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‘राम मंदिर भारत के सौभाग्य का सूर्योदय’- गजेंद्र सिंह शेखावत

‘बात भारत की : अष्टायाम’ कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र ‘संस्कृति संवाद’

by पाञ्चजन्य ब्यूरो
Jan 19, 2025, 12:59 pm IST
in संस्कृति, साक्षात्कार, दिल्ली
गजेंद्र सिंह शेखावत

गजेंद्र सिंह शेखावत

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‘बात भारत की : अष्टायाम’ कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र ‘संस्कृति संवाद’ में केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से वरिष्ठ पत्रकार अनुराग पुनेठा  ने बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के  अंश – 

पिछले एक दशक से भारतीय संस्कृति का एक प्रकार से पुनर्जागरण देखा जा रहा है। लोग गर्व से अपनी संस्कृति की बात करने लगे हैं। इसे आप किस तरह देखते हैं?
देश के 140 करोड़ लोग भारत की संस्कृति से पूरी तरह कट गए, ऐसा कभी नहीं हुआ। तमाम झंझावात झेलने और सैकड़ों वर्षों के आक्रमणों के बावजूद ऐसा नहीं हुआ। लेकिन संस्कृति को पुष्पित-पल्लवित होने के लिए कालांतर में राज्य से जिस प्रकार का सहयोग मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। दुर्भाग्य से जिस तरह के लोग सरकार में थे और उसमें बैठे लोगों के मन में भी सांस्कृतिक चेतना और धरोहर के प्रति आदर का भाव नहीं था। लेकिन पिछले 10 वर्ष में नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद पहली बार सरकार में बैठे लोगों ने जब से अपनी संस्कृति पर गर्व करना शुरू किया है, तो उसे लेकर एक नई चेतना निश्चित तौर पर दिखाई दे रही है।

भारत की स्वीकार्यता, यहां से निकले ज्ञान और इसके विभिन्न आयाम, जो आज से नहीं, हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा थे। जिसे हमारे ऋषियों-मनीषियों ने खोजा और मनुष्य के कल्याण के लिए स्थापित किया था, वे पूरी तरह वैज्ञानिक रूप से सत्यापित भी हैं। लेकिन दुर्भाग्य से उस ज्ञान परंपरा को सहेजा नहीं गया। पिछले दस साल में भारत ने जिस गति के साथ प्रगति की, उसके चलते विश्व पटल पर भारत के प्रति एक आदर भाव बना। साथ ही, भारत और यहां के लोगों ने जब अपनी संस्कृति और इसके मूल तत्वों पर गर्व करना प्रारंभ किया, तो एक बार फिर से भारत के सांस्कृतिक मान बिंदुओं की पहचान पूरे विश्व में नए सिरे से लिखी जा रही है। इसलिए पूरी जिम्मेदारी के साथ यह कहा जा सकता है कि भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का काल अब प्रारंभ हुआ है।

कुछ दिन पहले मैंने एक बात कही थी कि 450-500 साल पहले बाबर के सेनापति ने राम मंदिर को तोड़ा था, जिसे बचाने के लिए उस दौरान भी अनेक लोगों ने अपना बलिदान दिया। भगवान श्रीराम का मंदिर टूटने के साथ ही भारत के सौभाग्य का सूर्य अस्त हो गया था। लेकिन 500 साल की अमावस काटकर अयोध्या में जब से राम मंदिर बना है, तब से भारत की संस्कृति और सौभाग्य का सूर्य फिर से उदित हुआ है। आप देखिए न, पूरे विश्व में भारत के योग, आयुर्वेद, कृषि पद्धति, भारत की जीवन पद्धति की और भारत के पारिवारिक मूल्यों की जिस तरह से स्वीकार्यता नए सिरे से बन रही है, यह स्वीकार्यता ही आने वाले समय में विश्व पटल पर भारत के लिए आदर का भाव सृजित करेगी।

गजेंद्र सिंह शेखावत से बातचीत करते अनुराग पुनेठा

संस्कृति मंत्री के तौर पर आप भारत को किस तरह से देखते हैं? 
हाल ही में मैंने एक नोबुल विजेता का आलेख पढ़ा, जिसमें उन्होंने कहा कि दुनिया का कोई भी देश विश्व का नेतृत्वकर्ता देश तभी बन सकता है जब वह आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो। भारत जिस दिशा में और जिस गति से आगे बढ़ रहा है, उसके बारे में हम जानते हैं। भारत की आर्थिक रफ्तार कितनी तेज है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही है, तब भी हम एक ध्रुव तारे की तरह चमक रहे हैं। लेकिन जिन देशों ने केवल आर्थिक दृष्टि से प्रगति की, उनकी प्रति व्यक्ति आय दुनिया में सबसे अच्छी है, फिर भी दुनिया में वे नेतृत्वकर्ता देश नहीं हो सकते। ऐसे अनेक देशों के उदाहरण दिए जा सकते हैं।

