पाञ्चजन्य के 78वें स्थापना वर्ष पर बात भारत की अष्टायाम कार्यक्रम में (केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक देश एक चुनाव की चर्चा करते हुए कहा कि देश में एक साथ चुनाव पर चर्चा पाञ्चजन्य ने ही शुरू की थी। देश में एक साथ चुनाव ये विमर्श प्रारम्भ पाञ्चजन्य ने ही किया था। अभी ड्राफ्ट भी तैयार है। जेपीसी इस पर विचार कर रही है।
प्रश्न- पूरे देश में एक ही चुनाव की आवश्यकता क्यों है और इससे देश को क्या फायदा होगा?
उत्तर- देखिए लोकतंत्र जनता का जनता के लिए जनता के द्वारा शाशत है और वह चुनाव के माध्यम से ही हम करते हैं। जब संविधान निर्माताओं ने चुनाव की कल्पना की थी, तो उन्होंने एक निश्चित समयावधि के बाद चुनाव कराने की बात सोची थी और हमारे देश में यह समयावधि 5 वर्ष के लिए तय की गई थी। जनता नई सरकार चुनेगी अपने नई प्रतिनिधि चुनेगी और फिर 5 साल के बाद फिर चुनाव होंगे। उस समय उनके दिमाग में कभी नहीं आया था की धारा 356 का इतनी बार दुरुपयोग होगा। आप जानते हैं, 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के लिए एक साथ चुनाव होते थे।
1967 के पहले तो कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी। जब अन्य दलों की सरकारें सत्ता में आने लगीं तो उन्हें भंग करने की प्रक्रिया शुरू हो गई। इतनी बार भंग किया गया कि अब आप देखिए, देश में और कोई काम हो या न हो, हर राजनीतिक दल पांच साल, 12 महीने, 365 दिन चुनाव की तैयारी में ही व्यस्त रहता है। अभी आप देख लीजिए साल भर नहीं हुआ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के चुनाव को वो चुनाव खत्म नहीं हुए तो चार महीने बाद लोकसभा के चुनाव तो मध्य प्रदेश से पहले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान ने चार महीने पहले किया विधानसभा का चुनाव उसके तीन महीने पहले आचार संहिता लग गई। कोई काम नहीं हो पा रहा है, सारे काम रुके हुए हैं और बाद में जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हो गई तो सारे काम ठप गए। एक साल कोई काम नही हुआ लगभग चुनाव की तैयारी चलती रही। फिर चार महीने बाद जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में फिर से चुनाव शुरू हो गए। लोकसभा चुनावों की थकान अभी उतरी भी नहीं थी और राजनीतिक दलों के योद्धा कमर कस कर इन चुनावों के लिए निकल पड़े। अब आप देखेंगे की वो चुनाव खत्म नहीं हुए थे। अब दिल्ली का दंगल शुरू हो गया चुनाव का और फिर बिहार की तैयारी शुरू हो जाएगी। हम लोग क्या कर रहे हैं? सारे राजनीतिक दलों के नेता एक ही काम, चुनाव की तैयारी और चुनाव की तैयारी में जनता के हित और विकास के कामों की प्राथमिकता बचती नहीं है, चुनाव जीतना है।
