गुजरात विश्वविद्यालय की कुलपति डॉ. नीरजा गुप्ता
गुजरात विश्वविद्यालय की कुलपति डॉ. नीरजा गुप्ता ने अहमदाबाद, गुजरात में आयोजित पॉञ्चजन्य के साबरमती संवाद-3, प्रगति की कहानी में सफलता का समीकरण पर बात की। सत्र में चर्चा के दौरान उन्होंने कई प्रश्नों के जवाब दिये। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश…
सवाल- सफलता का मंत्र क्या है? क्या सफलता केवल परीक्षा में प्राप्त अंकों से निर्धारित होती है? क्या सफलता सिर्फ एक संस्थान से बड़ी डिग्री प्राप्त करने से ही समाप्त हो जाती है? अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के बाद व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास के लिए किस प्रकार की शिक्षा महत्वपूर्ण है तथा शिक्षा के वे कौन से पहलू हैं जो सफलता के समीकरण के लिए व्यक्तित्व विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं?
जवाब- एक समय था जब हम सफलता को इस तरह से गिनते थे कि 1,2,3,4,5, यानि 1 डिग्री, दो बच्चे, तीन कमरों का घर, चार पहिया वाहन और पांच जीरो की सैलरी और शायद शिक्षा को इसलिए लिया जाता था क्योंकि अंत में जो इसे प्राप्त कर लेता था, उसे ही सफल मान लिया जाता था। लेकिन अगर सफलता इतनी ही थी तो इतने डिप्रेशन के मामले, इतनी निराशा, इतनी लड़ाई, इतना भ्रम, समाज में नैतिकता की कमी, ये सब क्यों आ रहा था? ऋग्वेद में एक छोटा सा सूत्र है जो हमें बताता है कि एक शिष्य को क्या चाहिए? यत्ते अग्ने तेजस्तेनाहं तेजस्वी भूयासम् ।। सबसे पहले वह इस बात पर सहमत होता है कि मुझे आपकी अग्नि और आपकी ऊर्जा से तेजस्वी बनने का आशीर्वाद दीजिए। फिर कहता है – यत्ते अग्ने वर्चस्तेनाहं वर्चस्वी भूयासम् । फिर उस तेज से मुझे प्रभुत्व करने की शक्ति दीजिए ताकि मैं दूसरों पर या अपने क्षेत्र पर प्रभुत्व कर सकूं, प्रभुत्वशाली बन सकूं और तीसरे सूक्त में वे कहते हैं, यत्ते अग्ने हरस्तेनाहं हरस्वी भूयासम् । यह बहुत ही दिलचस्प है। वो कहता है, “मैं अग्नि की तरह कचरा जलाने वाला बनना चाहता हूँ। आज हम संधारणीयता, पुनर्चक्रण, पुनःउपयोग की बात करते हैं और हमारे यहाँ जो तीन अवधारणाएँ हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी हैं।” जो महेश है वो भी डिस्ट्रॉयर है, उसकी भी पूजा है। इसका मतलब है कि हमें कचरा जलाना होगा, हमें फिर से सीखना होगा, एक तरह से हम इस भावना के साथ आगे बढ़ेंगे कि जिस चीज की हमें जरूरत नहीं है, उसका ध्यान रखा जाएगा। शिक्षा एकतरफा नहीं हो सकती। सफल होने के लिए समग्र शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है।
प्रश्न- आपने ऋग्वेद की बात की, तब शिक्षा का एक स्वरूप हुआ करता था, आज शिक्षा का स्वरूप कितना बदल गया है?
