पाञ्चजन्य 78वां स्थापना वर्ष : संघर्ष की डगर, विमर्श की गाथा
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पाञ्चजन्य 78वां स्थापना वर्ष : संघर्ष की डगर, विमर्श की गाथा

पाञ्चजन्य की इस अप्रतिम यात्रा ने 78 वर्ष पूर्ण किए हैं। तो यह समय है उस प्रण को पुन: दोहराने का कि राष्ट्र प्रथम की कसौटी अपनाए रखकर संघर्ष की लेखनी विमर्श की राह गढ़ती रहेगी। इस पर न कभी समझौता किया है, न आगे कभी किया जाएगा।

by हितेश शंकर
Jan 18, 2025, 08:07 am IST
in विश्लेषण
दीप प्रज्ज्वलित कर ‘अष्टायाम’ का शुभारम्भ करते हुए (बाएं से) श्री गजेन्द्र सिंह शेखावत, श्री अरुण गोयल, श्री भारत भूषण, श्री हितेश शंकर और श्री बृज बिहारी गुप्ता

दीप प्रज्ज्वलित कर ‘अष्टायाम’ का शुभारम्भ करते हुए (बाएं से) श्री गजेन्द्र सिंह शेखावत, श्री अरुण गोयल, श्री भारत भूषण, श्री हितेश शंकर और श्री बृज बिहारी गुप्ता

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15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता मिल गई थी, मगर उसके बाद क्या! देश की गुलामी की जंजीरें टूटने के बाद क्या संचार माध्यमों का काम खत्म हो गया? सरकार के आने के बाद उनका काम खत्म हो गया? संचार माध्यम सिर्फ सरकार की बात करेंगे या सरोकारों की भी बात करेंगे? स्वतंत्रता के बाद संचार माध्यमों की भूमिका क्या हो? क्योंकि स्वतंत्रता के आनंद और विभाजन के दंश के बीच कसमसाते राष्ट्र में पं. नेहरू को सत्ता सूत्र सौंपे जाने से असंतोष का भाव था।

ऐसी परिस्थिति में आहत हिंदू समाज की बात कहने, उनका दर्द सामने रखने वाला सरकारी मानस तो था ही नहीं। संचार माध्यमों पर भी साम्यवादी छाया थी। ऐसे में, दो मनीषियों यथा पं. दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी ने श्री भाउराव देवरस के सान्निध्य और प्रेरणा से एक ऐसे साप्ताहिक के प्रकाशन की कल्पना को मूर्तरूप दिया जो पंथनिरपेक्षता के सही मायनों को प्रतिपादित करते हुए बहुसंख्यक समाज की आवाज बना। 1948 के मकर संक्रांति के पावन दिन पाञ्चजन्य का प्रथम नाद गूंजा।

देश ने पहली बार अनुभव किया कि राष्ट्रनिष्ठ पत्रकारिता क्या होती है और ‘राष्ट्र प्रथम’ के मायने क्या हैं! नेहरू कसमसा कर रह गए और मौके देखने लगे कि कैसे पाञ्चजन्य के स्वर को बंद किया जाए। मौका मिला गांधी जी की हत्या से उपजे असमंजस में। झूठे आरोप गढ़कर रा.स्व. संघ के साथ साथ पाञ्चजन्य पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन जल्दी ही नेहरू को अपनी गलती का भान हुआ और पाञ्चजन्य का फिर से प्रकाशन होने लगा।

पं. दीनदयाल जी के विचारोत्तेजक आलेख, अटल जी की धारदार लेखनी ने देखते ही देखते सरकार को हिन्दू बहुल राष्ट्र के असल सरोकारों पर गौर करने को विवश कर दिया।

तत्कालीन सरकार की हिन्दू शरणार्थियों के प्रति उदासीनता, कश्मीर, पाकिस्तान और चीन से मिल रही चुनौतियां जैसे विषयों को प्रमुखता से स्वर देकर पाञ्चजन्य ने राष्ट्रीय विचारों में पगी पत्रकारिता से देश को परिचित कराया। तिब्बत में बढ़ते कम्युनिस्ट चीन के शिकंजे पर एक के बाद एक लेख और रिपोर्ट प्रकाशित कीं। चाउ एन लाई के ‘मोह’ में पड़े असावधान नेहरू को बार—बार झकझोरा लेकिन साम्यवादी सोच में ‘हिन्दू—चीनी भाई भाई’ के नारे लगाते नेहरू की वजह से राष्ट्र को न सिर्फ ’62 के युद्ध में हार का मुंह देखना पड़ा बल्कि धूर्त चीन ने भारत के एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया।

