसूत्र में पिरोने, उसे समृद्धशाली बनाने में बोली और मातृभाषा के योगदान का उल्लेख किया। जिस तरह से नई तकनीक और कृत्रिम बौद्धिकता का प्रभाव बढ़ रहा है, उससे समाज और साहित्य सम्मेलनों के सामने भाषाओं को मूल स्वरूप में रखने और उनका विकास करने में कई चुनौतियां हैं। स्थानीय बोली को बढ़ावा देकर और मातृभाषा को अपना कर ही इससे निपटा जा सकता है।

100 वर्ष की यात्रा में मराठी साहित्य सम्मेलन में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन मराठी समाज चट्टान की तरह इसके पीछे खड़ा रहा है। इससे उम्मीद जागी है कि इस तरह के आयोजन में होने वाला विमर्श नई पीढ़ी की दिशा तय करने में अभिभावक की भूमिका निभाएगा।
(लेखक दिल्ली मराठी प्रतिष्ठान के संरक्षक हैं)

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