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संस्कृत और सनातन के प्रति वामियों एवं क्षद्म पंथनिरपेक्षता वादियों का विषवमन

लोकसभा में संस्कृत सहित 22 भाषाओं में अनुवाद की व्यवस्था का डीएमके नेताओं ने विरोध किया। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने दिया करारा जवाब- "भारत की मूल भाषा संस्कृत रही है!" पढ़ें पूरी रिपोर्ट।

by प्रणय कुमार
Feb 20, 2025, 04:56 pm IST
in मत अभिमत
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भारतवर्ष विविधता का उत्सव मनाने वाला देश है। हमारी संस्कृति एक है, परंतु वह बहुलतावादी एवं सर्व समावेशी है। भिन्न-भिन्न वेश-भूषा, खान-पान, रहन-सहन, भाषा-बोली के बावजूद हमारी सांस्कृतिक एकता दुनिया को चमत्कृत करती है। महाकुंभ इसका जीवंत उदाहरण है। परंतु विभाजनकारी राजनीति करने वाले दल व राजनेता उत्तर-दक्षिण के कल्पित भेद-भाव एवं भाषाई अस्मिता के नाम पर भारत को बाँटना चाहते हैं। वे भाषा को ज्ञान, परंपरा व संस्कृति के अजस्र स्रोत, पूर्वजों की संचित थाती तथा अभिव्यक्ति व संवाद का माध्यम मानने की बजाय राजनीति का उपकरण बनाना चाहते हैं। कदाचित इसीलिए सनातन संस्कृति पर अनेक अपमानजनक एवं घृणास्पद टिप्पणियाँ करने के बाद अब डीएमके और उसके नेता संस्कृत के विरुद्ध भी विषवमन कर रहे हैं। सदन की कार्यवाही का संस्कृत में तत्काल अनुवाद रूपांतरण कराए जाने का विरोध समझ से परे है। ऐसा भी नहीं है कि यह सुविधा केवल संस्कृत में ही उपलब्ध कराई गई हो। बल्कि संस्कृत के साथ-साथ अब बोडो, डोगरी, मैथिली, मणिपुरी, और उर्दू में भी सदन की कार्यवाही का तत्काल रूपांतरण होगा। बीते 11 फरवरी, 2025 को लोकसभा अध्यक्ष ने सदन में इसकी घोषणा की, जो सर्वथा उपयुक्त, स्वागत योग्य एवं भारत की संसदीय परंपरा के अनुकूल है। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी और हिंदी के अलावा असमिया, बांग्ला, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, तमिल, तेलगु जैसी भाषाओं में एक साथ अनुवाद की सुविधा पहले से ही उपलब्ध है। सरकार का लक्ष्य संविधान से मान्यता प्राप्त सभी 22 भाषाओं में अनुवाद की सुविधा उपलब्ध कराने का है। इसे विडंबना ही कहेंगें कि भाषाई विविधता को प्रोत्साहित करने की भारतीय संसद की इस समावेशी एवं लोकतांत्रिक पहल की जहाँ वैश्विक मंचों पर मुक्त कंठ से प्रशंसा हो रही है, वहीं भारत में संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए उस पर अनावश्यक आपत्ति की जा रही है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने दयानिधि मारन की आपत्ति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बिलकुल ठीक प्रश्न किया कि  “आप दुनिया के किस देश में रह रहे हो? ये भारत है और भारत की मूल भाषा संस्कृत रही है। हमने 22 भाषाओं में रूपांतरण की संस्तुति की, परंतु आपको केवल संस्कृत व हिंदी पर ही क्यों आपत्ति है?” वस्तुतः उनके इस प्रश्न ने देश व दुनिया के सामने डीएमके के वास्तविक चेहरे व चरित्र को उजागर करने का काम किया है।