कश्मीर पर पाकिस्तान की वक्र दृष्टि को 1948 से ही पूरा देश देख—समझ रहा था तो सिर्फ पाञ्चजन्य की बेबाक पत्रकारिता की वजह से ही। कश्मीर के टुकड़े करने वाले पाकिस्तान ने 1972 में तत्कालीन इंदिरा सरकार की ‘दरियादिली’ से जम्मू कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा ‘अपना’ बना लिया। 1971 के युद्ध की विजय शिमला में इंदिरा गांधी ने पराजय में बदल दी। शिमला में हुई भारतीय कूटनीति की हार के मायने कितने गंभीर हैं, यह पाञ्चजन्य ने स्पष्ट रूप से बताया था।

आंतरिक सुरक्षा, विदेश नीति, रक्षा, कृषि, अर्थव्यवस्था, क्रीड़ा, सामाजिक उद्वेलन, पूर्वोत्तर भारत में विद्रोही गुटों के आतंक, कट्टर इस्लामी तत्वों के खतरों, गोहत्या, कन्वर्जन, श्रीराम जन्मभूमि, भारत की आध्यात्मिक चेतना, संत परंपरा, वनवासी शौर्य, समरसता, बांग्लादेश, तत्कालीन सोवियत संघ और अमेरिका के गुट, दक्षिण एशिया में राजनीतिक उथल-पुथल, सागरतटों की सुरक्षा, हिंदू धर्म पर आघात, देश के अंदर राजनीतिक कुचक्र आदि विषयों पर पाञ्चजन्य की प्रामाणिक लेखनी चलती गई और आज भी उसी तीखेपन के साथ चल रही है।

1975 में फिर एक बार पाञ्चजन्य की आवाज दबाई गई, जब इंदिरा सरकार ने आपातकाल लगाकर प्रेस की आजादी का गला घोंटा था और संविधान की धज्जियां उड़ाई थीं। प्रेस जगत पर कुठाराघात का सबसे पहला शिकार बनाया गया पाञ्चजन्य को। लेकिन धुंधलका फिर छंटा, पाञ्चजन्य की लेखनी का वही तेज सत्ता को फिर महसूस हुआ। संसद से सड़क तक पाञ्चजन्य में उठाए गए मुद्दों पर बहस चलने लगी, विमर्श को दिशा मिली।

पाञ्चजन्य प्रारम्भ से ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लेकिन इसकी आड़ में देशविरोधी भावों के प्रसार के विरोध का पक्षधर रहा है और आज भी टेक वही है। पाञ्चजन्य ने समयानुकूल परिवर्तन के नियम पर चलते हुए आकार में बदलाव के बावजूद अपने बीजभाव को बचाए रखा और ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता का पथ नहीं त्यागा।

यही वजह है कि अब तक की यात्रा में देश—विदेश के स्वनामधन्य मनीषियों ने पाञ्चजन्य के माध्यम से देश को उक्त विषयों पर दृष्टि दी। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी, एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय, प्रख्यात चिंतक एवं श्रमिक संगठक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी, तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस, पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, चिंतक एवं समाज संगठक श्री भाऊराव देवरस, विचारक श्री रंगाहरि, श्री पी.परमेश्वरन, श्री मा.गो. वैद्य आदि के मार्गदर्शन अनूठे और समाज को दिशा दिखाने वाले रहे हैं।

