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अकेली कम्युनिस्ट पार्टी पूरा चीन नहीं है!

विडंबना यह है कि चीन की वामपंथी सरकार के लिए इस देश का भरोसा जीतने और उसे तोड़ने का जो उपक्रम पहले नेहरू ने किया, राहुल गांधी भी वही करते दिखते हैं

by हितेश शंकर
Feb 23, 2025, 10:40 am IST
in सम्पादकीय
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चीनी नेतृत्व के साथ भारत को कैसे चलना चाहिए, इसे समझने में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बुरी तरह असफल रहे थे। या कहिए कि भारत की विदेश नीति के केंद्र में एक बड़ी भूल थी-चीन के प्रति नेहरू का काल्पनिक रूमानी दृष्टिकोण। उन्होंने मान लिया था कि चीन भारत का एक स्वाभाविक मित्र होगा और ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा देकर पूरे राष्ट्र को उसी सपने में जीने को मजबूर कर दिया। हद यह कि सरदार पटेल के बार-बार चेताने के बावजूद उनकी आंखें नहीं खुलीं। सरदार पटेल ने 1950 में तिब्बत पर ड्रेगन के कब्जे के बाद ही आगाह किया था कि पड़ोसी की नीयत ठीक नहीं, लेकिन नेहरू ने इसकी अनदेखी की। इसके बाद जो हुआ, वह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा धोखा था। विडंबना यह है कि नेहरू की वंश परंपरा के वर्तमान झंडाबरदार इतिहास राष्ट्रीय आग्रह से आंखें मूंद आज फिर चीन की चापलूसी कर रहे हैं।

हितेश शंकर

सच समझना हो तो इतिहासकार नेविल मैक्सवेल की पुस्तक ‘इंडियाज चाइना वॉर’ के पन्ने पलटिये। इसमें आरंभिक तथ्यों से ही नेहरू की नीतियों का मुलम्मा उतर जाता है। चीन के साथ संबंधों को लेकर जो लापरवाही नेहरू ने बरती, उस नरमी की वकालत देश की सबसे बड़ी चौपाल, इस देश की संसद में क्यों हो? और राष्ट्र के रूप में भारत भला क्यों उन व्यक्तिगत गलतियों को ढोता रहे?

नेहरू की सबसे बड़ी चूक थी चीन की सभ्यता, समाज और ऐतिहासिक विरासत के गुणों को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के फ्रेम में फिट करने की रूमानी जिद। उन्होंने सोचा कि वामपंथी नेतृत्व भी उतना ही गम्भीर, सभ्य और सुहृदय होगा, जितनी चीन की पुरानी संस्कृति रही है। इसी भ्रम में उन्होंने वामपंथियों को भाई मान लिया और संयुक्त राष्ट्र में चीन को स्थायी सीट दिलाने तक की वकालत की। बदले में चीन ने क्या किया? तिब्बत पर कब्जा कर लिया और 1962 में भारत की पीठ में छुरा घोंप दिया। पंचशील समझौते से लेकर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ तक, नेहरू की नासमझी भारत पर भारी पड़ी।

आज राहुल गांधी की समस्या यह है कि वे अपने वामपंथी सलाहकारों के प्रभाव में आकर उसी कम्युनिस्ट पार्टी आफ चाइना (सीपीसी) मॉडल को सबसे अच्छा शासन और विकास का तरीका मान बैठे हैं। वे चीन की तानाशाही को ‘प्रगतिशील विकास’ समझते हैं और हमेशा भारतीय लोकतंत्र की कमजोरियों को चीन के ‘आर्थिक चमत्कार’ से कमतर आंकते हैं। राहुल चाहे विदेश में हों या संसद में, बार-बार बिना साक्ष्य चीनी घुसपैठ का दावा करते रहे हैं। बजट सत्र के दौरान उन्होंने फिर कहा कि ‘सेना प्रमुख ने कहा है कि चीनी सेना हमारे इलाके में हैं।’ लेकिन सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र्र द्विवेदी साफ शब्दों में कह दिया है कि सेना को राजनीति में नहीं घसीटा जाना चाहिए।
वास्तविकता यह है कि दुनियाभर में विस्तारवादी नीतियों के लिए कुख्यात चीन भारत के लिए खतरा बना हुआ है। ऐसे में वामपंथी प्रेम को पालता का यह पाश भारत की संप्रभुता और स्वायत्तता के लिए घातक साबित हो सकता है।

भारत और चीन का संबंध सदियों पुराना है, लेकिन यह भूलना घातक होगा कि वर्तमान चीन वह नहीं है जो भारतीय संतों और विद्वानों के साथ बौद्धिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान करता था। तब चीन एक सभ्यतागत सहयोग का बिंदु था, लेकिन 1949 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने के बाद वह पूरी तरह एक विस्तारवादी और पैंतरेबाज शक्ति में बदल गया। दुर्भाग्य से, भारत ने इस बदलाव को समय पर नहीं समझा और इसकी कीमत आज तक चुका रहा है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि सीपीसी की रणनीति स्पष्ट रही है-एक तरफ बातचीत और दूसरी तरफ धीरे-धीरे सैन्य एवं आर्थिक प्रभुत्व का विस्तार। चीन 1950 के दशक में जब भारत से पंचशील सिद्धांत की दुहाई दे रहा था, उसी समय उसने तिब्बत पर कब्जा कर भारतीय सीमाओं को चुनौती देना शुरू कर दिया। आज भी यही हो रहा है। चीन सीमा पर वार्ता के दौर चलाता है, लेकिन गलवान में भारतीय सैनिकों पर हमला करता है। यह एक पुरानी नीति है, जिसे सीपीसी दशकों से चला रही है-विश्वास जीतो, फिर विश्वासघात करो।

