स्वामी श्रद्धानंद
स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती आधुनिक भारत के महानतम हिंदुत्व के प्रखर नक्षत्र, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, हिंदू- मुस्लिम एकता की पक्षपाती, अछूतोद्धार के पुरोधा, शिक्षाविद तथा आर्य समाज के सन्यासी थे, जिन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती की शिक्षाओं का प्रचार किया तथा ‘स्व’ की अलख जगाए रखी। अपना जीवन स्वराज्य, स्वाधीनता, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित कर दिया। स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय जैसी शैक्षणिक संस्थाओं का निर्माण किया तो वहीं शुद्धि आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
विडंबना यह है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी एक ऐसा नाम जिसे इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में लगभग विस्मृत कर दिया गया है। वह व्यक्तित्व जिनकी कहानी दान, त्याग, वीरता, स्वतंत्रता सेनानी और समाज सेवा के कार्यों से स्वर्ण अक्षरों से अंकित होनी चाहिए थी, उसे केवल एक “हिन्दू पुनरुत्थानवादी” के रूप में चित्रित किया गया। परन्तु जब हम इस महान आत्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी की जीवन यात्रा का विहंगावलोकन करते हैं, तब इन महान विभूति के बलिदान के जीवंत चित्र मन में एक-एक कर अगाध श्रद्धा से भर जाते हैं। ऐसा बहुआयामी व्यक्तित्व इतिहास में दुर्लभ ही होता है, जिसने लोक कल्याण के लिए सर्वस्व अर्पित कर दिया हो।
स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती का जन्म 22 फरवरी सन् 1856 को पंजाब प्रांत के जालंधर जिले के तलवान ग्राम में हुआ था। उनका मूल नाम मुंशीराम विज था, उनके पिता नानक चंद विज थे। स्वामी दयानंद सरस्वती के तर्कों और आशीर्वाद से मुंशीराम विज ने अपने आप को वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बनाया। स्वामी श्रद्धानंद एक कुशल अधिवक्ता थे, परंतु महर्षि दयानंद के स्वर्गवास के उपरांत उन्होंने स्व -देश, स्व – संस्कृति, स्व – समाज, स्व – भाषा, स्व – शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड – खंडन, अंधविश्वास उन्मूलन, स्व-धर्म उत्थान जैसे कार्यों को आगे बढ़ाने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। वैवाहिक जीवन से मुक्त होकर सन्यास धारण कर लिया।
पत्रकारिता और हिंदी सेवा में भी उनका अग्रणी स्थान रहा है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया तथा एक वर्ष 4 माह का सश्रम कारावास भी भोगा। स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को जब मुस्लिम तुष्टिकरण की घातक नीति को अपनाते हुए देखा तो, उन्होंने शुद्धि आंदोलन चलाया। यह आंदोलन कट्टरपंथी मुस्लिम और ईसाई हिंदुओं को धर्मांतरण कराने वाले षड्यंत्रों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया था। उन्होंने पुनः आर्य समाज के माध्यम से वैदिक धर्म में दीक्षित कराया उन्हें सनातन धर्म में दीक्षित किया।
हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की आधारशिला स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ही हैं। मदन मोहन मालवीय और जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित करके उनके प्रवचन कराए। स्वामी श्रद्धानंद ने इस्लाम एवं ईसाई मत से संबंधित अंध विश्वासों का खंडन किया तथा छुआछूत की समस्या को दूर करने के भगीरथ प्रयास किए और उन्होंने बताया कि यह सबसे बड़ा कलंक है।
स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन और सक्रिय राजनीति में भाग लेने के साथ स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कथित अछूत माने जाने वाले समाज के मुद्दों को उठाते हुए 1919 में अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान अपने संबोधन में कहा था कि “सामाजिक भेदभाव के कारण आज हमारे करोड़ों भाइयों के दिल टूटे हुए हैं, जातिवाद के कारण इन्हें काट कर फेंक दिया हैं, भारत माँ के ये लाखों बच्चे विदेशी सरकार के जहाज का लंगर बन सकते है, लेकिन हमारे भाई नहीं क्यों नही बन सकते? मैं आप सभी भाइयों और बहनों से यह अपील करता हूं कि इस राष्ट्रीय मंदिर में मातृभूमि के प्रेम के पानी के साथ अपने दिलों को शुद्ध करे, और वादा करें कि ये लाखों करोड़ों अब हमारे लिए अछूत नहीं रहेंगे, बल्कि भाई-बहन बनेंगे, अब उनके बेटे और बेटियाँ हमारे स्कूलों में पढ़ेंगे, उनके पुरुष और महिलाएँ हमारे समाजों में भाग लेंगे, आजादी की हमारी लड़ाई में वे हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे और हम सभी अपने राष्ट्र की पूर्णता का एहसास करने के लिए हाथ मिलाएंगे।”
