23 जनवरी को, कृतज्ञ राष्ट्र नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उनके जन्मदिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करता है, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महानतम दिग्गजों में से एक हैं। इस दिन को ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, जैसा कि मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2021 से इसे संस्थागत रूप दिया गया था। नेताजी ने स्वतंत्र भारत के लिए स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ एक विशाल राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में सबसे महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन यह उनकी रणनीतिक प्रतिभा थी जिसने भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) को एक दुर्जेय लड़ाकू बल बना दिया, जिसकी सैन्य इतिहास में बहुत कम समानताएं हैं।
आईएनए या आजाद हिंद फौज की स्थापना कैप्टन मोहन सिंह ने सितंबर 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में की थी। इसके सैनिक बड़े पैमाने पर ब्रिटिश भारतीय सेना के युद्ध कैदी थे, जिन्हें जापान ने पकड़ लिया था। जापान मलेशिया और सिंगापुर में अंग्रेजों से लड़ रहा था। जापान ने जल्द ही महसूस किया कि आईएनए अंग्रेजों से लड़ने में सहायता करने के लिए एक शक्तिशाली शक्ति नहीं बन पा रहा है । इसलिए, 1943 में, आईएनए की कमान नेताजी सुभाष चंद्र बोस को सौंप दी गई थी। नेताजी अभी-अभी दक्षिण पूर्व एशिया पहुंचे थे और आईएनए को पुनर्जीवित करने के लिए उनके पास बहुत कम समय था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पास कोई औपचारिक सैन्य प्रशिक्षण नहीं था। उन्होंने सबसे पहले आईएनए में शामिल होने के लिए तैयार सैनिकों और अन्य स्वयंसेवकों के चयन में सुधार किया। अपने चरम पर, आईएनए के पास लगभग 50,000 सैनिकों की ताकत थी। आईएनए को गांधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड, सुभाष ब्रिगेड और रानी झांसी रेजिमेंट में संगठित किया गया था। रानी झांसी रेजिमेंट में लगभग 1000 महिलाएं शामिल थीं। महिला योद्धाओं के इस अनूठे प्रयोग का नेतृत्व कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने किया और रेजिमेंट ने इम्फाल की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई। कई मायनों में, रानी झांसी रेजिमेंट आज भारतीय सशस्त्र बलों की महिला अधिकारियों और महिला सैनिकों के लिए अग्रदूत है। महिला कैडर ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में मूल्यवान नर्सिंग सेवा भी प्रदान की।
नेताजी की प्रतिभा अनियमित सैनिकों और स्वयंसेवकों की इस टीम को एक अनुशासित युद्ध बल में आकार देने में निहित है। प्रशिक्षण के लिए ज्यादा समय उपलब्ध नहीं था। हथियार, आयुध और गोला-बारूद बहुत बुनियादी थे। संचार उपकरण दुर्लभ थे और हर उपकरण को अच्छे उपयोग में लाया जाना था। जापानियों ने कुछ सहायता जरूर प्रदान की, लेकिन आईएनए को एक बेहतर और पेशेवर ब्रिटिश सेना और मित्र देशों की सेना से लड़ने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी।
नेताजी ने जल्दी से युद्ध की अनिवार्यता को समझ लिया। उनके तेज दिमाग ने जल्द समझ लिया कि दुश्मन के बारे में खुफिया जानकारी युद्ध में जीत की कुंजी है। हालांकि उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था फिर भी उन्होंने आईएनए के सैनिकों से मिलने के लिए लंबी दूरी तय की। लड़ाई जंगलों, पहाड़ियों, नदी नालों के इलाकों में हो रही थी और यह इलाके घातक मलेरिया से ग्रस्त थे। फिर भी, वह अपने स्वास्थ्य के लिए गंभीर जोखिम पर युद्ध क्षेत्र के अंदरूनी हिस्सों में चले गए। सैनिकों को उनके व्यक्तिगत स्पर्श से बहुत जोश मिला और उन्होंने युद्ध में अपना सर्वश्रेष्ठ दिया।