पाञ्चजन्य का विश्वास भारतीय संस्कृति के अनुरूप लोकतंत्र में रहा है। मार्ग भिन्न हो सकते हैं परंतु सत्य का संधान करने के लिए सभी के विचार महत्व रखते हैं, इस दृष्टि से अन्यान्य विचारक पाञ्चजन्य की लेखक सूची में सदैव बने रहे, जैसे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, आचार्य कृपलानी, डॉ. भगवान दास, डॉ. संपूणार्नंद, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, राममनोहर लोहिया, मीनू मसानी, प्रख्यात वामपंथी विचारक मानवेंद्रनाथ राय, विनोबा भावे आदि। विश्व प्रसिद्ध लेखकों, विचारकों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, संस्कृतिविदों, कला पारखियों ने अपने लेखों, विचारों से पाञ्चजन्य के पाठकों में अपनी एक खास जगह बनाई। इनमें विज्ञानी विजय पाण्डुरंग भटकर, अंतरिक्ष विज्ञानी कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन और रसायन विज्ञानी रघुनाथ अनंत माशेलकर का लेखकीय अवदान भी पाञ्चजन्य अभिलेखागार की थाती है।

पाञ्चजन्य में विशेषांकों के प्रकाशन की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। अब तक की यात्रा में विभिन्न तात्कालिक विषयों पर गहन मंथन से उपजे ये सभी विशेषांक आज भी संदर्भ के नाते विश्वभर के शोधकर्ताओं को पाथेय प्रदान कर रहे हैं। सामयिक विषयों के अतिरिक्त इनमें समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दापरक, रुझानपरक और महापुरुष केंद्रित अंकों का प्रकाशन हुआ, जैसे संघ के आद्य सरसंघचालक पर केंद्रित डॉ. हेडगेवार अंक, क्रांति संस्मरण अंक, वीर वनवासी अंक, अयोध्या आंदोलन अंक, आदर्श वीरव्रती अंक, देवालय बने सेवालय अंक, जिहाद से जूझता गणतंत्र, युवा भारत अंक, गुरु गोविंद सिंह को समर्पित योद्धा संत अंक, महाराणा प्रताप अंक, संविधान के रचनाकार को समर्पित डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर अंक, प्रेमचंद अंक, विष्णु श्रीधर वाकणकर अंक आदि सर्वत्र सराहे गए।

‘फेक न्यूज’ के विरुद्ध सबसे पहले प्रमुखता से आवाज उठाई तो बस पाञ्चजन्य ने। ‘फैक्ट चेक’ की आड़ में एजेंडे के तहत झूठी खबरें फैलाने वालों की खबर लेता अंक ‘सांच को आंच’, नई शिक्षा नीति के लिए विचार करता अंक ‘बंधुआ सोच से आजादी’, चर्च के भ्रष्ट और यौन शोषण में लिप्त पादरियों की करतूतों को उद्घाटित करता अंक ‘सलीब पर बचपन’, भारत में अमेजन के अनैतिक पैंतरों पर ‘ईस्ट इंडिया कंपनी 2.0,’ अफगानिस्तान की धरती को बंदूक के बल पर शरिया की धरती बनाने वाले तालिबान द्वारा महिलाओं की अस्मिता को आघात पहुंचाने और सेकुलर तबके की चुप्पी पर ‘बुर्का और बंदूक अंक’, दुनियाभर में इस्लाम छोड़ रहे मुस्लिमों पर अंक, ‘एक देश-एक चुनाव’, ‘एक देश-एक संविधान’ अंक अपने पैनेपन के लिए जाने गए।

आज पाञ्चजन्य फेसबुक, इन्स्टाग्राम, एक्स और यू-ट्यूब जैसे डिजिटल प्लेटफार्मो पर भी प्रमुखता से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। इस वर्ष पाञ्चजन्य की इस अप्रतिम यात्रा ने 77 वर्ष पूर्ण करके 78वें वर्ष में प्रवेश किया है। तो यह समय है उस प्रण को पुन: दोहराने का कि राष्ट्र प्रथम की कसौटी अपनाए रखकर संघर्ष की लेखनी विमर्श की राह गढ़ती रहेगी। इस पर न कभी समझौता किया है, न आगे कभी किया जाएगा।

Topics: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघअटल बिहारी वाजपेयीपं. दीनदयाल उपाध्यायराष्ट्र प्रथममकर संक्रांतिपाञ्चजन्य विशेषश्री भाउराव देवरसहिन्दू बहुल राष्ट्रराष्ट्रनिष्ठ पत्रकारिता
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