सूर्य नारायण सृष्टि में केवल प्रकाश ही नहीं फैलाते वरन नवजीवन व नयी चेतना का भी संचार करते हैं। इसलिये वेदों में सूर्य को ‘विश्व की आत्मा’ कह कर महिमामंडित किया गया है। वैदिक मनीषा कहती है कि जिस तरह आत्मा के बिना शरीर का कोई अस्तित्व नहीं होता, ठीक उसी तरह जगत की सत्ता सूर्य पर टिकी हुई है। हम सबको सूर्यदेव की आराधना इसलिए भी करनी चाहिए क्यूंकि वे समूची प्रकृति का केन्द्र होने के साथ हमारे समस्त शुभ व अशुभ कर्मों के प्रत्यक्ष साक्षी भी हैं। हम धरतीवासियों को समस्त शक्तियां सूर्य से ही प्राप्त होती हैं। संसार का संपूर्ण भौतिक विकास सूर्य की सत्ता पर ही निर्भर है। सूर्य के इन्हीं महान उपकारों के प्रत्युत्तर में वैदिक युग में हमारे वैदिक ऋषि-मनीषियों ने सूर्य उपासना की जिस परम्परा का शुभारम्भ किया था; सदियों बाद भी वह आज तक सतत प्रवाहमान है। सूर्य उपासना का ऐसा ही विशिष्ट वैदिक पर्व है मकर संक्राति।
पद्म पुराण कहता है कि जब दिवाकर मकरस्थ होते हैं, तब सभी समय, प्रत्येक दिन एवं सभी देश व स्थान शुभ हो जाते हैं। गायत्री महाविद्या के महामनीषी पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य लिखते हैं, ‘’मकर संक्राति की मंगल बेला में संसार के प्राणदाता सूर्यदेव ज्यों ही दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करते हैं, समूची सृष्टि को ठिठुरन से मुक्ति का अहसास कराकर समूचे जनजीवन में नवस्फूर्ति का संचार कर देते हैं। स्कंद व मत्स्य पुराण में मकर संक्रान्ति के विशिष्ट मुहुर्त में गंगा स्नान, सूर्याध्यान व दान अत्यधिक फलदायी बताया गया है। इस दिव्य मुहूर्त में की गयी छोटी सी भावपूर्ण प्रार्थना न केवल हमारे भीतर गहराई तक दिव्य प्राण ऊर्जा का संचार करती है वरन इस वैदिक पर्व पर जन मन के भीतर उमड़ने वाले सात्विक भाव देश की सांस्कृतिक चेतना को भी परिपुष्ट करते हैं। साथ ही इस पर्व पर उमड़ने वाली श्रद्धा व उल्लास एवं की तरंगें राष्ट्र की सामाजिक संघबद्धता को भी सुदृढ़ करती हैं।‘’
मकर संक्राति की ज्योतिषीय मान्यता से जुड़ी रोचक जानकारी साझा करते हुए वैदिक ज्योतिष के विशेषज्ञ आचार्य रामचंद्र शुक्ल बताते हैं कि सूर्यदेव के स्थान परिवर्तन अर्थात दक्षिण दिशा से उत्तराभिमुख हो जाने की इस परिघटना को आध्यात्मिक व भौतिक दोनों ही दृष्टियों से विशेष लाभकारी माना गया है। सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में गमन को संक्रान्ति कहते हैं। सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में प्रवेश को ‘’मकर संक्राति’’ और सूर्य के उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते जाने की अवधि को ‘’दक्षिणायन’’ तथा दक्षिण से उत्तर की ओर के यात्राकाल को ‘’उत्तरायन’’ कहा जाता है। वृत्त के 360 अंशों के समान पृथ्वी का परिक्रमा पथ भी 360 अंशों में विभाजित होता है। पृथ्वी के इस अण्डाकार परिक्रमा पथ को 30-30 अंशों के समूहों में 12 राशियों में विभक्त किया गया है। पृथ्वी की परिक्रमा करते समय 12 राशियों में से सूर्य जिस राशि में संक्रमण करता है यानी दिखाई देता है, वही सूर्य की राशि कही जाती है।