दूूसरा विषय नोबुल विजेता ने यह रखा कि किसी भी देश को आर्थिक दृष्टि से आगे बढ़कर विश्व का नेतृत्वकर्ता बनना है तो उसे सामरिक दृष्टि से भी खुद को शक्तिशाली बनाना होगा। पिछले 10 साल में भारत ने रक्षा के क्षेत्र में तेज प्रगति की है। हम कुछ ही चीजों का आयात कर रहे हैं। इसी को अगर दूसरे नजरिए से देखें तो दुनिया के ऐसे देश, जिनके पास बहुत मिलिट्री पॉवर है। हम देख रहे हैं कि एक देश (इस्राएल) अपने 8 पड़ोसियों से अकेले लड़ रहा है, लेकिन वह भी कभी दुनिया का नेतृत्वकर्ता नहीं बन सकता।

लेख में तीसरा दृष्टिकोण था, इससे भी आगे बढ़कर अगर किसी देश को विश्व का नेतृत्व करना है तो उसे आर्थिक और सामरिक के साथ-साथ तकनीकी तौर पर दक्ष होना पड़ेगा। केवल तकनीक की बदौलत कोई देश विश्व में सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता। तकनीक के मामले में पावर हाउस कहे जाने वाले जापान से लेकर ताइवान का हाल हम देख चुके हैं। तकनीक के क्षेत्र में भी भारत ने महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। सेमी कंडक्टर से लेकर अन्य तकनीकी क्षेत्रों में भारत ने अपनी पहचान बनाई है। उससे भी बड़ी बात यह है कि भारत में जिस तरह से संभावनाओं के नए दौर का सूत्रपात हुआ है, उसके चलते प्रतिभा पलायन न केवल रुका है, बल्कि प्रतिभा भारत में ही ठहर रही है। इसके कारण भी भारत की क्षमताओं का संवर्धन हो रहा है। लेकिन केवल इस तकनीकी शक्ति के आधार पर भी वह सम्मान प्राप्त नहीं किया जा सकता। भारत में इन तीनों क्षेत्रों में संभावनाएं हैं और वह इसमें आगे बढ़ रहा है।

चौथी और सबसे महत्वपूर्ण है, सॉफ्ट पावर जो किसी भी देश को दुनिया में सम्मान दिलाती है। भारत की सॉफ्ट पावर, उसकी सांस्कृतिक एवं वैचारिक ताकत ही उसे विश्व का नेतृत्वकर्ता बनाएगी। जिस प्रकार से हम इन चारों स्तम्भों को और मजबूत बना रहे हैं, जब से हमने खुद की संस्कृति का सम्मान करना शुरू किया है, तभी से पूरी दुनिया ने हमारा सम्मान करना शुरू किया है, क्योंकि दुनिया में कमजोर का कोई सम्मान नहीं करता। यही विश्व गुरु बनने का रास्ता है।

भारत की सांस्कृतिक समृद्धि या फिर सांस्कृतिक पहचान के साथ सामाजिक समरसता के भाव को आप कैसे देखते हैं?
दरअसल, जिन लोगों ने यह विमर्श खड़ा किया कि भारत विविधताओं और अनेकता में एकता वाला देश है, वे भारत की सांस्कृतिक आत्मा को पहचानते ही नहीं थे। भारत में ऊपरी तौर पर कितनी भी विविधताएं दिखाई देती हों, वे चाहे सांस्कृतिक हों, शिल्प हो, परिधान हो या फिर कोई और। राजस्थान की संस्कृति के ही एक हजार रंग हैं। इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारत जैविक रूप से एक था, हमारी मान्यताओं, आस्थाओं, त्योहारों, हमारी नदियों, हिंदी और कुंभ के चलते। कुंभ में 45 करोड़ लोग आएंगे। लोग समरसता की बात करते हैं, भारत में समरसता की आवश्यकता को लेकर चर्चा करते हैं। मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूं कि कुंभ में आने वाले करोड़ों लोगों से क्या कोई पूछता है कि वे किस जाति, संप्रदाय या पूजा-पद्धति को मानते हैं या किस प्रांत या क्षेत्र से आए हैं। भारत के मूल तत्व को न समझने वाले लोगों ने ही इस तरह के विचारों को खड़ा किया। मैं ये मानता हूं कि भारत एक था और एक है। क्या किसी के शरीर को देखकर किसी ने सवाल किया कि आपके हाथ या पांव को समरसता की आवश्यकता है, क्योंकि समरसता का सूत्र व्यक्ति की आत्मा में निहित होता है। उस पर किसी तरह के विमर्श की आवश्यकता नहीं है।