विडंबना यह है कि चीन की वामपंथी सरकार के लिए इस देश का भरोसा जीतने और उसे तोड़ने का जो उपक्रम पहले नेहरू ने किया, राहुल गांधी भी वही करते दिखते हैं। ऐसा करते हुए कांग्रेस बहुत सुविधाजनक रूप से भूल जाती है कि सीपीसी सैन्य मोर्चे पर ही नहीं, बल्कि वैश्विक कूटनीतिक स्तर पर भी भारत के खिलाफ लगातार साजिशें रचती रही है।

इस पर भी राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु सैम पित्रोदा भारत को ही कठघरे में खड़ा करके कहते हैं, ‘‘हमारा रवैया पहले दिन से ही टकराव का रहा है। चीन को दुश्मन मानने के बजाय उसे सम्मान देना चाहिए। मुझे समझ नहीं आता कि भारत को चीन से क्या खतरा है।’’ गौर कीजिए, जब भारत ने जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र में वैश्विक आतंकवादी घोषित कराने की कोशिश की, तो चीन ने बार-बार वीटो लगाया था।

यही चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर घेरने की कोशिश करता है, चाहे वह ब्रिक्स हो, यूएनएससी हो या डब्ल्यूएचओ। फिर चीन के प्रति कांग्रेस के इस उमड़ते प्रेम का कारण आखिर क्या है! एक और आयाम सीपीसी के उस आर्थिक जाल का है, जो भारत को कमजोर करने के लिए बिछाया गया है। आज भारत-चीन व्यापार बेहद असंतुलित है। भारत चीन से आयात पर अत्यधिक निर्भर है और सीपीसी इसी निर्भरता को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है। चीन का मोबाइल बाजार, दवा निर्माण उद्योग और उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स भारत में गहरी पैठ बना चुके हैं।

संसद के भीतर चीन की पैरवी करने वाले प्यादों की सोच से इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का जो संकल्प लिया है, वह सही दिशा में एक कदम है, लेकिन तय है कि कूटनीति और आर्थिक प्रतिस्पर्धा की यह जंग लंबी चलेगी। सीपीसी केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना एक आर्थिक प्रलोभन है, जिसके माध्यम से वह छोटे देशों को कर्ज के जाल में फंसाकर अपनी कठपुतली बना रहा है। श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देशों में चीन का बढ़ता प्रभाव भारत के लिए सीधा खतरा है। यह वही रणनीति है जो औपनिवेशिक काल में यूरोपीय ताकतों ने अपनाई थी-पहले व्यापार, फिर कब्जा।

विचारवान लोगों को यह अंतर समझना होगा कि चीन का अर्थ सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी आफ चाइना नहीं है और वर्तमान ‘वामपंथी कुलीन सत्तातंत्र’ का अर्थ पूरे चीन और उसकी भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं है। इसे आप सांस्कृतिक और बौद्धिक संबंधों की अनदेखी के आईने से समझ सकते हैं। अब चीन भारत के साथ अपने प्राचीन संबंधों की धरोहर से कटा दिखता है। हजारों वर्ष तक भारत ने चीन को बौद्ध धर्म, योग और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया, लेकिन वर्तमान कम्युनिस्ट शासन इन संबंधों को महत्व देने के बजाय केवल शक्ति और वर्चस्व की राजनीति में शह-मात के खेल में उलझा है।

याद कीजिए, भारत ने जब चीन में नालंदा विश्वविद्यालय के पुनर्निर्माण की पेशकश की, तो चीन ने टाल दिया, क्योंकि ड्रेगन को सांस्कृतिक स्नेह की डोर फंदा लगती है।

दरअसल, वैश्विक विमर्श भी अब सही दिशा में होना चाहिए। दुनिया को यह समझना होगा कि सीपीसी के आंतरिक अत्याचार चीनी समाज, मानव अधिकार और विश्व व्यवस्था में एकाधिकार और विस्तारवादी आशंकाओं की मुनादी कर रहे हैं। जॉन डब्ल्यू गारवर ने अपनी पुस्तक ‘Protracted Contest:Sino-Indian Rivalry in the Twentieth Century’ में चीन के उदय के प्रति भारत की प्रतिक्रिया का विश्लेषण किया है, जो आज के संदर्भ में प्रासंगिक है।

सीपीसी न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरा है। शिनजियांग में उइगर मुसलमानों पर अत्याचार, तिब्बत में बौद्ध संस्कृति का दमन, हांगकांग में लोकतंत्र को कुचलना, यह सब दिखाता है कि वामपंथी विचारधारा के तले चीन में केवल दमन की राजनीति चलती है।
भारत अतीत में चीनी चालों की चोट खा चुका है। राहुल और पित्रोदा भले ड्रेगन और नेहरू के कसीदे गढ़ें, हम इतिहास से सबक नहीं लेंगे, तो भविष्य भी हमें माफ नहीं करेगा।

Topics: सरदार पटेलनेहरू की चूकCommunist Party of Chinaकम्युनिस्ट पार्टी और चीनजवाहर लाल नेहरूThe Communist Party of China nehrus blunder chinas danger to indiaपाञ्चजन्य विशेषसैम पित्रोदावामपंथी सरकारleftist governmentराहुल गांधीहिंदी-चीनी भाई भाईनरेंद्र मोदीIndia China War‘आत्मनिर्भर भारत’चीन भारत युद्धcpcपंचशील समझौता
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