कौन नहीं जानता कि भाषा ज्ञान एवं संस्कृति की सशक्त संवाहिका होती है। भाषा के अभाव में हम किसी राष्ट्र की संस्कृति या अस्मिता की कल्पना तक नहीं कर सकते। किसी भी सभ्यता की विकास-यात्रा में भाषा की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका हुआ करती है। भाषा के माध्यम से ही कोई भी जाति या राष्ट्र अपने विचारों, जीवन-मूल्यों, आदर्शों, स्मृतियों, परंपराओं आदि को अभिव्यक्त करता है और उसे सँजोकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित भी करता है। क्या यह भी अलग से बताने की आवश्यकता है कि भारत की आत्मा या चिति की अभिव्यक्ति देववाणी संस्कृत के माध्यम से हुई है? पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, करणीय-अकरणीय का लेखा-जोखा, भारतीय चिंतन एवं दर्शन की सतत-सुदीर्घ-समृद्ध-सुचिंतित प्रक्रिया एवं परंपरा, काल-प्रवाह में प्रविष्ट रूढ़ियों एवं तत्कालीन गतिरोध को दूर कर शताब्दियों को पार करती चली आ रही यहाँ की अविरल-अविच्छिन्न सांस्कृतिक धारा हमें संस्कृत भाषा और उसके विपुल साहित्य में ही देखने को मिलती है। भारत को भारत की दृष्टि से देखने व जानने-समझने की भाषा है – संस्कृत। परंतु उल्लेखनीय है कि उसमें एक ओर जहाँ राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है तो दूसरी ओर गहरी विश्व-दृष्टि भी दिखलाई देती है। उसमें समस्त मानव-जाति की मौलिक अनुभूतियों व स्मृतियों को अभिव्यक्ति मिली है। वह व्यष्टि को समष्टि से जोड़ने वाली भाषा है। वह स्थूल से सूक्ष्म तथा देह से आत्मा तक की यात्रा की भाषा है। वस्तुतः वह चेतना और आत्मा की भाषा है। वह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को ‘स्व’ से जोड़ने वाली, ‘स्व’ की पहचान कराने वाली भाषा है। पर उसका ‘स्व’ मैं तक सीमित नहीं, वह संपूर्ण विश्व-ब्रह्मांड से जुड़ा है। इसीलिए उसकी दृष्टि में पूरा विश्व एक परिवार है, बाज़ार नहीं। यह कथन कदाचित उपयुक्त ही होगा कि वह प्यार और सहकार की भाषा है, घृणा और व्यापार की नहीं। वह वृत्तियों के संस्कार और अभिरुचियों के परिष्कार की भाषा है। वह लोकमंगल की भावना और समन्वय की साधना की भाषा है। वह वैविध्य में सौंदर्य और एकत्व देखने वाली भाषा है। वह मनुष्य का केवल मनुष्य के साथ ही नहीं, अपितु चराचर के साथ तादात्म्य स्थापित कराने वाली भाषा है। वह हीनता की ग्रंथियों और औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति की भाषा है। वह भारतीय ज्ञान-परंपरा की श्रेष्ठता की अभ्यर्थना करती है।  वह वामी-पश्चिमी श्रेष्ठता के मिथ्या और खोखले दावे के पोल खोलती है। वह मतांतरण के खेल को रोकने की दिशा में अभेद्य कवच का काम करती है। कदाचित इसीलिए विभाजकनकारी तत्त्वों को सर्वाधिक आपत्ति सनातन, संस्कृत और संस्कृति से ही रही है। इसे वामपंथ पोषित एवं अनुकूलित विचार-दर्शन का परिणाम कहें या औपनिवेशिक ग्रंथियों का, कि भारत का कथित बुद्धिजीवी वर्ग अपनी ही भाषा, कला, संस्कृति, ज्ञान-परंपरा एवं युगों से चली आ रही मान्यताओं के प्रति संशय एवं मतिभ्रम का सर्वाधिक शिकार रहा है। इस वर्ग के भीतर भारत वर्ष की सभी सनातन परंपराओं, जीवन-मूल्यों, गौरवशाली उपलब्धियों के प्रति हीनता या अस्वीकार का भाव है। वह भारत की श्रेष्ठतम