बीसवीं सदी के आरम्भ के 50 वर्ष का कालखंड स्वतंत्रता की लड़ाई से प्रभावित रहा था। संदेह नहीं कि संघ निर्माता डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार पहली पंक्ति के स्वतंत्रता सेनानी थे। काम क्रांति करना हो या लोकमान्य तिलक की ‘होम रूल’ लीग के लिए पैसा एकत्रित करना, महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन हो या खादी का प्रचार, स्वदेशी वस्तुओं का भंडार चलाना हो या ‘स्वातंत्र्य’ दैनिक का संचालन अथवा अन्य कुछ, सब कार्यों में उनका सहभाग दिखाई देता है।
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वरिष्ठ प्रचारक, रा.स्व.संघ
डॉ. हेडगेवार ब्रिट्रिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासन नहीं वरन् ‘संपूर्ण स्वतंत्रता’ के आग्रही थे। 1920 में नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में कार्यसमिति को भेजे गए प्रस्ताव से उनके हृदय में धधकी स्वतंत्रता की चिंगारी ध्यान में आती है। डॉक्टर हेडगेवार की इच्छा थी कि कांग्रेस भारत में प्रजासत्ता (गणतंत्र) का निर्माण कर पूंजीवादी राष्ट्रों के शिकंजे से विश्व के देशों को मुक्त कराने को लेकर प्रस्ताव पारित करे। परंतु उस काल में ऐसा घोषित करना कांग्रेस के लिए सुविधाजनक नहीं था।
1921 में उनको दी गई सजा के समय उन्होंने न्यायालय में अपने बचाव में जो कहा था उससे पता चलता है कि उनके मन में स्वतंत्र होने की इच्छा कितनी तीव्र थी। न्यायालय में डॉक्टर हेडगेवार ने सरकारी वकील से पूछा था, ‘वास्तव में ऐसा कोई कानून है क्या कि जिसके बल पर एक देश के लोग, दूसरे देश के लोगों पर शासन कर सकें? यह बात प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं है क्या? अंग्रेजों को भारतवासियों को अपने पैरों तले रौंद कर उन पर शासन करने का अधिकार किसने दिया? जिस प्रकार इंग्लैंड के लोग इंग्लैंड पर, जर्मनी के लोग जर्मनी पर शासन करते हैं, वैसे ही हम भारत के लोग भारत पर अपना शासन चाहते हैं। हमें पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए और वह हमें मिलेगी ही।’
स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए चलने वाली सभी प्रकार की गतिविधियों में सहभागी होते समय उन्हें एक मूलभूत प्रश्न हमेशा सताता था। उनके अनुसार, वे प्रश्न भी स्वतंत्रता प्राप्त करने जितने ही महत्वपूर्ण हैं। जैसे, स्वतंत्रता खोई क्यों? जिन गलतियों के कारण स्वतंत्रता खोई, उनके कारण वह फिर से नहीं खोएगी, उसकी गारंटी क्या है?
सब जानते हैं कि उसका एक महत्वपूर्ण कारण था छल। सिंध के सम्राट राजा दाहिर की महापराक्रमी राजा के रूप में ख्याति थी। वे मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का सामना करते हुए हार गए। इसकी वजह उनके सेनापति की गद्दारी बताई जाती है। दिल्ली के सम्राट वीर पृथ्वीराज चौहान, जिन्होंने आक्रमणकारी मोहम्मद गोरी को अनेक बार पराजित किया था, एक बार हार गए। वे हार गए या उन्हें जानबूझकर हराया गया? पराक्रमी पृथ्वीराज के समधी जयचंद ने भितरघात किया और पृथ्वीराज को गिरफ्तार करवा दिया। शत्रु तो लालच दिखाएगा ही। ‘उसको मैं मारता हूं, उसकी जगह तुम्हें सम्राट बनाता हूं, इस लालच में क्या शत्रु को हम अपने देश में ही प्रवेश नहीं करने दे रहे हैं’, ऐसा विचार जयचंद के मन को छू भी नहीं सका।
