प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2047 तक भारत को विकसित बनाने का संकल्प लिया है। लेकिन उन्होंने विकास के जिस मॉडल की कल्पना की है, वह पश्चिमी देशों की ‘विकसित’ अवधारणा से अलग है। इसमें भारतीय संस्कृति और ज्ञान परंपरा भी शामिल है। भौतिक, तकनीकी और वैज्ञानिक विकास के साथ उनका जोर समृद्ध विरासत पर भी उतना ही है। यह विरासत है संस्कारों और जीवन मूल्यों की, उदात्त भावों की और सामाजिक-सांस्कृतिक सातत्य की, जो भारतीय सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को हजारों वर्ष के आक्रमणों और गुलामी के बावजूद सुरक्षित रखे हुए है। यानी विकसित भारत समृद्धि के साथ संस्कार से भी युक्त हो।
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दिल्ली विश्वविद्यालय में वैल्यू एडीशन कोर्स कमेटी के अध्यक्ष और डीन (प्लानिंग)
जिस तरह की संस्कारहीनता और मूल्यहीनता की ओर भारतीय समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी बढ़ रही है, वह खतरे की घंटी है। इसका ताजा उदाहरण है यूट्यूब चैनेल पर ‘इंडियाज गॉट लैटेंट’ शो में की गई अश्लील और फूहड़ टिप्पणी, जो प्रकारांतर से परिवार व्यवस्था को चुनौती देती दिखाई पड़ रही है। कथित सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर और पॉडकास्टर रणवीर इलाहाबादिया का इस शो में ‘माता-पिता के अंतरंग जीवन’ पर अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणी तथा शो के मेजबान समय रैना और एक अन्य प्रतिभागी अपूर्वा मखीजा के बीच का अभद्र संवाद शिष्टाचार और नैतिकता की सभी सीमाओं को तार-तार करने वाला है। इस पर फेसबुक, एक्स सहित अन्य सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा मीडिया में बवंडर मचा हुआ है। युवाओं की सोच को लेकर सवाल उठ खड़े हुए हैं कि क्या आधुनिकता के नाम पर मूल्यों को तिलांजलि दी जा रही है? अपनी शर्मनाक टिप्पणी से निशाने पर आए यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया ने भले ही माफी मांग ली हो, लेकिन केवल इससे ही मामला खत्म नहीं हो जाता। मुद्दा नैतिकता, भारतीय संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था और संवैधानिकता से भी जुड़ा हुआ है।
समाजशास्त्री दुर्खीम के शब्दों के कहें तो इस मामले ने समूचे देश की ‘सामूहिक चेतना’ को झकझोर कर रख दिया है। इस पूरे विवाद ने आनलाइन कंटेंट की सीमाओं और जिम्मेदारियों को लेकर एक महत्वपूर्ण चर्चा को जन्म दिया है, जिसके विभिन्न सांस्कृतिक, नैतिक और संवैधानिक आयाम तो हैं ही, परिवार-सामाजिक व्यवस्था का प्रश्न भी इससे जुड़ा हुआ है। पहला तो यह कि आर्थिक लाभ के लिए सोशल मीडिया या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर फॉलोअर या दर्शकों की संख्या बढ़ाकर अश्लीलता, आपत्तिजनक और हिंसक सामग्री को बेचे जा रहे हैं। इसके लिए लोग किसी भी हद को तोड़ने के लिए तैयार हैं। फेसबुक और इंस्टाग्राम पर ऐसी फूहड़ और अश्लील सामग्रियों की भरमार है, जो किशोरों और युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं।
पूरे प्रकरण का एक पहलू यह भी है कि अधिकांश सामग्रियां पश्चिमी समाज और संस्कृति की नकल या उनसे उधार लेकर परोसी जा रही हैं। ‘इंडियाज गॉट लैटेंट’ का विवादित शो इसका ताजा उदाहरण है। इसमें जो सवाल उठाया गया है, ठीक वही प्रश्न एक अंतरराष्ट्रीय शो में एक आस्ट्रेलियाई कॉमेडियन ने पूछा था। रणवीर ने हू-ब-हू उसकी नकल की है। बताने की आवश्यकता नहीं कि पश्चिमी समाज-संस्कृति भारतीय मूल्य-परंपरा से अलग वैयक्तिकतापरक समाज है, जो परिवार, नैतिकता और मर्यादा के बंधनों को उतना नहीं मानता, जितना भारत के लोग मानते हैं।
पश्चिम में भोग और भौतिकता सर्वोपरि है। प्रश्न है कि क्या हम इसी तरह के भारत के निर्माण की परिकल्पना करते हैं? लगभग पूरा देश रणवीर इलाहाबादिया की निंदा कर रहा है, लेकिन पश्चिमी संस्कृति व मानसिकता से पोषित मैकाले के मानसपुत्र, तथाकथित उदारवादी, वोक और मार्क्सवादी कहलाने वाले कथित बुद्धिजीवी मामले की लीपापोती करने का प्रयास कर रहे हैं। इनमें से कोई भी न तो कड़ा विरोध कर रहा है और न ही निंदा, बल्कि रणवीर के खिलाफ हो रही कार्रवाई पर ये लोग ‘डार्क ह्यूमर’ की विधा से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक की चर्चा कर रहे हैं। आक्रोशित वर्ग सेंसर की बात कर रहा है, जबकि ऐसे लोग स्व-नियमन (सेल्फ-रेगुलेशन) का सुझाव दे रहे हैं। लेकिन सामाजिक दवाब इतना अधिक है कि लाचारी में उन्हें भी कहना पड़ रहा है कि ‘रणवीर की टिप्पणी सही नहीं थी’ या ‘यह हास्यपरक नहीं थी’ इत्यादि। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का कदम स्वागत योग्य है।
