हिन्दू धर्म में माघ शुक्ल पंचमी का विशेष महत्व है। वसंत ऋतु का शुभारम्भ इसी दिन से होता है। ऋग्वेद में उल्लखित कथानक कहता है कि मनुष्य समेत सृष्टि के सभी जड़ चेतन जीवों की रचना के उपरान्त भी सृजनकर्ता ब्रह्मा को संतुष्टि नहीं हुई। उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य की रचना मात्र से ही सृष्टि की गति को संचालित नहीं किया जा सकता। इसलिए नि:शब्द सृष्टि को स्वर की शक्ति से भरने के लिए जगतपालक विष्णु के परामर्श पर उन्होंने अपने कमण्डल से अभिमंत्रित जल को धरती पर छिड़क कर एक ऐसी वरमुद्राधारी चतुर्भुजी दैवीय नारी शक्ति को प्रकट किया जो विश्व ब्रह्माण्ड में सद्ज्ञान व विवेक की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती के नाम से विख्यात हुईं। सृजनकर्ता ब्रह्मा के अनुरोध पर जब देवी सरस्वती ने जब अपनी वीणा के तारों को झंकृत किया तो समस्त सृष्टि में एक नाद की अनुगूंज हुई और सृष्टि के सभी जड़ चेतन को वाणी का दिव्य उपहार मिल गया।
योगेश्वर श्रीकृष्ण बसंत के अग्रदूत
माँ सरस्वती का अवतरण माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था। ‘’ब्रह्मवैवर्त पुराण’’ में योगेश्वर श्रीकृष्ण को बसंत का अग्रदूत कहा गया है। इस पुराण ग्रन्थ के अनुसार सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने बसंत पंचमी के दिन ज्ञान व कला की देवी के रूप में माँ सरस्वती का पूजन अर्चन किया था- ‘’आदौ सरस्वती पूजा श्रीकृष्णेन् विनिर्मित:। यत्प्रसादान्मुति श्रेष्ठो मूर्खो भवति पण्डित: ।।‘’ तभी से माघ शुक्ल पंचमी को बसंत पंचमी के रूप में मनाने की परंपरा का शुभारम्भ माना जाता है।
वैदिक साहित्य में माँ सरस्वती का महिमागान
वसंत पंचमी को ‘श्री पंचमी’ भी कहते हैं। इस पर्व में माँ सरस्वती की चेतना गहरायी से घुली हुई है। देवी सरस्वती विद्या, कला तथा सुर की देवी हैं। श्रीमद् देवीभागवत, मत्स्य, ब्रह्मवैवर्त, स्कंद पुराण जैसे अनेक धर्मग्रंथों में शतरूपा, शारदा, वीणापाणि, वाग्देवी, वागीश्वरी तथा हंसवाहिनी आदि रूपों में देवी सरस्वती की महिमा का बखान किया गया है। पद्मपुराण कहता है, ‘’ कण्ठे विशुद्धशरणं षोड्शारं पुरोदयाम्। शाम्भवीवाह चक्राख्यं चन्द्रविन्दु विभूषितम्।।‘’ अर्थात् सरस्वती की साधना से कण्ठ से सोलह धारा वाले विशुद्ध शाम्भवी चक्र का उदय होता है जिसका ध्यान करने से वाणी सिद्ध होती है। हमारा ऋषि चिंतन कहता है कि इस संसार को समूचा ज्ञान विज्ञान उन्हीं का कृपा प्रसाद है। उनकी महत्ता को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा रचित ‘दुर्गा सप्तशती’ के 13 अध्यायों में मां आदिशक्ति के तीन प्रमुख रूपों महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती महात्म्य विस्तार से वर्णित है। शक्ति को समर्पित इस पवित्र ग्रंथ में 13 में से आठ अध्याय मां सरस्वती को ही समर्पित हैं, जो अध्यात्म के क्षेत्र में ‘नाद’ और ‘ज्ञान’ की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद के ऋषि द्वारा सृजित ‘असतो मा सदगमय’, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ और‘ मृत्योर्मामृतं गमय’ जैसे दैवीय सूत्र वाक्य युगों युगों से भारतीय मेधा को प्रबोधित करते आ रहे हैं।