उपलब्धियों या महानतम अवदान को तब तक स्वीकार नहीं करता, जब तक पश्चिम या वामी बौद्धिक-साहित्यिक समूह उसे मान्यता नहीं दे देता। भाषा, कला, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य, स्थापत्य, इतिहास या ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों का आकलन-मूल्यांकन वह पश्चिमी-परकीय-वामी दृष्टिकोण से ही करता आया है। बड़ी हेकड़ी एवं ढिठाई के साथ अपनी इस परमुखापेक्षिता व बौद्धिक परावलंबिता को ही यह वर्ग अपने दुर्लभ वैशिष्ट्य की तरह प्रस्तुत-प्रचारित करता आया है। उसे ज्ञान एवं सत्य की स्थापना व अन्वेषण के लिए तर्कों-तथ्यों-प्रमाणों आदि के नहीं, अपितु पश्चिमी-वामी निकष एवं प्रतिमानों के आश्रय व समर्थन चाहिए। इसीलिए समय, परिस्थिति, प्रकृति, परिवेश, उपयोगिता एवं प्रामाणिकता की कसौटी पर पूर्णतः खरा उतरने के बावजूद योग, आयुर्वेद, ज्योतिष, खगोल, भारतीय काल-गणना से लेकर संस्कृत एवं सनातन ज्ञान-परंपरा की प्राचीनता, श्रेष्ठता, सार्वभौमिकता एवं वैज्ञानिकता आदि के प्रति यह वर्ग हीनता एवं नकारात्मकता से भरा रहता है।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनेकानेक दुर्लभ विशेषताओं से सुसंपन्न तथा विज्ञान एवं तकनीक की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त होने पर भी आधुनिक भारत में संस्कृत की घनघोर उपेक्षा की गई है। उसे कालबाह्य, अनुपयोगी, अप्रासंगिक सिद्ध करने की निरंतर कुचेष्टा की जाती रही। जहाँ दुनिया उसे ज्ञान-विज्ञान की सबसे प्राचीन भाषा मान सदियों से ही उसमें से सार-सार ग्रहण करती रही है, वहीं स्वतंत्र भारत में भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित मैकॉले-मार्क्स के मानसपुत्रों ने उसका नाम सुनकर ही नाक-भौं सिकोड़ने का चलन आज तक जारी रखा है। जबकि तथ्य यह है कि बार-बार के शोध व अनुसंधान के निष्कर्ष में संस्कृत को संगणक (कंप्यूटर) एवं कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) के लिए सर्वाधिक उपयुक्त भाषा बतलाया गया। जैसा लिखा जाता है, ठीक वैसा ही पढ़े और बोले जाने के कारण टॉकिंग कंप्यूटर के लिए संस्कृत सबसे सटीक एवं वैज्ञानिक भाषा मानी गई है। स्वर-तंत्री, प्राणवायु, मुखावयव आदि के आधार पर ध्वनियों एवं वर्णों का वैज्ञानिक अनुक्रम, धातु-रचना, शब्द-निर्माण, पदक्रम, पद-लालित्य, वाक्य-विन्यास, अर्थ-विस्तार आदि की दृष्टि से यह अनुपम एवं अद्वितीय भाषा है। संसार की अन्य भाषाओं में जहाँ किसी वस्तु एवं व्यक्ति विशेष के लिए प्रचलित शब्दों के पीछे का तार्किक आधार, कारण एवं प्रयोजन स्पष्ट कर पाना अत्यंत कठिन है, वहीं संस्कृत में गुण-धर्म-अर्थ आदि के आधार पर वस्तुओं-व्यक्तियों के नामकरण का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है। इसमें सूत्रों में बात कही जा सकती है। यहाँ छंदों का अनुशासन है, अराजकता का व्याकरण नहीं। यह लय-सुर-ताल की भाषा है। जहाँ लय है, वहीं गति है और गति ही जीवन तथा जड़ता ही मृत्यु है। इसलिए संस्कृत जीवन की भाषा और जीवन का मंत्र है।