डॉ. साहब सोचते थे कि यदि सब ऐसे ही चलता रहा तो प्राप्त होने वाली स्वतंत्रता टिकेगी क्या? देशभक्ति कुछ लोगों में ही क्यों है? प्रत्येक नागरिक स्वभाव से देशभक्त ही होना चाहिए, प्रत्येक का प्राथमिक गुण देशभक्ति ही होना चाहिए। यह प्रश्न स्वतंत्रता जितना ही महत्वपूर्ण है। गद्दारी की परंपरा खत्म होनी ही चाहिए।
मन को मथते प्रश्न
हम परतंत्र क्यों हुए? इस प्रश्न से केशव का मन कितना बेचैन रहता था, यह उनके और उनके चाचा के बीच हुए पत्राचार से स्पष्ट होता है। कोलकाता से डॉक्टरी की डिग्री लेकर केशव नागपुर वापस आए। उनके रिश्तेदारों के बीच स्वाभाविक रूप से यह चर्चा जोर पकड़ने लगी कि केशव अब अपना दवाखाना खोलेगा, शादी कर गृहस्थी बसाएगा। उनके चाचा जी, जिन्हें सब आबा कहते थे, ने केशव को पत्र लिखकर इस बारे में पूछा। आबा ने लिखा, ‘‘लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, वीर सावरकर, डॉक्टर मुंजे जैसी विभूतियां विवाह करके भी स्वतंत्रता के आंदोलन में भी सक्रिय हैं। तुम्हारा इस बारे में क्या विचार है?’’ केशव ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया उससे उनके मन में चल रही ऊहापोह का पता चलता है। केशव ने लिखा, ‘‘पत्र में आपने जो लिखा वह सच है, परंतु मेरे मन को एक प्रश्न ने उलझाया हुआ है।
हमारे अपने लोगों की गद्दारी के कारण हम पराजित होकर गुलाम हो गए। इस प्रवृत्ति को रोका नहीं जा सकता क्या? इसके लिए यदि मैं कुछ कर सका, तो अपने आप को धन्य समझूंगा। विवाह करके स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहा जा सकता है, आपका यह कहना सच है, परंतु मेरी सोच अलग है। इस घर एवं देश के हित में मैं इस प्रकार का विचार नहीं कर सकता। शादी के बंधन में नहीं बंधना, यह मैं निश्चित कर चुका हूं, कृपया शादी की चर्चा को विराम दें।’’ डॉक्टर जी के अंत:करण में स्वतंत्रता की आग का प्रकटीकरण समय-समय पर उनके द्वारा दिए वक्तव्यों से होता है।
18 मार्च 1922 को महात्मा गांधी को 6 वर्ष के लिए कारावास का दंड सुनाया गया। उनके कारावास से बाहर आने तक प्रत्येक माह की 18 तारीख ‘गांधी दिवस’ के रूप में मनाई जाती थी। ऐसे ही एक ‘गांधी दिवस’ पर डॉक्टर साहब द्वारा व्यक्त दो विचार देखें-‘आज का दिन महात्मा गांधी जैसे पुण्यवान पुरुष के सद्गुणों के श्रवण तथा चिंतन करने का दिन है। महात्मा गांधी द्वारा आत्मसात अत्यंत महत्वपूर्ण सद्गुण है, निश्चित किए कार्य को संपन्न करने हेतु अपने स्वार्थ का भी त्याग करना।’ यदि कोई व्यक्ति खुद को महात्मा गांधी का अनुयायी कहता है तो स्वयं के जीवन को होम कर युद्ध के मैदान में उतरना होगा, ऐसे विचारों से डॉक्टर जी का अंत:करण हमेशा धधकता रहता था।
स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए चले सभी प्रकार के प्रयत्नों में आगे रहकर सक्रिय रहते हुए उनके मन में उठते विचारों को देखें तो स्वातंत्र्य योद्धा के रूप में उनकी एक अलग ही छवि ध्यान में आती है। वे विचार हैं-
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संपूर्ण प्रभावी संस्कार किए बिना देशभक्ति का स्थायी स्वरूप निर्माण नहीं हो सकता तथा ऐसा स्वरूप निर्माण होने तक सामाजिक व्यवहार में ईमानदारी आना संभव नहीं है।
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देशभक्ति से सराबोर शीलवान, गुणों के विकास से प्रभावी, निस्सीम सेवाभाव से स्वत: अनुशासित जीवन जीने के उत्सुक क्रियाशील, कर्तृत्वशील युवा लाखों की संख्या में तैयार होने चाहिए।
