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Subhash Chandra Bose Jayanti Special : अखंड भारत के स्वप्नद्रष्टा सुभाष चंद्र बोस

नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत की पहली आजाद सरकार के संस्थापक थे। उन्होंने अखंड भारत, आध्यात्मिकता, और समग्र शिक्षा नीति पर जोर दिया। जानें उनकी सोच, आजाद हिंद फौज और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका।

Published by
पूनम नेगी

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस सच्चे अर्थों में राष्ट्रपुरुष थे। उन्होंने राष्ट्रनिर्माण का स्वप्न देखा था। उनका सपना था स्वतंत्र, विशाल, महिमाण्डित एवं गौरवशाली भारत के पुनर्निर्माण का। नेता जी का कहना था, “भारत विश्व प्रासाद की नींव का पत्थर है। हमारी धरती, हमारी सभ्यता एवं संस्कृति अति महान और प्राचीन है। यह हमारी जन्मभूमि है, जिसकी धूल में राम और कृष्ण घुटनों के बल चले थे। इसलिए इस मातृभूमि के लिए कष्ट सहना हम भारतीयों के लिए प्रसन्नता का विषय होना चाहिए। जन्मजात आशावादी होने के कारण ‘अखण्ड भारत’ के प्रति उनका दृढ़ आत्मविश्वास था। उनका मानना था कि एक व्यक्ति की भांति प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक विशेष आदर्श होता है। इसी आदर्श में समस्त जीवनदायिनी शक्ति निहित होती है। भारत का यह आदर्श आध्यात्मिकता है। जिसके कारण भारत की सभ्यता और संस्कृति अगणित आघातों को सहने के बावजूद जीवन्त और प्रखर बनी हुई है।

सदविचारों की गौरवपूर्ण सम्पदा के राष्ट्रीय जनजागरण की जरूरत

नेताजी का मानना था कि हमारे पास सदविचारों की गौरवपूर्ण सम्पदा भारी मात्रा में है, जरूरत है तो बस इसके राष्ट्रीय जनजागरण की। भारतभूमि को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करने वाले नेता जी कहा करते थे, ‘’मैं ऐसे गौरवशाली राष्ट्र की कल्पना से ही आत्मविभोर हो उठता हूं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी क्षमता एवं प्रवृत्ति के अनुसार अपनी पूर्णता को प्राप्त करे। उनके मानस पटल पर विशाल राष्ट्र का भव्य स्वरूप था और वे उसकी समग्रता के आराधक एवं उपासक थे। उनकी उन्नत व सशक्त राष्ट्र की व्याख्या उनके इस पत्र से स्पष्ट होती है- “भारत के हिन्दुओं की यह अविच्छिन्न परम्परा रही है कि वह उन सभी समुदाय, जाति तथा वर्गों को समुचित सम्मान देकर प्रतिनिधित्व देते हैं जो भारत को अपनी मातृभूमि मानते हैं। उनकी मान्यता थी कि आदमी केवल रोटी खाकर जीवित नहीं रहता, उसके लिए नैतिक और अध्यात्मिक खुराक की भी आवश्यकता है। धर्म व्यक्ति की आत्मा को बलिष्ठ और शक्तिशाली बनाता है और आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। उनके जीवन पर स्वामी विवेकानन्द का गहरा प्रभाव था। स्वामी जी के विचारों से ही उन्होंने मन की अविचलता, संकल्पों की अडिगता और कर्मयोग की भावना प्राप्त की थी। 4 अप्रैल 1927 को अपने एक मित्र गोपाल सान्याल को लिखे एक पत्र में उनके राष्ट्रनिष्ठा के यही भाव परिलक्षित होते हैं। इस पत्र में नेता जी अपने भावोद्गार वयक्त करते हुए लिखते हैं, “हे प्रभु! तुम्हारी पताका लेकर चल रहा हूं। मुझे इसे वहन करने की शक्ति देना। मुझे पता नहीं कि भविष्य के गर्भ में मेरे लिए क्या है लेकिन स्वयं के अंतस को विकसित करते जाने में अनन्त आनन्द की अनुभूति होती है।” राष्ट्र-निर्माण में आने वाले कष्टों को ईश्वरीय वरदान समझने वाले नेता जी का देश की युवा शक्ति से आह्वान था, ‘’ऐ युवाओं! तुम ही वह शक्ति हो, जिसके बल पर भारतमाता के अधिकारों की रक्षा सम्भव है। मत भूलो कि शक्तिहीनता सबसे बड़ा अभिशाप है। मत भूलो की असत्य और अन्याय से समझौता करना सबसे बड़ा पाप है। इस शाश्वत नियम को सदा याद रखो कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष जीवन का सबसे अहम कर्तव्य है, फिर उसके लिए चाहे कितना ही बड़ा मूल्य क्यों न चुकाना पड़े।

