कुटुंब प्रबोधन : परिवार-समाज को सहेजने का भगीरथ प्रयास
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कुटुंब प्रबोधन : परिवार-समाज को सहेजने का भगीरथ प्रयास

पश्चिमी जीवनशैली और उपभोक्तावादी संस्कृति ने परिवार और समाज को प्रभावित किया है। 1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण ने व्यक्तिवाद और उपभोगवाद को बढ़ावा दिया

by WEB DESK
Feb 18, 2025, 11:31 am IST
in भारत, विश्लेषण, मत अभिमत, संस्कृति
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पश्चिमी जीवनशैली और उपभोक्तावादी संस्कृति ने परिवार और समाज को प्रभावित किया है। 1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण ने व्यक्तिवाद और उपभोगवाद को बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप भारत की सबसे मजबूत और पुरानी आधारभूत सामाजिक इकाई ‘परिवार’ क्षतिग्रस्त होने लगी। पारिवारिक जीवन में अशांति, अहम का टकराव, ईर्ष्या-द्वेष, असहिष्णुता, अलगाव और स्वार्थपरकता बढ़ने लगी। पारिवारिक संबंधों से अपनेपन, आत्मीयता, सौहार्द, संवाद, समन्वय, रस और राग का लोप होने लगा।

अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थात् यह मेरा है, यह पराया है, ऐसी गणना छोटे चित्त वालों की होती है। उदार चित्त वाले तो पूरे विश्व को ही अपना परिवार मानते हैं। सहस्त्राब्दियों से इस औदात्य व विश्वव्यापी चिंतन से प्रेरित-संचालित भारतीय समाज अब धीरे-धीरे पश्चिमी व्यक्तिवाद से आक्रांत होने लगा है। बड़े कुटुंब से संयुक्त परिवार और फिर एकल परिवार से अब एक व्यक्ति तक सिमटता जा रहा है। लोग विवाह संस्था से विमुख हो रहे हैं, विवाह विखंडित हो रहे हैं। लिव-इन और समलैंगिक संबंध-विवाह जैसी विकृतियां बढ़ रही हैं। कॅरियर और भौतिकता की आपाधापी में बुजुर्ग माता-पिता अकेलापन और उपेक्षा सहने को अभिशप्त हैं। दादा-दादी, नाना-नानी, ताऊ-ताई, बुआ-फूफा, मौसी-मौसा जैसे संबंध पारिवारिक जीवन से गायब हो रहे हैं। ‘हम’ हाशिए पर है और ‘मैं’ और ‘मेरा’ हर ओर हावी है।

महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में भारत की परिवार-व्यवस्था का आदर्श और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने दिखाया है कि एक व्यक्ति (कैकेयी) के मानसिक विचलन से पूरा परिवार कितना कष्ट झेलता है और सामाजिक जीवन भी उससे अप्रभावित नहीं रहता। रामचरितमानस भारत की संयुक्त परिवार व्यवस्था का कीर्ति स्तंभ है। पारिवारिक संबंधों की प्राणवायु पारस्परिक प्रेम, समर्पण, संवेदनशीलता और त्याग प्रचुरता में है। यह विशिष्ट परिवार व्यवस्था भारतीय समाज की अभूतपूर्व उपलब्धि रही है, जबकि पश्चिम समाज के लिए कौतूहल का विषय।

भारतीय समाज के गहराते संकट को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कुटुंब प्रबोधन को अपनी एक प्राथमिक गतिविधि बनाया है, ताकि परिवार, समाज और संबंधों को बचाया जा सके। परिवार में संवादहीनता के बड़े कारणों में मोबाइल फोन, टेलीविजन और सोशल मीडिया भी हैं। इसलिए कुटुंब प्रबोधन में इस बात पर जोर दिया जाता है कि परिवार के सभी सदस्य सप्ताह में कम से कम एक दिन मोबाइल और टेलीविजन से दूर एक साथ समय बिताएं। सभी साथ बैठकर भोजन करें, भारतीय संस्कृति, परंपरा और देश-समाज से जुड़े विषयों पर चर्चा करें। सगे-संबंधियों की सुध लें, सप्ताह या महीने में एक दिन मित्रों-परिजनों से सपरिवार मिलें और साथ पर्व-त्योहार मनाएं या कहीं घूमने जाएं। इससे न केवल परिवार और संबंधों की टूटती कड़ी जुड़ेगी, बल्कि पहले से और अधिक मजबूत होगी।

स्वस्थ और सुखद पारिवारिक जीवन ही संगठित समाज और सशक्त राष्ट्र की नींव होती है। परिवार सामाजिक गुणों की भी प्रथम पाठशाला होता है। अगर परिवार बचेगा तभी देश और समाज बचेगा। देश और समाज को संगठित करने के लिए सबसे आधारभूत सामाजिक इकाई ‘परिवार’ को बचाने का संघ का यह प्रयास सराहनीय है। समाज और राष्ट्र की आवश्यकता के अनुरूप प्रबोधन और परिवर्तन करना रा.स्व.संघ की पहचान है। समाज और राष्ट्र के संकटों का पूवार्भास करके उनके समुचित और सम्यक समाधान की दिशा में सामूहिक और संगठित उपक्रम करना उसकी परंपरा है। संघ शताब्दी वर्ष में ‘पंच परिवर्तन’ (कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी जीवनशैली, सामाजिक समरसता और नागरिक कर्तव्य) का संकल्प उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता का प्रमाण है।

Topics: संघ शताब्दी वर्ष में पंच परिवर्तनस्वदेशी जीवनशैलीसामाजिक समरसता और नागरिक कर्तव्यराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघRashtriya Swayamsevak Sanghपर्यावरण संरक्षणकुटुंब प्रबोधनपाञ्चजन्य विशेषRSSKutumb PrabodhaanThe need for family enlightenment in India and the efforts of RSSसंस्कृति परिवार और समाज
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