लोग कहते हैं नाम में क्या रखा है? आइए जानते हैं कि नाम अपने साथ साथ किन घटकों का संवाहक होता है। प्राचीनतम इतिहास से युक्त भारत नाम अतिविशिष्ट एवं अद्वितीय है। विश्व में किसी भी देश के दो नाम प्रचलित नहीं हैं। उच्चारण में भेद हो सकता है किन्तु वर्तनी भेद नहीं है।अमेरिका को अमरीका, चाइना को चीन, रसिया को रूस कहा जाता है किन्तु हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में देश के नाम बदलते नहीं। व्याकरण की दृष्टि से भी संज्ञा अथवा नाम का अनुवाद नहीं होता बल्कि लिप्यंतरण होता है। अंग्रेजी भाषा में भिन्न नाम इण्डिया , भारत की प्राचीन ऐतिहासिक अस्मिता पर कुठाराघात करने का एक षडयंत्र सा प्रतीत होता है। सर्वश्रेष्ठ नाम तो भारतवर्ष है। संविधानसम्मत नाम भारत है जिसे यूनानियों और बाद में यूरोपवालों ने इण्डिया कहा है।
ज्ञान महाकुम्भ में एक राष्ट्र, एक नाम भारत विषय पर समर्पित एक संगोष्ठी का आयोजन 1 फरवरी 2025 को प्रयागराज में इसी उद्देश्य से किया जा रहा है, ताकि लोग जागरूक हो सकें कि भारत नाम के पीछे कितना गहन इतिहास विद्यमान है। जब पाश्चात्य सभ्यताएं शायद सोकर भी नहीं उठी होंगी, उतना प्राचीन नाम है भारत।
यहां इस लेख में हम जानेंगे कि अपने देश का नामकरण (भारतवर्ष) किस भरत के नाम पर हुआ? अनेक ‘विद्वान्’ डेढ़ सौ वर्ष से तोते की तरह रट रहे हैं कि दुष्यन्तपुत्र भरत (जो सिंह के दांत गिनता था) के नाम पर इस देश का नामकरण ‘भारत’ हुआ है। आइए, देखते हैं कि इस कथन में कितनी वास्तविकता है। पुराणों में बताया गया है कि प्रलयकाल के पश्चात् स्वायम्भुव मनु के ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत ने रात्रि में भी प्रकाश रखने की इच्छा से ज्योतिर्मय रथ के द्वारा सात बार भूमण्डल की परिक्रमा की। परिक्रमा के दौरान रथ की लीक से जो सात मण्डलाकार गड्ढे बने, वे ही सप्तसिंधु हुए। फिर उनके अन्तर्वर्ती क्षेत्र सात महाद्वीप हुए जो क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप कहलाए। ये द्वीप क्रमशः दुगुने बड़े होते गए हैं और उनमें जम्बूद्वीप सबके बीच में स्थित है-
‘जम्बूद्वीपः समस्तानामेतेषां मध्यसंस्थितः’
(ब्रह्ममहापुराण, 18.13)
प्रियव्रत के 10 पुत्रों में से 3 के विरक्त हो जाने के कारण शेष 7 पुत्र— आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ट, मेधातिथि और वीतिहोत्र क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप के अधिपति हुए। प्रियव्रत ने अपने पुत्र आग्नीध्र को जम्बूद्वीप दिया था-
‘जम्बूद्वीपं महाभाग साग्नीध्राय ददौ पिता’
मेधातिथेस्तथा प्रादात्प्लक्षद्वीपं तथापरम् ।।’
(विष्णुमहापुराण, 2.1.12)
जम्बूद्वीपाधिपति आग्नीध्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्यक, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल। सम विभाग के लिए आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के 9 विभाग करके उन्हें अपने पुत्रों में बाँट दिया और उनके नाम पर ही उन विभागों के नामकरण हुए—