संसार की सबसे प्राचीन भाषा में से एक होने के कारण देश-विदेश की अधिकांश भाषाओं में प्रयुक्त एवं प्रचलित शब्दावली के साथ संस्कृत की अद्भुत साम्यता देखने को मिलती है। भारत की अधिकांश बोलियों एवं भाषाओं की जननी होने के कारण यह राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को मजबूती प्रदन करने में अत्यधिक सहायक है। इस दृष्टि से संस्कृत की भूमिका, महत्ता एवं व्याप्ति पर सुप्रसिद्ध चिंतक एवं स्वतंत्रता सेनानी कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी लिखते हैं – “संस्कृत अगर राष्ट्रभाषा न होती तो सुदूर दक्षिण के क्षेत्र मालाबार से ताल्लुक रखने वाले एक ब्राह्मण आचार्य शंकराचार्य जी द्वारा यह संभव न हो पाता कि वे पूरे देश को एक साथ सर्वव्यापक बौद्धिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एकता के अंतरसूत्र में जोड़ पाते।” यह इतनी समृद्ध भाषा है कि विश्व की अन्य सभ्यताएँ जब संवाद के लिए बोलियाँ भी विकसित नहीं कर पाईं थीं, तब संस्कृत में वेदों के छंद रचे जा रहे थे, जो आज भी जीवन व दर्शन के श्रेष्ठतम काव्य माने जाते हैं। वेदों में धरती, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, अंतरिक्ष, सूर्य, चंद्र ज्ञात, अज्ञात, दृश्य, अदृश्य, देवता, भूमि, जल, वायु, नदी, पर्वत, पशु, पक्षी, कृषि आदि सबको समझने का गंभीर एवं गूढ़ प्रयास किया गया है। वेदों के पश्चात उपनिषद, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथ और पुराणों की रचना भी संस्कृत में ही हुई है। इन सबमें मानव-जीवन के लगभग सभी पहलुओं एवं पक्षों की विशद विवेचना की गई है। कला, संगीत, साहित्य, संस्कृति, योग, आयुर्वेद, धर्म, दर्शन, नीति व इतिहास से लेकर गणित, विज्ञान, भूगोल, भूगर्भ, खगोल, ज्योतिष, वास्तु आदि तक जीवन और जगत का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जिनमें संस्कृत-ग्रंथों की उपलब्धता एवं विपुलता न हो। बल्कि यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि इन विषयों में जो-जो सुंदर, सार्थक व महत्त्वपूर्ण रचे गए, वे सभी संस्कृत में ही हैं। आदि शंकर, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, नैयायिक मीमांसकों से लेकर अन्य सभी ऋषियों-मनीषियों एवं भारतीय दार्शनिकों ने संस्कृत को ही अपनी स्वानुभूति एवं दर्शन की विवेचना का माध्यम व आधारग्रंथ बनाया। संस्कृत को ब्राह्मणों और शास्त्रों की भाषा बताने वाले डीएमके, दयानिधि मारन या उनके स्वर में स्वर मिलाने वाले वामी एवं क्षद्म पंथनिरपेक्षतावादियों को कदाचित यह नहीं स्मरण रहा कि संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष, देश के प्रथम विधि मंत्री एवं वंचितों-शोषितों के हितों के सबसे बड़े पैरोकार डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी भारतीय संघ की राजभाषा के रूप में संस्कृत की ही पैरवी की थी, तो क्या इस आधार पर वे उन्हें भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक का संघ का नेता या कार्यकर्त्ता घोषित करेंगें? सच तो यह है कि संस्कृत संपूर्ण देश को जोड़ने वाली भाषा है, जो तोड़ने की राजनीति करने वालों को शायद ही समझ आए या उसे समझते हुए भी वे न समझने का स्वांग रचें!

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