सार्वजनिक सेवा का जीवन संन्यास की तरह होना चाहिये

काबिलेगौर हो कि सार्वभौम भारत के स्वप्नद्रष्टा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उस समाजवाद के हिमायती थे जिसका मूल भारत की संस्कृति और सभ्यता में सन्निहित हो। अपनी इस विचारधारा को स्पष्ट करते हुए “इण्डियन स्ट्रगल” में वे लिखते हैं, ‘’भारतवर्ष को अपने भूगोल और इतिहास के अनुसार समाजवाद का विकास करना चाहिए। सम्पूर्ण समाज के लिए स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ है- पुरुष के साथ स्त्री की स्वतन्त्रता, उच्च जातियों के साथ दलितों का उत्थान, केवल धनवानों के लिए ही नहीं अपितु निर्धनों के लिए भी। समाज में सबको शिक्षा और विकास के समान अधिकार मिलना चाहिए क्यूंकि समानता, न्याय, स्वतन्त्रता अनुशासन और प्रेम ही सामूहिक जीवन का आधार है। उनका कहना था कि पिछले अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हमें किसी नयी राजनैतिक प्रविधि का प्रादुर्भाव करना पड़ेगा। नेता को जनता का सेवक होना चाहिए। सार्वजनिक सेवा का जीवन संन्यास की तरह होना चाहिये। इसके लिए हमारा सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि हम इस प्रकार के स्त्री-पुरुषों का समूह संगठित करें जो अधिक से अधिक कष्ट सहने व बलिदान को सहर्ष प्रस्तुत हों।

राष्ट्रीय भावना से युक्त शिक्षा के पक्षधर

राष्ट्रनायक सुभाष उस शिक्षा के पक्षधर थे जो राष्ट्रीय भावना से युक्त हो। वे इस बात को गहराई से जानते थे कि किसी राष्ट्र के निर्माण के लिए उसकी योजनाओं की अपेक्षा उसकी शिक्षा को सोद्देश्य रूप देना अधिक महत्वपूर्ण है। नवम्बर 1944 में टोकियो विश्वविद्यालय के छात्रों के सम्मुख व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा भी था कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही छात्र-छात्राओं में राष्ट्रीय भावनाओं के प्रति रुझान उत्पन्न करना चाहिए ताकि उन्हें अपने देश की संस्कृति और उसकी गौरव-गरिमा का बोध हो सके। ऐसी शिक्षा ही विद्यार्थियों में राष्ट्रीय संवेदना को दृढ़ कर सकती है। इससे ऐसे नागरिक उत्पन्न होंगे जो राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर सकेंगे। यही नहीं सन् 1924 में माण्डले जेल से सुभाषचन्द्र बोस ने कलकत्ता के अपने एक अन्य समाजसेवी मित्र हरिचरण बागची को लिखे पत्र में लिखा था, “बच्चा अपनी समस्त ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से वस्तुओं को परखना चाहता है। अतः प्रकृति के इस नियम का पालन करते हुए बच्चों को उचित शिक्षा देनी चाहिए। छात्रों को केवल सैद्धान्तिक शिक्षा देकर ही संतोष नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि उन्हें विभिन्न उद्योगों एवं कलाओं की शिक्षा देने की व्यवस्था भी करनी चाहिए। शिक्षा के माध्यम से बच्चों की सृजनात्मकता, मौलिकता और व्यक्तित्व विकास के लिए सुअवसर प्रदान करना चाहिए। विद्यार्थियों को अनुशासन, तथा ब्रह्मचर्य का पाठ भी पढ़ाना चाहिए, जिससे वे शारीरिक और बौद्धिक रूप से बलिष्ठ हों। उनका कहना था कि राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास के लिए समग्र शिक्षा नीति की आवश्यकता है। विश्वविद्यालय के छात्र समाज और देश के प्रति महान उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकते हैं।