‘आग्नीध्रसुतास्तेमातुरनुग्रहादोत्पत्तिकेनेव संहननबलोपेताः पित्रा विभक्ता आत्म तुल्यनामानियथाभागं जम्बूद्वीपवर्षाणि बुभुजः’ (भागवतमहापुराण, 5.2.21; मार्कण्डेयमहापुराण, 53.31-35)
पिता (आग्नीध्र) ने दक्षिण की ओर का ‘हिमवर्ष’ (जिसे अब ‘भारतवर्ष’ कहते हैं) नाभि को दिया-
‘पिता दत्तं हिमाह्वं तु वर्षं नाभेस्तु दक्षिणम्’ (विष्णुमहापुराण, 2.1.18)
आठ विभागों के नाम तो ‘किंपुरुषवर्ष’, ‘हरिवर्ष’ आदि ही हुए, किंतु ज्येष्ठ पुत्र का भाग ‘नाभि’ से ‘अजनाभवर्ष’ हुआ। नाभि के एक ही पुत्र ऋषभदेव थे जो बाद में (जैनों के) प्रथम तीर्थंकर हुए। ऋषभदेव के एक सौ पुत्र हुए जिनमें भरत सबसे बड़े थे । ऋषभदेव ने वन जाते समय अपना राज्य भरत को दे दिया था, तभी से उनका खण्ड ‘भारतवर्ष’ कहलाया—
‘ऋषभाद्भरतोः जज्ञे ज्येष्ठः पुत्राशतस्य सः ।’
‘ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते ।
भरताय यतः पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम् ।।
(विष्णुमहापुराण, 2.1.28; कूर्ममहापुराण, ब्राह्मीसंहिता, पूर्व, 40-41)
‘येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्षं भारतमिति व्यदिशन्ति’
(भागवतमहापुराण, 5.4.9)
‘तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।
विख्यातं वर्षमेतद् यन्नाम्ना भरतमद्भुतम् ।।’
(भागवतमहापुराण, 11.2.17)
‘ऋषभो मेरुदेव्यां च ऋषभाद् भरतोऽभवत् ।
भरताद् भारतंवर्षं भरतात् सुमतिस्त्वभूत् ।।’
(अग्निमहापुराण, 107.11)
‘नाभे पुत्रात्तु ऋषभाद् भरतो याभवत् ततः ।
तस्य नाम्ना त्विदंवर्षं भारतं येति कीर्त्यते ।।’
(नृसिंहपुराण, 30; स्कन्दमहापुराण, 1.2.37.57)
उसी दिन से इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ हो गया जो आज तक है।
(ऋषभदेव का) अजनाभवर्ष ही भरत के नाम पर ‘भारतवर्ष’ कहलाया—
‘अजनाभं नामैतद्वर्षं भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति’ (भागवतमहापुराण, 5.7.3)
चूँकि ऋषभदेव ने अपने ‘हिमवर्ष’ नामक दक्षिणी खण्ड को अपने पुत्र भरत को दिया था, इसी कारण उसका नाम भरत के नामानुसार ‘भारतवर्ष’ पड़ा-
‘नाभेस्तु दक्षिणं वर्षं हेमाख्यं तु पिता ददौ’
(लिंगमहापुराण, 47.6)
‘हिमाह्वं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत् ।
तस्मात् तद् भारतं वर्षं तस्य नाम्ना विदुर्बुधः ।।’
(वायुपुराण, 33.52; ब्रह्माण्डमहापुराण, 2.14.62; लिंगमहापुराण, 47.23-24)
‘हिमाह्वंदक्षिणंवर्षं भरतायपिताददौ ।
तस्मात्तु भारतंवर्षं तस्यनाम्नामहात्मनः ।।’
(मार्कण्डेयमहापुराण, 50.40-41)
‘इदं हैमवतं वर्षं भारतं नाम विश्रुतम् ।।’
(मत्स्यमहापुराण, 113.28)