पुरा साहित्य में देवी सरस्वती की महिमा का एक अत्यंत रोचक प्रसंग मिलता है। कहते हैं ब्रह्मदेव से मनवांछित वरदान पाने की इच्छा से राक्षसराज रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण ने दस हजार वर्षों तक घोर तपस्या की थी। जब उसकी तपस्या फलित होने का अवसर आया तो देवों ने ब्रह्मदेव से निवेदन किया कि आप इसको वर तो दे रहे हैं लेकिन यह आसुरी प्रवृत्ति का है और आपके वरदान का कभी भी दुरुपयोग कर सकता है, तब ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती का स्मरण किया। माँ सरस्वती कुंभकर्ण की जीभ पर सवार हो गयीं और उनके प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से यह वर मांगा कि- ‘स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम।’ अर्थात मैं कई वर्षों तक सोता रहूं, यही मेरी इच्छा है। इस तरह त्रेता युग में कुंभकर्ण सोता ही रहा और जब जागा तो भगवान श्रीराम उसकी मुक्ति का कारण बने।
माँ सरस्वती के प्रतीकों के प्रेरणादायी शिक्षण
माँ सरस्वती ‘आत्मज्ञान’ की देवी हैं। उनसे जुड़े प्रतीकों में अत्यंत प्रेरणादायी शिक्षण समाये हुए हैं। उनको जिस पाषाण शिला पर बैठा दर्शाया जाता है, वह इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान पाषाण की तरह अचल और निश्चल है वह हर स्थिति में मनुष्य का साथ देता है। इसी तरह देवी सरस्वती का वाद्य यंत्र वीणा यह सीख देता है कि हमारा जीवन मधुर संगीत की तरह सुमधुर रहे। देवी सरस्वती का वाहन हंस नीर क्षीर विवेक का प्रतीक है। यदि हंस को दूध और पानी का मिश्रण दिया जाता है, तो वह उसमे से दूध पी लेता है। यह समझ यह दर्शाती है कि हमें जीवन में नकारात्मक को छोड़ कर सकारात्मकता स्वीकारनी चाहिए।
बसंत पर्व की आध्यात्मिक महत्ता
बसंत की आध्यात्मिक महत्ता को परिभाषित करते हुए युग मनीषी पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य कहते हैं, “वसंत का अर्थ है अपने जीवन की ऊर्जा को उचित महत्त्व देना, तरुणाई को मान देना और सकारात्मक परिवर्तन की ओर कदम बढ़ाना। बसंत मन की हरियाली का क्षेत्र है। जितनी उल्लासपूर्ण श्रेष्ठताएं हमारे भीतर और बाहर हैं, वे वसंत का ही रूप हैं। भारतीय वर्ष का अंत और आरंभ, दोनों बसंत में होते हैं। इस दिन को अबूझ मुहूर्त वाला माना जाता है अर्थात सब कुछ शुभ व मांगलिक। किसके यहां दुःख नहीं है, किंतु वसंत दुःख को ठेलकर एक गहन प्राकृतिक राग देता है और आंतरिक मनोभावों में आत्मीय उल्लास भरता है।‘’
प्रकृति समूचे शृंगार के साथ करती है बसंत पर्व का अभिनन्दन
माँ सरस्वती के अर्चन-वंदन के इस पावन पर्व का अभिनन्दन समूची प्रकृति अपने समस्त शृंगार के साथ करती है। बसंत के आगमन के साथ ही समूची प्रकृति सजीव, जीवन्त एवं चैतन्यमय हो उठती है। पेड़-पौधे नई-नई कोपलों व रंगबिरंगे फूलों से आच्छादित हो जाते हैं। धरती सरसों के फूलों की वासंती चादर ओढ़ लेती है। सुरभित आम के बौर और कोयल की कूक के बीच फूले पलाश के सुर्ख रंग बसंत के आगमन का संदेश प्रसारित कर कुदरत को उमंग व उल्लास का ऐसा आनन्दोपहार सौंपता है जिससे मानव मन पुलकित हो उठता है। मगर; वसंत का अर्थ केवल धरती का श्रृंगार ही नहीं है। वसंत पंचमी धरती पर जीवन के नवोदय व अभ्युदय का एक अनूठा सुअवसर है। वसंत का मूल अर्थ है व्यक्ति के संपूर्ण अस्तित्व का सृजनात्मक राग। आज वन समाप्त हो रहे हैं। हर साल लाखों कारें कचरा बनती जा रही हैं। औद्योगिक धुएं व गहराते प्रदूषण से मनुष्य का ही नहीं प्रकृति का जीवन खतरे में पड़ गया है। अब चिड़ियों के सुमधुर स्वर सुनाई पड़ना कम हो गया है। खाने-पीने की वस्तुओं में कीटाणुनाशकों ने विषाक्तता भर दी है। ऐसी स्थिति में मनुष्य का ज्ञान, तप व प्रेम बाहर ही नहीं उसके भीतर के भी बसंत को बचाए रखने में समर्थ है।
टिप्पणियाँ