अछूतों की मदद करने और कई मुद्दों पर गाँधी जी से असहमति होने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस की उप-समिति से इस्तीफा दे दिया। हिंदू महासभा में शामिल होकर अछूत और दलित माने जाने वाली जातियों के कल्याण के लिए शुद्धि का कार्य शुरू किया। शुद्धि-आन्दोलन के द्वारा सोया हुआ भारत जागने लगा! कहते हैं जिस देश का नौजवान खड़ा हो जाता है वह देश दौड़ने लगता है! सच ही स्वामी जी ने हजारों देशभक्त नौजवानों को खड़ा कर दिया था।
स्वामी श्रद्धानंद हिंदू- मुस्लिम एकता के देवदूत थे। उन्होंने वर्ष 1919 में दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण दिया था। उन्होंने पहले वेद मंत्र पढ़े और एक प्रेरणादायक भाषण दिया। मस्जिद में वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले भाषण देने वाले स्वामी श्रद्धानंद एकमात्र व्यक्ति थे। दुनिया के इतिहास में यह एक असाधारण क्षण था। वहीं दूसरी ओर एक बार हकीम अजमल खान, डॉ. अंसारी और उनके कुछ मुस्लिम मित्र स्वामी श्रद्धानंदजी से मिलने उनके आश्रम गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार पहुंचे। उस समय गुरुकुल की विशाल यज्ञशाला में हवन चल रहा था। स्वामी श्रद्धानंद जी के सभी मुस्लिम मित्र उस आयोजन को बड़े ही विस्मय से देख रहे थे। जब हवन समाप्त हुआ, तब स्वामी श्रद्धानंद जी ने स्नेह पूर्वक सभी मित्रों का स्वागत किया।
कुछ देर बातें करने के बाद स्वामी श्रद्धानंद ने अपने मुस्लिम मित्रों से कहा, ‘खाने का समय हो रहा है, चलिए भोजन कर लें।’ यह सुनकर उनमें से एक बोला, ‘स्वामी जी, यह समय हमारी नमाज पढ़ने का है। यह सुनकर स्वामी श्रद्धानंद बोले, ‘अभी हवन समाप्त हो चुका है, इसलिए यज्ञशाला भी खाली पड़ी है। आप सब यहां बैठकर शांति पूर्वक नमाज पढ़ सकते हैं।’ यह सुनकर उनके मुस्लिम साथियों में से दूसरा बोला, ‘स्वामी जी, वह तो आपके हवन और पूजा पाठ की जगह है। यहां पर हम कैसे…?उस व्यक्ति की बात बीच में काटते हुए स्वामीजी बोले, ‘भाई, यज्ञशाला वंदना के लिए है। वह चाहे पूजा हो या नमाज, सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है कि एकता, प्रेम और शांति बनाए रखना। मेरे विचार में तो आप सब यहां बिना किसी संकोच के नमाज पढ़ सकते हैं। यदि आप ऐसा करेंगे, तो सभी धर्मों की एकता बढ़ेगी और सभी एक-दूसरे के भाई-भाई बनकर रह सकेंगे।’ यह सुनकर सभी मुसलमान मित्रों ने उस यज्ञशाला में शांति पूर्वक नमाज पढ़ी।
स्वामी श्रद्धानंद के समर्पण और सफलता को देखते हुए, इस्लामिक चरमपंथियों ने उनके विरुद्ध षड्यंत्र किया और अब्दुल रशीद जैसे व्यक्ति को तैयार कर उनकी दिल्ली में 23 दिसंबर 1926 को हत्या करवा दी। इस सम्बन्ध में तथाकथित महात्मा-गाँधी के कथनों की बखिया नहीं उधेड़ना चाहता हूँ फिर भी आत्मीय जनों को सूचित कर दूँ, कि जिन गाँधी जी को स्वामी श्रद्धानंद ने सबसे पहले महात्मा कहा और गाँधी जी ने उन्हें बड़ा भाई कहा था। उन्हीं गाँधी ने स्वामी श्रद्धानंद की हत्या करने वाले नर पिशाच, हत्यारे अब्दुल रशीद को अपना भाई बताया और उसे बचाने के लिए वकील बनने को भी कहा और हत्या को एक तरह से न्यायोचित बताते हुए कहा कि इसमें शोक नहीं मनाना चाहिए! सन् 1926 में अपने समाचार पत्र यंग इंडिया में भी यही बातें प्रकाशित कीं! वाह रे गाँधी जी? वहीं देखिये भारतीय संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने स्वामी श्रद्धानंद जी के बारे में सन् 1922 में कहा था कि श्रद्धानन्द अछूतों के “महानतम और सबसे सच्चे हितैषी” हैं। (Dr. Babasaheb Ambedkar Writings & Speeches Vol. 9. Dr. Ambedkar Foundation. 1991. pp. 23–24. ISBN 978-93-5109-064-9.) वर्तमान परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में पुनः धर्मान्तरण पांव पसार रहा है और ‘स्व’ की भावना का भी ह्यस हो रहा है, इसलिए उपचार हेतु स्वामी श्रद्धानंद के विचारों की उपादेयता आज भी पहले जितनी ही प्रासंगिक है। संस्कारी शिक्षा, नारी स्वाभिमान, शुद्धि आंदोलन, राजनीतिक व सामाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, अछूतोद्धार, वेद उपनिषद व याज्ञिक कार्यों का विस्तार आदि के क्षेत्र में उनका योगदान सदियों तक विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगा।
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