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समाज में उठते प्रश्नों का हल निकालने हेतु प्रयत्न अवश्य होना चाहिए, परंतु इन प्रश्नों को हमेशा के लिए समाप्त करना हो तो मात्र कुछ पीढ़ियों तक राष्ट्रीय भाव की दीक्षा देकर देशहित के लिए संपूर्ण जीवन होम करने वाले नागरिक पूरे देश में प्रचंड संख्या में खड़े करने चाहिए। डॉ. हेडगेवार के मन में चलने वाले उपरोक्त विचारों से साफ दिखता है कि प्राप्त होने जा रही स्वतंत्रता को अबाधित रखने के लिए समाज की किस प्रकार की सिद्धता होनी चाहिए, इसका वे विचार कर रहे थे।
पूर्ण प्रभावी संस्कार आवश्यक
पहले स्वतंत्रता या समाज सुधार, यह विवाद भी उन दिनों चल रहा था। डॉक्टर जी इस विवाद में शामिल नहीं हुए, ऐसा दिखता है। अंग्रेजी में कहते हैं—Eternal vigilance is the price of liberty. Eternal vigilance के लिए आवश्यक गुणों से युक्त समाज रचना के लिए क्या करना होगा, स्पष्ट है कि इसका उन्होंने सविस्तार विचार किया होगा। लेकिन केवल इतना ही विचार कर वे रुके नहीं, स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु चलने वाली सभी प्रकार की गतिविधियों में उन्होंने उत्साह से भाग लिया। आंदोलन में शामिल रहते हुए भी उन्होंने आंदोलन, क्रांति से दूर एक अनोखा काम प्रारंभ किया। यही कार्य आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय भाव की दीक्षा देकर व्यक्तिगत हित एवं महत्वाकांक्षा की बलि न चढ़ाते हुए, राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत समाज बने, ऐसा डॉक्टर हेडगेवार जी का मानना था। वे मानते थे कि समाज में राष्ट्रीय भावना गहराई तक समा जाए, इसके लिए कुछ पीढ़ियों तक काम करना पड़ेगा। राष्ट्रीय भावना से अभिभूत, देशहित के लिए जीवन भर अखंड जाग्रत रहने वाले नागरिक पूरे देश में प्रचंड संख्या में परंपरा से खड़े रहें, यह उद्देश्य आंखों के सामने रखकर उन्होंने एक अलग प्रकार का काम खड़ा किया, उसे उन्होंने नाम दिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ!
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहचान है संघ की रोज लगने वाली एक घंटे की शाखा! संघ की शाखा यानी देशभक्ति का सत्संग! प्रत्येक व्यक्ति में देशभक्ति का प्राथमिक गुण होना ही चाहिए। उन्होंने समाज में अनुभवसिद्ध सत्संग, सद्विचार, सदाचार का एक नया आयाम जोड़ा। साधु, संत, संप्रदाय प्रवर्तक हमेशा समाज को सत्संग में आने का आह्वान करते ही हैं। सत्संग के कारण व्यक्ति के जीवन में सद्गुणों की वृद्धि होती है। ईश्वर भक्ति, देव भक्ति, गुरु भक्ति निर्माण करने वाले सत्संग समाज में चलते रहते हैं। इन सब की समाज में कोई कमी नहीं। कमी है तो प्रखर देशभक्ति की। पूर्ण प्रभावी संस्कार यदि न किए जाएं तो देशभक्ति का स्थायी रूप से बनी नहीं रह सकती और इसे स्थायी बनाने के लिए हमारे सामाजिक व्यवहार में ईमानदारी आनी जरूरी है जो एक कठिन कार्य है।
देशभक्ति के प्रभावी संस्कार हो सकें, इसलिए ऐसे सत्संग की आवश्यकता है। संघ की प्रत्येक शाखा देशभक्ति का रोपण करती है, यही तो था डॉ. हेडगेवार का मौलिक चिंतन! संघ की किसी भी शाखा में किसी देवता या महापुरुष की फोटो या प्रतिमा नहीं लगाई जाती। यदि शाखा की ओर से किसी महापुरुष की विशेष तिथि मनानी हो तो उस कार्यक्रम में उस व्यक्ति का फोटो लगाया जाता है। संघ निर्माता के रूप में डॉ. हेडगेवार का फोटो भी नहीं लगाया जाता। किसी प्रकार के नारे भी नहीं लगाए जाते।