अब कृषि मंत्री कृषि का काम छोड़कर एक राज्य के चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। कितना समय जाता है विधायक, सांसद, कार्यकर्ता? बाकी सारे काम ठप, फिर दूसरी बात प्रशासनिक अधिकारी उस राज्य में तो आचार संहिता लग ही जाती तो कोई नई घोषणा नहीं। कोई विकास कार्य नहीं होता, सिर्फ चुनाव की तैयारियां चलती रहती हैं, सब कुछ रुका हुआ है। तो वहां के मंत्री और अधिकारी लगे रहते हैं, दूसरे राज्यों के प्रशासनिक अधिकारी को चुनाव आप ऑब्जर्वर बनो और दूसरे राज्य में जाओ और चुनाव करवाओ।
अगर वे चले जाते हैं तो दो-तीन महीने के लिए यहां काम बंद हो जाता है और फिर प्रशासनिक मशीनरी हमेशा होने वाले चुनावों में लग जाती है।
शिक्षक क्या कर रहे हैं? पढ़ाई नहीं हो रही है चुनाव की वोटर लिस्ट बनवा रहे हैं। पुलिस किस काम में व्यस्त है? चुनाव की व्यवस्था में लगी है। पूरी मशीनरी अपना काम छोड़कर चुनाव में लग जाती है और कोई काम नहीं होता। तो फिर देश का कितना पैसा खर्च होता है? हर चुनाव के लिए खजाने से व्यवस्था की जाती है और फिर राजनीतिक दल भी खर्च करते हैं और फिर राजनीतिक दल भी धन खर्च करते हैं। पुलिस और अर्धसैनिक बल अनुशासन बनाए रखने और अपराधियों को पकड़ने के बजाय केवल चुनाव कराने में लगे रहते हैं और पार्टी कोई बड़ा नीतिगत निर्णय नहीं लेती। जनता भी ऊब जाती है, हर चार महीने में चुनाव होते हैं, चुनाव के बाद लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकायों के उपचुनाव होते हैं, स्थानीय निकायों में भी शहरी निकाय अलग होते हैं, ग्रामीण निकाय अलग होते हैं, फिर सहकारी निकाय अलग होते हैं। चुनाव, चुनाव, चुनाव देश में चुनाव के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए और इसलिए संविधान निर्माताओं ने बिलकुल ठीक सोचा था। 5 साल में चुनाव होंगे, बिलकुल तर्कसंगत होना चाहिए। अगर उनके मन में यह बात आती कि चुनाव तो चलते ही रहेंगे तो उन्होंने कुछ प्रावधान किया होता। निश्चित रूप से ऐसा नहीं होना चाहिए कि चुनाव चलते रहें। आज देश में लगातार हो रहे चुनाव देश की प्रगति और विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं।
”मैं पाञ्चजन्य को धन्यवाद देता हूं आपने बहुत पहले इसको पहचाना?” आपने देश में बहस प्रारंभ की और मैं प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र मोदी जी को धन्यवाद देना चाहता हूं। राष्ट्र सर्वोपरि है उनके लिए। ये पहल प्रारंभ होना चाहिए और इसलिए एक कमेटी बनी आपकी जानकारी में कोविंद कमेटी, उसने कुछ सिफारिशें कीं और अब मामला संसद में है, जेपीसी विचार कर रही हैं, मैं सर्व था उपयुक्त मानता हूँ की देश में एक साथ चुनाव होना चाहिए।
प्रश्न- पूरे देश में जब चुनाव होते हैं, कई संवेदनशील क्षेत्र भी होते हैं, सुरक्षा बलों की जिम्मेदारियां बढ़ जाती है, प्रशासन की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। सबसे अहम ये है कि विपक्षी जो दल है, वो इसको समर्थन देंगे या नहीं देंगे, नहीं देंगे तो ये कैसे लागू होगा?
