साक्षात्कार

‘संवैधानिक व्यवस्था नहीं कॉलेजियम’ – अर्जुन राम मेघवाल

पाञ्चजन्य के 78वें स्थापना वर्ष पर भारत की प्रगति के आठ केंद्रों पर आधारित कार्यक्रम

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पाञ्चजन्य ब्यूरो

पाञ्चजन्य के 78वें स्थापना वर्ष पर भारत की प्रगति के आठ केंद्रों पर आधारित कार्यक्रम ‘अष्टायाम’ में केंद्रीय कानून और संसदीय कार्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल से वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव ने ‘संविधान : देश  का अभिमान’ विषय पर बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश-

जिन लोगों ने पहला संविधान संशोधन ही अभिव्यक्ति की आजादी के विरुद्ध किया था। आज वही लोग मीडिया की आजादी की बात कर रहे हैं। इस पर क्या कहना चाहेंगे?
संविधान का पहला संशोधन 1951 में पंडित नेहरू के कार्यकाल में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए किया गया था। आज कांग्रेस लोगों को भ्रमित करने के लिए कह रही है कि भाजपा सरकार संविधान को बदल रही है। चाहे नेहरू जी का कार्यकाल हो या फिर इंदिरा जी, वास्तव में कांग्रेस के ही शासन के दौरान सबसे अधिक संविधान से छेड़छाड़ की गई। इंदिरा जी ने तो देश में आपातकाल लगाकर संविधान की ‘हत्या’ तक कर दी थी। 39वां संविधान संशोधन तो संविधान की भावना के विरुद्ध था। इसके माध्यम से राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव के विरुद्ध समीक्षा के लिए किसी को किसी न्यायालय में जाने से भी रोका गया था।

अर्जुन राम मेघवाल से बात करते प्रखर श्रीवास्तव

लोकसभा की अवधि 5 साल होती है, लेकिन कांग्रेस ने उसे 6 साल कर दिया था। संविधान की आत्मा है प्रस्तावना। इसमें भी कांग्रेस ने बदलाव कर दिया था। ऐसे लोग जब संविधान की बात करते हैं, तो हंसी आती है। फर्जी विमर्श चलाने वालों को 2024 के लोकसभा चुनाव में कुछ सीटें मिल गईं, तो उन्हें लग रहा है कि इसी विमर्श के कारण उनकी सीटें बढ़ी हैं। इसीलिए ये लोग जोर-जोर से संविधान, संविधान चिल्ला रहे हैं। इस दौरान ये लोग संवैधानिक व्यवस्था को भी ठेंगा दिखाते हैं। व्यवस्था है कि सांसद के नाते शपथ लेते समय आपके हाथ में शपथपत्र के अलावा कुछ और नहीं होना चाहिए। बावजूद इसके वे लोग शपथ लेने के दौरान संविधान दिखा रहे थे। यह भी वह इंसान कर रहा था (राहुल गांधी), जिसकी पार्टी ने सबसे अधिक संविधान को तोड़ा-मरोड़ा है। ये लोग 1951 से ही फर्जी विमर्श चलाते आ रहे हैं, लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में इसकी हवा निकल गई। जनता को भी सच समझ में आ चुका है।

क्या आपको लगता है कि 2024 के चुनाव या फिर उसके बाद भी फर्जी विमर्श की लड़ाई से निपटने में भाजपा पिछड़ गई?
ऐसा नहीं है। हमने इस विमर्श को रोकने का बार-बार प्रयास किया है, लेकिन आज सोशल मीडिया बहुत ही व्यापक हो गया है। उसमें यदि कोई पोस्ट बार-बार डाली जाती है, तो वह तेजी से वायरल होती है।

आपकी सरकार पर मीडिया पर नियंत्रण करने के आरोप लगते हैं।
हम किसी मीडिया को नियंत्रित नहीं करते हैं। वह अपने तरीके से ही काम करता है। आप खुद देख सकते हैं कि मीडिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के बारे में कैसी-कैसी बातें की जाती हैं। ये बातें विपक्ष के नेता भी मीडिया के माध्यम से ही कहते हैं। इसलिए मीडिया पर नियंत्रण की बात बेमानी है। इसे ही फर्जी विमर्श कहते हैं, लेकिन अब इसकी हवा निकल  चुकी है।

कांग्रेस के नेता 26 जनवरी को महू पहुंच रहे हैं और अब तो उनके साथ ‘जय भीम’ का नारा लगाने वाले भी जुड़ गए हैं। यानी एक बार फिर से वे झूठा विमर्श चलाना शुरू कर देंगे?
बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्म 1891 में महू में हुआ था, तब महू छावनी थी। देश आजाद होने के बाद कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन उन्हें महू की जरा सी भी याद नहीं आई। जब महू में बाबासाहेब का स्मारक बनाने को लेकर किसी ने नेहरू जी को पत्र लिखा तो उन्होंने जवाब दिया कि किसी निजी साधन से स्मारक बना लो। शायद राहुल गांधी को यह पता नहीं, लेकिन नेहरू जी को लिखा पत्र आज भी है। मध्य प्रदेश में जब सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तब महू में बाबासाहेब का स्मारक बनाया जा सका। कोई भी कांग्रेसी प्रधानमंत्री कभी महू नहीं गया। महू जाने वाले एकमात्र प्रधानमंत्री हैं नरेंद्र मोदी। वे 14 अप्रैल, 2016 को महू गए और बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को श्रद्धांजलि अर्पित की।