राष्ट्रवाद के साथ साम्यवाद की कोई सहानुभूति नहीं

“इण्डियन स्ट्रगल” में उन्होंने लिखा है कि भारत साम्यवाद को नहीं अपनाएगा क्योंकि राष्ट्रवाद के साथ साम्यवाद की कोई सहानुभूति नहीं है और भारतीय आन्दोलन एक राष्ट्रीय आन्दोलन है। सुभाष बोस ने हरिपुरा में 1938 की 51 वें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में दिये गये अपने भाषण में कहा था, ” हमें अत्यंत सावधानीपूर्वक इस बात पर विचार करना होगा कि चाहे हम आधुनिक औद्योगिकवाद को कितना ही नापसन्द करें, तब भी हम औद्योगिक पूर्व अवस्था में वापस नहीं लौट सकते। अतः ऐसा उपाय करें, जिससे उसकी बुराइयां कम हों तथा बन्द पड़े कुटीर उद्योगों को फिर से शुरु करने की सम्भावना बढ़े। हमें उत्पादन तथा वितरण के लिए एक ऐसी व्यापक योजना बनानी होगी, जिससे समस्त कृषि तथा औद्योगिक प्रक्रिया का धीरे-धीरे समाजीकरण किया जा सके। आर्थिक योजना पर सर्वाधिक प्रभाव जनसंख्या का पड़ता है। उन्होंने इस बारे में कहा था, जिस देश में लोग गरीबी, भुखमरी और रोगों से पीड़ित रहते हों उसमें यह सहन नहीं किया जा सकता कि एक ही दशक में उसकी जनसंख्या करोड़ों बढ़ जाए।

भारत की पहली आजाद सरकार

आजाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे; अमूमन हर देशवासी यही जानता है। लेकिन उपलब्ध साक्ष्य इस बात की तस्कीद करते हैं कि पंडित नेहरू से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारत की पहली आजाद सरकार गठन किया था। वे ही भारत की पहली आजाद सरकार के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री थे। जानना दिलचस्प हो कि साल 2017

मोदी सरकार ने नेताजी की आजाद सरकार को मान्यता देते हुए 21 अक्टूबर

2017 को भारत की पहली आजाद सरकार की 75वीं वर्षगांठ मनायी थी। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ लाल किले में आजाद हिंद फौज़ संग्रहालय का उद्घाटन किया था अपितु अंडमान निकोबार जाकर उन्होंने नेताजी को श्रध्दाजलि भी अर्पित की जहां 77 साल पहले 30 दिसंबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने पहली बार तिरंगा फहराया था। कहा जाता है कि उस वक्त नौ देशों की सरकारों ने सुभाष चंद्र बोस की सरकार को अपनी मान्यता दी थी। जापान ने 23 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सरकार को मान्यता दी। उसके बाद जर्मनी, फिलीपींस, थाईलैंड, मंचूरिया और क्रोएशिया ने भी आजाद हिंद सरकार को मान्यता दी थी। 18 मार्च 1944 को सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज ने भारत की धरती पर कदम रखा था और उस जगह को अब नागालैंड की राजधानी कोहिमा के नाम से जाना जाता है।

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