आईएनए को अनियमित युद्ध और ब्रिटिश टुकड़ियों पर छापे में कुछ शानदार सफलता मिली। दुर्भाग्य से, आईएनए को इसे और अधिक शक्तिशाली बल बनाने के लिए जापान से आवश्यक समर्थन नहीं मिला। वर्ष 1944 में, आईएनए का युद्ध क्षेत्र काफी फैल चुका था और यह इंफाल, कोहिमा, दीमापुर, मांडले, मेकटिला आदि में कई मोर्चों पर लड़ रहा था। युद्ध में नुकसान के गंभीर परिणाम के तहत, आईएनए की ब्रिगेड और रेजिमेंटों को पीछे हटना पड़ा। एक सच्चे सैन्य नेता की तरह, नेताजी ने एक बार फिर अंदरूनी इलाकों की यात्रा की और सैनिकों से मुलाकात की। उन्होंने मेक शिफ्ट अस्पतालों में इलाज करा रहे घायल सैनिकों से मिलने पहुंचे और उनका मनोबल बढ़ाया ।
युद्ध में उलटफेर के बावजूद नेताजी के रूप में सैन्य नेता ने हार नहीं मानी। वह अक्टूबर 1944 के मध्य में बर्मा के रंगून गए और एक बार फिर आजाद हिंद फौज को 50,000 सैनिकों की अपनी चरम ताकत तक पहुंचाया। आईएनए ने एक बार फिर रैली की और एक दृढ़ ब्रिटिश विरोधी के खिलाफ लड़ना जारी रखा। जब जापान ने अंततः 15 अगस्त 1945 को आत्मसमर्पण किया, तो आईएनए ने भी भारत को स्वतंत्रता देने की दिशा में ब्रिटिश साम्राज्य को कमजोर करने के लिए अपने गौरवशाली इतिहास का समापन किया ।
यहां तक कि जब आईएनए सैनिकों पर अंग्रेजों द्वारा राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, तब भी आईएनए के सैनिक स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक केंद्र बिंदु बन गए। आईएनए के संघर्षों ने सार्वजनिक कल्पना को नए मुकाम तक पहुंचाया और यह माना जाता है कि आईएनए द्वारा सशस्त्र अभियान भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत के लिए मजबूर करने वाला एक प्रमुख कारक था। इसलिए हार में भी आईएनए शानदार बनकर उभरी।
उल्लेखनीय है कि नेताजी आईएनए के अंतिम सैन्य अभियान में रंगून से तक लगभग एक महीने तक पैदल चले, जब तक कि वे बैंकॉक नहीं पहुंच गए। एक वृत्तांत में बताया गया है कि एक पड़ाव के दौरान जब उन्होंने अपने जूते उतारे, तो उनके दोनों पैरों में छाले पड़ हुए थे । वह वास्तव में मजबूत नेतृत्व गुणों से भरपूर थे और उनकी गणना एक सर्वोच्च सैन्य नेता में की जाती है ।
जिस तरह से नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने युद्ध में आईएनए का नेतृत्व किया, वह एक प्रशिक्षित और अनुभवी जनरल को शर्मिंदा कर सकता है। नेताजी के सैन्य व्यक्तित्व से भारत के राजनीतिक नेतृत्व के लिए एक बड़ा सबक मिलता है। दुर्भाग्य से, भारत में अधिकांश राजनीतिक वर्ग आधुनिक युद्ध के रणनीतिक मुद्दों और चुनौतियों से ज्यादा अवगत नहीं है। जैसा कि हमने रूस-यूक्रेन युद्ध और इजरायल-हमास-हिजबुल्लाह संघर्ष में देखा है, राजनीतिक नेतृत्व को युद्ध और सैन्य मामलों से पूरी तरह परिचित होना चाहिए। तभी, वे सैन्य पेशेवरों की सलाह के तहत सही रणनीतिक निर्णय लेने में सक्षम होंगे।
पराक्रम दिवस पर नेताजी बोस की सैन्य प्रतिभा को सबसे अच्छी और उचित श्रद्धांजलि यह होगी कि राष्ट्रीय नेतृत्व की एक पूरी पीढ़ी तैयार की जाए जो सैन्य और राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों के प्रति अभ्यस्त हो। वर्तमान सरकार को अपने सैन्य सलाहकारों के रूप में सर्वश्रेष्ठ पेशेवरों को रखना चाहिए, क्योंकि अंततः युद्ध में जाने का निर्णय राजनीतिक नेतृत्व द्वारा लिया जाता है। एक राष्ट्र के रूप में भारत को वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए अपने राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व में अधिक पराक्रम की आवश्यकता होगी । जय भारत !
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