लगता है कि वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति (जे.पी.सी.) में भेजकर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। क्या इससे सरकार की मंशा पर शक नहीं होगा? 
इस पर किसी तरह की शंका करने की जरूरत नहीं है, जल्दी ही संसद में इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे। इस विधेयक को मोदी सरकार ही लेकर आई है। विपक्ष की मांग थी कि इसे जे.पी.सी. के पास भेजा जाए। जे.पी.सी. के अध्यक्ष जगदंबिका पाल के नेतृत्व में लगातार बैठकें हो रही हैं। उन्होंने कई राज्यों का भी दौरा किया है। वे इससे जुड़े कई स्थानों पर भी गए हैं। तेजी से कार्रवाई चल रही है। जब यह विधेयक संसद में रखा गया था, तब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि वक्फ की जमीन पर तो कलेक्टर तक को जाने का अधिकार नहीं है। यानी यह गंभीर मामला है। इसलिए इस पर जल्दी ही कुछ हो जाएगा।

क्या सरकार के पास पूजा स्थल कानून-1991 में संशोधन करने का कोई प्रस्ताव है?
यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। इसलिए मुझे इस पर कुछ टिप्पणी नहीं करनी है, लेकिन, हां, जब भी सरकार से कोई शपथपत्र मांगा जाएगा तो देशहित में ही काम किया जाएगा।

क्या ‘कॉलेजियम सिस्टम’ में सुधार की गुंजाइश है और इसके बारे में सरकार कुछ सोच रही है?
संविधान में ‘कॉलेजियम सिस्टम’ का कोई प्रावधान नहीं है। 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 124 की व्याख्या की, उसकी उत्पत्ति वहीं से हुई। उसके बाद से ही इसकी एक व्यवस्था चल पड़ी। देश की बागडोर संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ बनाया। इसका प्रस्ताव दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित हुआ था। देश के आधे से अधिक राज्यों ने भी उसका अनुमोदन किया, लेकिन यह मामला न्यायिक समीक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय गया तो उसे अमान्य करार दे दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न्यायिक व्यवस्था में सुधार के पक्षधर रहे हैं। अगर आप 2004-2014 की न्यायिक नियुक्तियों के आंकड़ों को देखेंगे तो उनमें आपको इसका ज्यादा प्रभाव देखने को मिलेगा, लेकिन 2014-24 के बीच ‘कॉलेजियम सिस्टम’ का कम प्रभाव देखने को मिल रहा है। हम सुधार की ओर बढ़ रहे हैं।

आई.ए.एस., आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. की ही तरह भारतीय न्यायिक सेवा को लेकर चर्चा क्यों नहीं होती?
अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का विषय लंबे वक्त से विचार में है। संविधान की धारा 312 में एक बार संशोधन किया गया, लेकिन संविधान की मूल भावना, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने ही तय किया है, वह है न्यायालयों की स्वतंत्रता। न्यायपालिका के मामले में सरकार का कितना दखल हो, इसको लेकर एक बारीक संबंध बना हुआ है। न्यायिक सेवा को लागू करने में हम लगे हुए हैं।

निचली अदालतों के न्यायाधीशों की एक शिकायत रहती है कि  उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश ज्यादातर वकील बन रहे हैं और उनकी संख्या कम हो रही है। उन्हें उनके अनुभवों का लाभ क्यों नहीं मिल रहा है?
यह सही बात है। शायद ही जिला अदालत का कोई न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा होगा, जबकि इसका कोटा होता है। अधिकतर उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश ही सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचते हैं। जिला अदालतों से उच्च न्यायालय पहुंचने के लिए कोटा निर्धारित है, लेकिन सुझावों पर ‘इनपुट’ लेना चाहिए।

क्या देश के चार कोनों में सर्वोच्च न्यायालय की अलग-अलग पीठों का गठन नहीं हो सकता?
यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में गया था। इस पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि अभी इसकी आवश्यकता नहीं है। यह दिल्ली में ही रहेगा।

अक्सर देखा जाता है कि अदालतों में लंबित मामलों पर अदालत और सरकार की तरफ से अलग-अलग रुख आते हैं। यह कब बंद होगा?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद हमने एक प्रक्रिया शुरू की है, जिसे हम ‘एजिंग एनालिसिस’ कहते हैं। इसमें यह देखा जाता है कि अगर किसी अदालत में कोई मामला लंबित है, तो कितने साल से लंबित है। इसकी समीक्षा करने के बाद हमने ई कोर्ट-3 बनाकर उसे इसका हिस्सा बना दिया है। इसके बाद लोक अदालतों के कामों में भी तेजी आई है, साथ ही मामलों के निस्तारण में तेजी आई है। जिला अदालतों में ही सबसे अधिक मामले लंबित हैं। इनकी संख्या 4.5 करोड़ के आसपास है। तारीख पर तारीख प्रथा समाप्त करने के लिए मैंने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के सामने भी इस मामले को उठाया है।

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