उत्तर- एक साथ चुनाव का मतलब यह नहीं है कि पूरे देश में एक ही तारीख को चुनाव होंगे। आज भी लोकसभा चुनाव चरणों में होते हैं। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, इन्हें तीन चरणों, दो चरणों या चार चरणों में आयोजित किया जा सकता है, जैसा कि चुनाव आयोग उचित समझे। सुरक्षा बलों की उपलब्धता के आधार पर इसमें कोई कठिनाई नहीं है। एक साथ चुनाव का मतलब एक ही तारीख पर चुनाव नहीं है, एक साथ चुनाव का मतलब है लोकसभा और विधानसभा, जैसा कि समिति ने प्रस्ताव दिया है, वे कम से कम एक या दो महीने के अंदर निपट जाएंगे। नंबर दो राजनीतिक दल की बात। मुझे लगता है कि ”अगर आप किसी देशभक्त से पूछेंगे, उससे पूछेंगे कि वह जनहित कल्याण के बारे में क्या सोचता है, तो वह ईमानदारी से कहेगा कि हां, ये बार-बार होने वाले चुनाव देश के तबाही का कारण बन गए हैं।” जनमत को जागरूक होना चाहिए और राजनीतिक दलों को सोचना चाहिए कि वे हर दिन चुनावों में क्यों व्यस्त हैं, क्या सरकार भी कोशिश करेगी? इस पर सर्वसम्मति बननी चाहिए और मैं कहता हूं कि यह एक जन आंदोलन होना चाहिए और जन अभियान होना चाहिए जैसे पाञ्चजन्य ने आज इस विषय को उठाया। और जब जन अभियान बनेगा तो सभी राजनीतिक दल जरूर सोच-समझकर एक साथ आएंगे और जनता कहेगी तो भी एक साथ आएंगे।
प्रश्न- प्रचार अभियान की भूमिका बहुत बड़ी हो जाती है। चुनावों के दौरान जब पूरे देश में एक साथ चुनाव होंगे तो राजनीतिक दलों को लेकर चुनौतियां भी होंगी। जब सारे नेता देशभर में प्रचार के लिए निकलेंगे, तो किस तरह की प्लानिंग होगी, क्या प्राथमिकताएं होंगी? उसको लेकर रणनीति किस तरह की होगी?
उत्तर- लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे। जो स्टार प्रचारक होते है पूरे देश में प्रचार करें ना कौन मना करता है? आपके पास जो समय है, उसमें आपको विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा के बारे में भी भाषण देना चाहिए। जनता इतनी परिपक्व हो चुकी है कि एक तरफ तो वह लोकसभा में एक पार्टी को वोट देती है, दूसरी तरफ वह विधानसभा में दूसरी पार्टी को वोट देती है। प्रधानमंत्री के लिए अलग पसंद है और मुख्यमंत्री के लिए अलग पसंद है और यह बात एक ही चुनाव में साबित हो गई है। इस बार अगर छोड़ दिया जाए उड़ीसा तो ओडिशा में एक साथ चुनाव हुए, पता चला के विधानसभा की पसंद अलग थी। लोकसभा की पसंद अलग थी तो जनता अपने विवेक का इस्तेमाल करके वोट देती है। स्टार प्रचारक देश भर में जा सकते हैं, चाहे राज्य स्तर के राज्यों में जाए। कौन मना करता है? आजकल तो फिजिकल जाने की भी जरूरत कम है। आजकल तो जनता भी पब्लिक मीटिंग के बजाय टीवी पे भी बहस सुनती है। आम सभाओं को सीधे प्रसारण हो जाता है। लाइव टेलीकास्ट उनसे भी विचार समझ लेती है।
प्रश्न- जब चुनाव आते हैं तो चुनाव आयोग की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है और जैसा कि हम देखते हैं, जब भी आपका विपक्ष हारता है तो वे इसका दोष चुनाव आयोग पर डाल देते हैं। जब पूरे देश में एक साथ चुनाव होंगे तो चुनाव आयोग के लिए चुनौतियां भी बढ़ जाएंगी?
उत्तर- मुझे लगता है कि कम हो जाएंगे। अभी चुनाव आयोग कुछ नहीं कर पा रहा है। एक चुनाव होना चाहिए, चुनाव आयोग की तो दिक्कतें कम हो जाएगी। एक बात और, अगर 5 साल में एक बार चुनाव होंगे तो लोगों का उत्साह चरम पर होगा, इसलिए 5 साल बाद मुझे लगता है कि चुनाव आयोग को भी इसमें कोई दिक्कत नहीं होगी। यह उनके लिए आसान होगा और अपने खाली समय में वे चुनावों के संबंध में और भी कई नवाचारों के बारे में सोच सकेंगे।
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