दरअसल, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अश्लीलता, विकृति या अपसंस्कृति को सामान्य या ‘कूल’ कहने के प्रयास लंबे समय से हो रहे हैं। दुर्भाग्य से किशोर और युवा पीढ़ी धीरे-धीरे इनके जाल में फंसती जा रही है। यह अनायास नहीं कि ऐसे खतरनाक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसरों के फॉलोअर्स लाखों-करोड़ों की संख्या पार कर रहे हैं। लेकिन इनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं है। इस घृणित टिप्पणी पर उन्हें जोरदार तालियाँ मिलना चिंता की बात है। इससे भी बड़ी चिंता यह है कि माता-पिता के प्रति जो सम्मान-सेवा का भाव होता है, भाई-बहन का जो प्रेम होता है या परिवार में एक सौहार्द और उदात्त वातावारण होता है, उसे ऐसी सामग्री और कथ्य ध्वस्त कर रहे हैं। परिवार व्यवस्था, जो भारतीय समाज-संस्कृति की आधारशिला और सबसे बड़ी शक्ति रही है, उस पर आज अनजाने या जानबूझकर एक षड्यंत्र के तहत चोट हो रही है। समय आ गया है कि डिजिटल माध्यमों से परोसी जा रही सामग्री की कड़ी निगरानी की जाए। इसके लिए सीमाएं तय करनी ही होंगी।
इस मामले में जो लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का धूर्ततापूर्ण सवाल उठा रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत ‘शिष्टाचार या नैतिकता’ के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। यह प्रतिबंध मुख्य रूप से अश्लीलता, अनैतिकता और सामाजिक मर्यादा से जुड़े मामले में लागू होते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने रंजन द्विवेदी बनाम भारतसंघ वाद (2017) में कहा भी है कि अश्लीलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में संतुलन जरूरी है। सार्वजनिक शालीनता को ठेस पहुंचाने वाली सामग्री पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। यह पाबंदी फिल्म, साहित्य, कला और सोशल मीडिया पर भी लागू होती है।
सर्वोच्च न्यायालय लगातार कहता रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक तो है, लेकिन इसका दुरुपयोग नफरत फैलाने वाले भाषण, मानहानि, अश्लीलता या सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। शीर्ष न्यायालय ने रणवीर इलाहाबादिया के खिलाफ मामले की सुनवाई के दौरान भी स्पष्ट किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि किसी को भी अश्लीलता या ऐसी सामग्री को बढ़ावा देने की असीमित छूट मिल जाए, जो समाज के नैतिक मूल्यों को गिराने का काम करे।
न्यायालय ने जोर देकर कहा है कि आनलाइन सामग्री पर तत्काल कड़े नियम लागू करने की आवश्यकता है, ताकि ऐसी सामग्रियों के प्रसार को रोका सके, जो भारतीय संस्कृति, सामाजिक समरसता और संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करती हैं। भारत का संवैधानिक ढांचा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है, लेकिन इसे सार्वजनिक शालीनता और नैतिकता के साथ संतुलित रखना आवश्यक है। साथ ही, न्यायालय ने चेताया कि यदि इस प्रकार की घटनाओं को अनियंत्रित छोड़ा गया तो यह एक खतरनाक उदाहरण स्थापित करेगा और नैतिक व सामाजिक मूल्यों के पतन को और प्रोत्साहित करेगा।
निसंदेह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग नैतिक पतन और सांस्कृतिक गिरावट को सही ठहराने या उसका कुप्रचार करने के लिए नहीं किया जा सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर संस्कारहीनता, मूल्यहीनता और अपसंस्कृति की छूट नहीं दी जा सकती। पारिवारिक संबंधों, परिवार की मर्यादा और सामाजिक स्थायित्व को बनाए रखना भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए तो जरूी है ही, एक सच्चे और संस्कारयुक्त विकसित भारत के निर्माण के लिए भी अनिवार्य है।
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