उत्तर- आप यह कह रहे हैं कि विश्वविद्यालय में वर्तमान माहौल यह है कि हम उद्योग की भी तलाश कर रहे हैं? ऐसा कौन सा उद्योग है जो शिक्षा के साथ जुड़कर इन विद्यार्थियों को प्रशिक्षित कर सकता है, उन्हें पढ़ाई के दौरान प्रशिक्षु बना सकता है, और पढ़ाई के दौरान अप्रेंटिसशिप प्रदान कर सकता है। ताकि वह सिर्फ किताबी शिक्षा तक ही सीमित न रहे, बल्कि उसे व्यावहारिक शिक्षा भी मिले। ये एक नया बदलाव है। जब हम शिक्षा की बात करते हैं, तो जब विद्यार्थी पढ़ाई करता है, तो वह किताबी ज्ञान देता है, किताबें पढ़ता है। इसमें एक विकास कौशल यह भी है कि आप स्वयं को किस प्रकार विकसित कर रहे हैं। व्यावहारिक ज्ञान के साथ-साथ क्या गुजरात विश्वविद्यालय में ऐसे नवाचारों या कौशल विकास के लिए कोई प्रयास किए जाते हैं, ताकि जब विद्यार्थी बाहर निकलें और बाहरी दुनिया में कदम रखें, तो वे एक प्रकार से तैयार हों।
हमारे पास एक पूरी तरह से अलग वर्टिकल है जिसे हम इस कंपनी का स्टार्टअप और इनोवेशन सेक्शन कहते हैं। स्टार्टअप एक नया शब्द है, हम सोचते हैं कि स्टार्टअप का मतलब है कि बच्चा अकेला है वह अपना विचार लेकर आता है, उसे समिति के सामने रखता है। समिति उसे मंजूरी देती है, उसका अनुदान स्वीकृत होता है और फिर उसे अपनी सफलता स्वयं साबित करनी होती है। गुजरात एक उद्यमी समाज है और यह आज से नहीं है। यह ऐतिहासिक समय से है। यहां स्टार्टअप मॉडलों की भरमार है। यहां एक बच्चा 10वीं या 12वीं कक्षा में पढ़ते हुए ही स्टार्टअप शुरू कर देता है, यानी उसकी मां उसे अपनी बचत से कुछ पैसे देती है। उसके पिता पंखा लगाते हैं, उसके चाचा कालीन बिछाते हैं, उसके दोस्त आते हैं और जब वह बाहर खाना खाने जाता है तो उसे अपनी दुकान संभालनी पड़ती है। ये एक कम्यूनिटी मॉडल है स्टार्टअप। इसलिए हमें स्टार्ट-अप को सिर्फ़ पश्चिमी नज़रिए से नहीं देखना चाहिए। हम क्यों कह रहे हैं कि हमारे समाज में स्टार्ट-अप सफल हो रहे हैं, इसका कारण यह है कि इसके साथ एक भावनात्मक जुड़ाव है और हम पश्चिम के स्टार्ट-अप का उदाहरण ले रहे हैं। वे इसे बिना किसी मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक समर्थन के ले रहे हैं। इसीलिए इसमें जोखिम है। यही कारण है कि वे लंबे समय तक अकेले स्टार्टअप को आगे नहीं बढ़ा पाते हैं, क्योंकि बच्चा ही सब कुछ अपने ऊपर ले लेता है। हम ऐसे स्टार्टअप्स की जिम्मेदारीपूर्वक निगरानी भी कर रहे हैं। हम ऐसे पारिवारिक स्टार्टअप्स को वित्तपोषित कर रहे हैं जो इस तरह के समुदायों से आ रहे हैं।
उदाहरण- एक छोटी सी बच्ची थी बीए में पढ़ती थी रोज़ आके हमको कहती थी, आज यह डे है। आज वह डे है। आज उनकी चायपानी डॉट कॉम नाम से इतनी बड़ी वेबसाइट है कि वे इस पर कारोबार कर रही हैं। हर दिन एक मोरल स्टोरी उसमें बड़ी सुंदर ढंग से पोस्ट करती है। एक और लड़की है, उसने महसूस किया कि बच्चों के जन्मदिन होते हैं, थीम पार्टी होती है, शादियाँ होती हैं, लड़कियाँ होती हैं, वे घर पर साड़ी पहनना चाहती हैं लेकिन उन्हें पता नहीं होता कि साड़ी कैसे पहनें। उन्होंने साड़ी पहनने का स्टार्टअप शुरू किया और यह इतना अच्छा चला कि यह जरूरी नहीं है कि कोई हाई-फाई आइडिया ही आएगा, यह जरूरी नहीं है कि कोई तकनीकी आइडिया ही आएगा। भले ही हम टेक्नोक्रेट न हों, लेकिन समाज की आवश्यकताएं बहुत सामान्य, बहुत साधारण हैं। हम लोग अपने इस में ऐसे भी आइडियास को इन्वैट करते हैं और उनको हम फंडिंग करते हैं।
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