पाश्चात्य इतिहासकारों को तो यह सिद्ध करना था कि यह देश (भारतवर्ष) बहुत प्राचीन नहीं है, केवल पाँच हज़ार वर्ष का ही इसका इतिहास है। इसलिए उन्होंने बताया कि स्वायम्भुव मनु, प्रियव्रत, नाभि, ऋषभदेव, आदि तो कभी हुए ही नहीं, ये सब पुराणों की कल्पनाएँ हैं । ‘पुराणों के विद्वान्’ कहे जानेवाले फ्रेडरिक ईडन पार्जीटर (1852-1927) ने अपने ग्रन्थ ‘Ancient Indian Historical Tradition’ (Oxford University Press, London, 1922) में स्वायम्भुव मनु से चाक्षुस मनु तक के इतिहास को लुप्त कर दिया। दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश के अनेक स्वनामधन्य इतिहासकारों ने भी पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते हुए हमारी प्राचीन परम्परा को बर्बादकर दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से ही अपने देश का नामकरण माना।
डा. राधाकुमुद मुखर्जी-जैसे विद्वान् तक ने अपने ग्रन्थ ‘Fundamental Unity of India’ (Bharatiya Vidya Bhawan, Bombay) में लगता है सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ही दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से अपने देश का नामकरण माना है। कहाँ तक कहा जाए ! आधुनिक काल के इतिहासकारों ने किस प्रकार भारतीय इतिहास का सर्वनाश किया है, यह व्यापक अनुसन्धान का विषय है।
‘भारतवर्ष’ शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए श्रीश्री आनन्दमूर्ति (प्रभात रंजन सरकार: 1921-1990) ने लिखा है : ‘दो धातुओं का योग- भर् भरणे तथा तन् विस्तारे। भर्+अल् एवं तन्+ऽ से ‘भारत’ शब्द बना है। ‘भर’ का अर्थ है भरण-पोषण करनेवाला एवं ‘तन्’ अर्थात विस्तार करनेवाला, क्रम-क्रम से बढ़नेवाला…. इस तरह ‘भारत’ शब्द बना । वर्ष का अर्थ है भूमि। अतः इस भूमिखण्ड के लिए ‘भारतवर्ष’ नाम अत्यन्त सार्थक है ।’ (महाभारत की कथाएँ, पृष्ठ 7, आनन्दमार्ग प्रचारक संघ, कलकत्ता, 1981 ई.)
गोस्वामी तुलसीदास (1497-1623) ने भी ‘भरत’ के नामकरण-प्रसंग में उल्लेख किया है—
‘बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।’ (श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड, 196.7)
अस्तु ! हमारे किसी भी ग्रन्थ में दुष्यन्तपुत्र भरत से ‘भारत’ नामकरण की बात नहीं कही गयी है । चन्द्रवंशीय दुष्यन्तपुत्र भरत वैवस्वत मन्वन्तर के 16वें सत्ययुग (5.4005 करोड वर्ष पूर्व) में हुए थे जबकि देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ स्वायम्भुव मन्वन्तर (1.955885 अरब वर्ष पूर्व) में ही हो चुका था। हाँ, दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम पर क्षत्रियों की एक शाखा ‘भरतवंश’ अवश्य प्रचलित हुई जिसके कारण अर्जुन, धृतराष्ट्र आदि को ‘भारत’ कहा गया है और यह महाभारत (आदिपर्व, 74.123) के—
‘………………….येनेदं भारतं कुलम् ।
अपरे ये च पूर्वे वै भारता इति विश्रुताः ।।’