समरसता का भाव पिछले 10 वर्ष में अधिक पुष्ट हुआ है। क्या आप मानते हैं कि इसे और अधिक प्रगाढ़ होते जाना चाहिए?
ऐसे लोग जिनकी मानसिकता ही गुलामी से भरी हुई थी, उनके चलते हुए ‘डाइवर्सिटी’ की यह परिस्थिति खड़ी हुई। लेकिन अब जबकि सोच, विचार और दृष्टिकोण बदल रहा है तो यह विमर्श बदलेगा। भारत के विचारों को भारत में खड़ा करने की जरूरत ही नहीं। अगर हम उस तरीके से सोचने लगें तो वैसा विमर्श अपने आप ही खड़ा हो जाएगा। भारत परंपरा से ही नेतृत्व करने वाले लोगों का देश रहा है। जिस तरह से उस दौरान लोग नेतृत्व कर रहे थे, उनकी मानसिकता छनते हुए नीचे तक आई थी। सातवीं सदी में हर्षवर्धन के समय में भारत उस तरीके से सोच रहा था और पुष्यमित्र शुंग के काल में भी उसी दृष्टि से सोच रहा था। उसी प्रकार से पिछले 10 साल में भारत में जिस प्रकार से ऊपर से नीचे तक लोगों की सोच बनी है, यह विमर्श अपने आप ही धरातल पर बैठे अंतिम व्यक्ति तक गया। धरातल पर बैठे व्यक्ति के विचार पहले भी अपने सांस्कृतिक मूल्यों की ओर थे और अब भी हैं। लेकिन उसके विचार ऊपर बैठे लोगों से प्रभावित होते हैं। यह पुनरुद्भव का दौर है। अब ऊपर और नीचे बैठे लोगों के बीच की खाई को पाटना है। अब यह ऊपर पहुंचता हुआ दिखेगा।

हम सुनते आए हैं कि यह ‘आइडिया आफ इंडिया’ है। क्या नया भारत अपनी ‘रिपैकेजिंग’ करने की कोशिश में है?
देखिए, किसी भी प्रकार की पैकेजिंग की जरूरत नहीं है। जिस प्रकार अंगारे के ऊपर थोड़ी से राख जम जाती है, तो उसे केवल झाड़ने की जरूरत होती है। वह राख अब झड़ गई है। अब जो भारतीयता की हवा चलेगी और उससे जो अग्नि प्रज्ज्वलित होगी, उससे अपने आप ही उजियारा चारों तरफ फैलेगा।

आपने विकास और विरासत की बात की। सरकार भी ‘क्रिएटिव इकॉनोमी’ की बात कर रही है। आप कुंभ में गए थे, वहां आपको कैसी झलक दिखी? 
कुंभ के धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा कई वर्षों से हो रही है। अगर हम वैश्विक पटल पर पर्यटन की बात करें तो फ्रांस में हर साल 4 करोड़ लोग आते हैं, थाइलैंड में 4 करोड़ लोग आते हैं, सिंगापुर में 2 करोड़ लोग आते हैं। दुबई में ढाई करोड़ लोग आते हैं, लेकिन भारत में एक करोड़ 30 लाख लोग ही आते हैं। लेकिन वे भारत को भारत की नजर से नहीं देखते। यहां हर 12 साल में 45 करोड़ लोग इकट्ठे होते हैं। दुनिया के सारे पर्यटन को इकट्ठा कर दें तो भी कुंभ की बराबरी नहीं हो सकती। अगर हम अपने धार्मिक स्थानों की बात करें तो केवल उज्जैन में ही महाकाल के दर्शन के लिए साल में 4.5 करोड़ लोग आते हैं। लेकिन हमने कभी उस अर्थतंत्र को व्यवस्थित नहीं किया। कुंभ की दृष्टि से देखें तो 45 करोड़ लोग अपने घरों से निकल कर वहां पहुंचेंगे तो वह अपने आप में जीडीपी में कितना बड़ा योगदान होगा। इस कुंभ के बाद भारत की तरफ देखने का पूरी दुनिया का दृष्टिकोण बदलने वाला है। कुंभ भारत के लिए भारत को विराट रूप में देखने का अवसर है।

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