श्रद्धांजलि

विराट व्यक्तित्व, अगाध कृतित्व

बाल पत्रिका ‘देवपुत्र’ के संपादक रहे कृष्ण कुमार अष्ठाना का 14 जनवरी को इंदौर में निधन हो गया। अष्ठाना जी के जीवन के अनेक आयाम रहे। वे आदर्श शिक्षक, प्रखर पत्रकार, ओजस्वी वक्ता, तेजस्वी साहित्यकार, उत्कृष्ट संपादक आदि अनेक रूपों में समाज में जाने जाते रहे।

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गोपाल माहेश्वरी

प्रसिद्ध बाल पत्रिका ‘देवपुत्र’ के संपादक रहे कृष्ण कुमार अष्ठाना का 14 जनवरी को इंदौर में निधन हो गया। अष्ठाना जी के जीवन के अनेक आयाम रहे। वे आदर्श शिक्षक, प्रखर पत्रकार, ओजस्वी वक्ता, तेजस्वी साहित्यकार, उत्कृष्ट संपादक आदि अनेक रूपों में समाज में जाने जाते रहे। इन सब भूमिकाओं का निर्वाह करते हुए भी सदैव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक के रूप में मातृभूमि के अविचल आराधक बने रहे। उनका जन्म 15 मई, 1940 को आगरा जिले की खैरागढ़ तहसील के ऊंटगिर ग्राम में हुआ था। विषम परिस्थितियों में भी अपने पारिवारिक दायित्वों का कुशल निर्वहन करते हुए इतिहास और राजनीतिविज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर 18 वर्षीय अष्ठाना जी ने एक शिक्षक के रूप में अड़ोखर में सेवा आरंभ की। 1964 से 1971 तक बरई हायर सेकेण्डरी स्कूल में प्राचार्य रहे। संघ के तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री कुप्.सी. दुदर्शन की प्रेरणा से वे 1973 में इंदौर आ गए।

यहां दैनिक समाचारपत्र ‘स्वदेश’ में श्री माणिकचंद्र वाजपेयी उपाख्य मामाजी के सान्निध्य में पहले प्रबंध संपादक फिर प्रधान संपादक की भूमिका का उत्तम निर्वाह किया। 1986 में वे विद्या भारती से जुड़े और कड़ी मेहनत कर इसके कार्य को आगे बढ़ाया। अक्तूबर, 1991 में उन्हें ‘देवपुत्र’ के संपादक का दायित्व दिया गया। इस नाते उन्होंने ‘देवपुत्र’को एक नई ऊंचाई दी। एक समय इसकी प्रसार संख्या पौने चार लाख थी। अष्ठाना जी ने इसे केवल एक पत्रिका भर नहीं रहने दिया, बल्कि बाल-साहित्य संसार में एक युगांतरकारी महाअभियान बना दिया। देवपुत्र में भारतीय बाल साहित्य शोध संस्थान की स्थापना की।

मध्य प्रदेश शासन के संस्कृति मंत्रालय द्वारा उन्हीं की प्रेरणा से स्थापित बाल-साहित्य सृजनपीठ के निदेशक बने। वे मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति के उप सभापति रहे। कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। उन्होंने ‘देवपुत्र’ पत्रिका से एक पैसा भी मानधन नहीं स्वीकारा और पद की आसक्ति से इतने निर्मल कि अंतिम वर्षों में स्वयं हठपूर्वक अपने पदों से मुक्ति ग्रहण करते चले गए। संगठन के आदेश पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, मालवा प्रांत के प्रथम संघचालक का दायित्व भी कुशलतापूर्वक निर्वाह किया। उन्हें अनगिनत संस्थाओं से सर्वोच्च सम्मान मिले। 85 वर्ष की आयु में वे प्रथम बार 12 जनवरी, 1925 के पूर्वान्ह में किसी चिकित्सालय में भर्ती हुए, जहां उन्हें अर्ध चेतनावस्था में ले जाना पड़ा। वहीं उन्होंने 14 जनवरी को अंतिम सांस ली।

वे लोकसंग्रह साधना के अप्रतिम आचार्य थे। साधन, संपत्ति और सम्मान मिले तो ठीक और न मिले तो भी ठीक, बस कार्यकर्ताओं को खड़े करते चलो। वे कहते थे ही कार्यकर्ता नियमों के लिए नहीं है, नियम कार्यकर्ता के लिए है। ऐसी परिस्थिति में नियम और कार्यकर्ता में से किसी एक को ही बचाना ही विकल्प रहे, तो कार्यकर्ता को बचाना चाहिए। नियम तो परिवर्तनीय हैं, बन बिगड़ सकते हैं। कार्यकर्ता कठिनाई से जुड़ते हैं फिर अच्छा कार्यकर्ता तो स्वयं  नियमों का पालन करता ही है। अष्ठाना जी के विराट व्यक्तित्व और अगाध कृतित्व को शब्दों में समेटना आसान नहीं है। प्रभु उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दें।
(लेखक ‘देवपुत्र’ के संपादक हैं) 

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