से भी स्पष्ट है । ‘भारता’ शब्द बहुवचन है अतएव बहुत-से मनुष्यों का वाचक है । महाकवि कालिदास ने भी अपने ग्रन्थ ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम पर अपने देश का नामकरण होने की बात नहीं कही है। इसलिए स्वायम्भुव मन्वन्तर में ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ हुआ था, यह सिद्ध है।
ऋषभदेव-पुत्र भरत की मृत्यु के बाद उनके वंशजों ने भारतवर्ष को पुनः 9 विभागों में बाँटा—
तैरिदं भारतं वर्षं नवभेदामलंकृतम्
—विष्णुमहापुराण, 2.1.41
भारतस्यास्य वर्षस्य नवभेदान्निशामय।
वही, 2.3.6; ब्रह्मपुराण, 19.6
श्रृणुध्वं भारतंवर्षं नवभेदेन भो द्विजाः।
—ब्रह्मपुराण, 27.14
एवं तु भारतं वर्षं नवसंस्थान संस्थितम्।
—वही, 27.65
भारतस्यास्य वर्षस्य नवभेदाः प्रकीर्तिताः।
—वायुपुराण, 45.78; विष्णुधर्मोत्तरपुराण, 1.8.2
आक्रम्य भारतं वर्षं नवभेदमिदं द्विज।
—मार्कण्डेयमहापुराण, 58.3
इन्द्रद्वीपखण्ड, कसेरुखण्ड, ताम्रपर्णखण्ड, गभस्तिमान्खण्ड, नागद्वीपखण्ड, सौम्यखण्ड, गन्धर्वखण्ड, वारुणखण्ड तथा नवाँ सागर से घिरा हुआ यही द्वीप (भरतखण्ड) है—
इन्द्रद्वीपः कसेरुश्च ताम्रपर्णो गभस्तिमान् ।
नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्ध्र्वस्तवश वारुणः।
अयं तु नवमस्तेषां द्वीपः सागरसंवृतः।।
—ब्रह्मपुराण, 27.15-16; विष्णुपुराण, 2.3.6-7; मार्कण्डेयमहापुराण, 54.6-7; वायुपुराण, 45.79-80; मत्स्यपुराण, 114.8-9; वामनपुराण, 13.9-10; स्कन्दपुराण, 7.1.172.7
भरतखण्ड के अन्तर्गत 18 राज्य हैं—
भरतखण्डस्याषदशराज्यस्थान……..
—भविष्यमहापुराण, प्रतिसर्गपर्व, 3.2 का शीर्षक
सम्राट् विक्रमादित्य (57 ई.पू.-36 ई.) के स्वर्ग में चले जाने के बाद (भरतखण्ड में) 18 राज्यों की स्थापना हुई थी—
स्वर्गते विक्रमादित्ये राजानो बहुथाsभवन।
तथाषदश राज्यानितेषां नामानि मे शृणु।।
—वही, 3.4.9
भरतखण्ड के ग्रामों की संख्या 96,72,36,000 कही गयी है—
एवं भरतखण्डस्य षणवत्येवकोटयः।
द्वा सप्ततिस्तथालक्षाः पत्तनानांप्रकीर्तिताः।।
—स्कन्दमहापुराण, माहेश्वरखंड, कुमारिकाखंड, 33.93
(भरतखण्ड में भी) पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच, तथा उन्हीं दोनों (हिमालय और विन्ध्याचल) पर्वतों के बीच में स्थित भूखण्ड को ही ‘आर्यावर्त’ कहा जाता है—
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादाससमुद्रात्तु पश्चिमात्।
यतोरेवान्तर गियौरार्यावर्तं विदुर्बुधः।।
—भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व 7.65; मनुस्मृति, 2.22
पूर्वापरयोः समुद्रयोर्हिमवन्द्विन्ध्योश्चान्तरमार्यावर्तः
—राजशेखर (10वीं शताब्दी)कृत काव्यमीमांसा, 93.17
स्पष्ट है कि ‘जम्बूद्वीप’, ‘भरतखण्ड’ और ‘आर्यावर्त’ भारतवर्ष के पर्यायवाची नाम नहीं हैं, अपितु जम्बूद्वीप के 9 खण्डों में से एक खण्ड को ‘भारतवर्ष’, भारतवर्ष के 9 खण्डों में से एक को ‘भरतखण्ड’ और भरतखण्ड के एक भाग को ‘आर्यावर्त’ कहा गया है। हिंदुओं के परम्परा से चले आ रहे ‘संकल्पपाठ’ में भी उल्लेख है—
………जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तेकदेशांतर्गते ब्रह्मावर्तेक पुण्यप्रदेशे…।
अर्थात् ………जम्बूद्वीप के भारतवर्ष के भरतखण्ड के आर्यावर्त देश के अंतर्गत ब्रह्मावर्त नामक पुण्य-प्रदेश में……।
ब्रह्म और विष्णुमहापुराणों में कहा गया है—
अत्रापि भारतं श्रेष्ं जम्बूद्वीपे महामुने
—ब्रह्ममहापुराण, 19.23; विष्णुमहापुराण, 2.3.22
अर्थात् इस जम्बूद्वीप में भी भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है।
आर्यावर्त में भी सरस्वती और दृषद्वती (घाघरा)— इन दो नदियों के मध्य स्थित देवनिर्मित भू-भाग (जो बिजनौर से लेकर प्रयाग तक और उत्तर में नैमिषारण्य तक फैला है) को ‘ब्रह्मावर्त’ कहा गया है—
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देव नद्योर्यदन्तरम्।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते।।
—भविष्यमहापुराण, ब्राह्मपर्व, 7.60; वही, 181.40; मनुस्मृति, 2.17
भविष्यमहापुराण की प्राचीन प्रतियों मेें ‘हिंदुस्थान’ शब्द का स्पष्ट उल्लेख है—
‘हिंदुस्थानमिति ज्ञेयं राष्ट्रमार्यस्य चोत्तमम्। (भविष्यमहापुराण, प्रतिसर्गपर्व, 3.2.20)
अर्थात्, आर्यों का उत्तम राष्ट्र ‘हिंदुस्थान’— इस नाम से जानना चाहिए।
‘बार्हस्पत्यशास्त्र’ में भी उल्लेख आया है—
‘हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते।।’
अर्थात्, हिमालय और इन्दु सरोवर— इन दो स्थानों के मध्य स्थित देवनिर्मित देश को ‘हिंदुस्थान’ कहा जाता है।
‘बार्हस्पत्यशास्त्र’ का उल्लेख महर्षि वेदव्यास प्रणीत महाभारत (शान्तिपर्व, 56.38) में आया है—
‘बार्हस्पत्ये च शास्त्रे च श्लोके निगदितः पुरा।’
अर्थात्, …..इसी बात के समर्थन में बार्हस्पत्यशास्त्र का एक प्राचीन श्लोक पढ़ा जाता है…..।
महाभारत का रचनाकाल पौराणिक-ज्योतिषीय कालगणनानुसार 3076-3073 ई.पू. है। महाभारत में ‘बार्हस्पत्यशास्त्र’ के उल्लेख से स्पष्ट है कि ‘बार्हस्पत्यशास्त्र’ महाभारत से भी प्राचीन ग्रन्थ है। और बार्हस्पत्यशास्त्र में ‘हिंदुस्थान’ शब्द आने का तात्पर्य है कि ‘हिंदू’ शब्द अत्यन्त प्राचीन है, अर्वाचीन नहीं, जैसा कि अनेक देशी-विदेशी विद्वान् इसकी उत्पत्ति ‘सिंधु’ शब्द से मानते हैं।
इतने प्राचीनतम इतिहास से युक्त भारत नाम अतिविशिष्ट एवं अद्वितीय है। इंडिया शब्द इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कुठाराघात है। भारत की सनातन विरासत को मिटाने का षडयंत्र है इंडिया नामकरण, हमे अपने व्यवहार से इस नाम को सदा सदा के लिए काल कवलित कर देना चाहिए। यही औपनिवेशिक मानसिकता के प्रतीक , नाम, चिह्न एवं व्यवहार को उखाड़ फेंकने का सकारात्मक समय है।
(लेखक – शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सह प्रचार प्रमुख हैं)
Leave a Comment