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शाखा यानी विशुद्ध राष्ट्रभक्ति
देशभक्ति इस बात पर अवलंबित नहीं है कि मुझे क्या मिलेगा। यह सौदेबाजी का विषय हो ही नहीं सकता, इस आशय का विचार डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में व्यक्त किया था। उन्होंने कहा था, ‘‘अब हम बहुदलीय लोकतंत्र को स्वीकार कर रहे हैं। प्रत्येक दल सत्ता में आने का प्रयास करेगा। जब भी दलहित या राष्ट्रहित का प्रश्न खड़ा होगा तब दलहित राष्ट्रीय हितों से ऊपर रहेगा क्या, यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार आता है। इतनी प्रदीर्घ कालावधि के बाद मिली स्वतंत्रता को कहीं हम गंवा तो नहीं देंगे। मैं प्रथम भारतीय, मध्य में भारतीय, अंत में भी भारतीय। भारत के लिए बलिदान देने का यदि समय आया तो मैं प्रथम पंक्ति में रहूंगा। भारत की एकता पर कोई भी आघात सहन नहीं किया जा सकता।’’
कोई चाहे मार्क्सवादी हो, लोहियावादी, गांधीवादी, आम्बेडकरवादी अथवा अन्य कुछ, सबसे पहले आवश्यक है उसका राष्ट्रवादी होना। संघ का प्रयत्न यही है कि प्रत्येक भारतीय की भूमिका ‘नेशन फर्स्ट’ की होनी चाहिए।
इस दृष्टि से जापान का एक उदाहरण कई बार सुनने में आया है। एक भारतीय परिवार जापान में प्रवास के लिए जाता है। रेस्टोरेंट में भोजन के बाद वेटर बिल के अनुसार पैसे लेकर कहता है, ‘आपने बहुत सारा खाना थाली में जूठा छोड़ा है, यह अच्छा नहीं किया।’ भारतीय प्रवासी कहता है, ‘तुम्हें पैसे पूरे मिल गए ना? हम खाएं या ना खाएं यह हम पर है।’ जापानी वेटर ने कहा, ‘पैसा आपका ही है, परंतु अन्न इस देश का है।’
आज देश में 80 हजार से अधिक ‘देशभक्ति के सत्संग’ अर्थात संघ शाखाएं चल रही हैं। जल्दी ही उनकी संख्या एक लाख से ऊपर हो, ऐसा प्रयत्न है। ऐसे सत्संग प्रत्येक गांव, प्रत्येक बस्ती में होने चाहिए, संघ का यही एक सूत्रीय कार्यक्रम चल रहा है। परम पूज्य सरसंघचालक सब स्थानों का सघन प्रवास करते हैं।
कार्यकर्ताओं की बैठकों में इस संबंध में चर्चा होती है कि सभी मंडलों, बस्तियों में शाखा की क्या योजना है? स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तब सत्याग्रह करके कारावास में जाने की और यदि आवश्यकता हो तो बलिदान देने की भी तैयारी थी। स्वतंत्र भारत में समाज में कौन से गुण हों, यदि इसका विचार किसी ने किया है तो वह केवल डॉ. हेडगेवार ही हैं। यही उनका स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी के रूप में असाधारण कार्य है। देश के लिए जीने वाले नागरिक चाहिए। दैनंदिन व्यवहार में देशभक्तिपूर्ण जीवन जीने वाले, अनुशासित, ईमानदार व्यवहार वाले, पर्यावरणपूरक जीवन शैली और भेदभाव न मानने वाले स्वाभिमानी नागरिक चाहिए। एक मराठी कविता की पंक्ति है, ‘क्रांत दर्शी केशवाने दिव्य स्वप्न पाहिले।’ यानी क्रांतिद्रष्टा केशव ने एक दिव्य स्वप्न देखा। डॉ. साहब को पूरा भरोसा था कि हमारे द्वारा प्रारंभ किया गया कार्य स्वतंत्रता को अमरत्व प्रदान कराने वाला होगा। वह हमेशा कहते थे कि संघ कार्य ईश्वरीय कार्य है।
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