इस संक्रांति पर्व पर सूर्य नौवीं राशि धनु से दशम राशि मकर में संक्रमण करता है। यह तिथि प्रति वर्ष प्रायः 14-15 जनवरी को पड़ती है। इस मुहूर्त में प्रयागराज में गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम का गंगा स्नान विशेष पुण्य फलदायी होता है। फिर जब 12 वर्षों में एक बार बृहस्पति और मेष या वृष राशि का संक्रमण होता है; तो इस पर्व को अति विशिष्ट पुण्यकाल कुम्भ कहते हैं। इस अमृत बेला का महत्व अनन्त फलदायी होता है। वे बताते हैं कि हेमाद्रि संहिता के अनुसार इस सूर्य के इस मकर संक्रमण के आगे-पीछे की 15-15 घड़ियां अत्यन्त शुभ बतायी गयी हैं। चूंकि मकर राशि के स्वामी सूर्य पुत्र शनिदेव हैं। इस कारण शनि के प्रकोप से मुक्ति पाने के लिए इस संक्रांति पर्व पर गायत्री महामंत्र के साथ की गयी सूर्यदेव की आराधना अत्यंत शुभ फल देने वाली होती है क्योंकि वैदिक ऋषियों ने गायत्री का देवता सविता को बताया है। सनातन हिंदू दर्शन में यूँ भी गंगा स्नान की विशिष्ट महत्ता है। उस पर यदि तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी संगम और ऊपर से कुंभ पर्व का दुर्लभ संयोग जुड़ जाए तो श्रद्धालुओं के आनन्द का कहना ही क्या। यही वजह है कि इस वर्ष इस पावन अवसर पर तीर्थराज प्रयाग में करोड़ों श्रद्धालु मोक्ष की कामना से गंगा स्नान को आ जुटे हैं।
यूं तो इस संक्रान्ति पर्व में मकर राशि का विशेष महत्व है पर दिलचस्प तथ्य यह है कि मकर शब्द से जुड़ी कई रोचक जानकारियां भी हमारे पुराण ग्रंथों में मिलती हैं। ‘’हरीति संहिता’’ में ऋषि कहते हैं, ‘’ मत्स्यानां मकरः श्रेष्ठो।‘’ यानी जल-जीवों में मकर (मगरमच्छ) सर्वश्रेष्ठ है। इसीलिए यह मां गंगा का वाहन है। वायु पुराण में वर्णित नौ निधियों में पद्म, महापद्म, शंख, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील व खर्व के साथ मकर की भी गणना गयी है। कामदेव की पताका का प्रतीक भी मकर है। इसी कारण कामदेव को ‘’मकरध्वज’’ भी कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के मकर की आकृति के कुण्डलों के सुंदरता का वर्णन करते हुए बिहारी सतसई में महाकवि बिहारी लिखते हैं, ‘’मकराकृत गोपाल के कुण्डल सोहत कान…। इसी तरह श्रीमद्भागवत में वर्णित सुमेरु पर्वत के उत्तर में अवस्थित दो पर्वतों में से एक का नाम मकर पर्वत बताया गया है।
लोकसंस्कृति का यह लोकप्रिय स्नान पर्व सम्पूर्ण भारत में पूरे हर्षोल्लास से मनाया जाता है। भले ही नाम में क्षेत्र-विशेष या भाषा-विशेष की विविधता झलकती हो, किन्तु हृदय के भावों में हर कहीं एक-सी समरसता और मधुरता रहती है। जनजीवन में उत्साह एवं पवित्रता का संचार करने वाला यह पर्व पंजाब में लोहड़ी, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश व बिहार में खिचड़ी, उत्तराखण्ड में उत्तरायणी, बंगला में बिसु, बिहार में दहीचूड़ा, महाराष्ट्र में मकर संक्रान्ति, दक्षिण में तिल-गुड, तमिलनाडु में पोंगल तथा असम में मोगाली बिहू के नाम से मनाया जाता है। इस संक्रांति पर्व पर महाराष्ट्र की महिलाएं तिल के साथ हल्दी और कुमकुम भी दान करती हैं। बिहार के कुछ क्षेत्रों में सत्तू दान की भी परम्परा है। इस समय जब सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में रहता है तब चना, गेहूं आदि रबी की फसलें पकने की स्थिति में होती हैं तो सूर्य का मध्यम ताप से उन फसलों को बढने और पकने में भी सहायक होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इस पर्व का विशेष महत्व है। आयुर्वेद के मर्मज्ञों का मानना है, शीतकालीन ठण्डी हवा शरीर में अनेक व्याधियों को उत्पन्न करती है। इसीलिए इस पर्व पर तिल-गुड़, उर्द की दाल व देशी घी आदि गर्म तासीर के भोज्य पदार्थों के सेवन का विधान बनाया गया। चरक संहिता भी इस ऋतु में शीत के प्रकोप से बचने के लिए तिल-गुड़, उर्द, गन्ना सेवन की सलाह देती है।
बताते चलें कि हमारे पुराणकार ऋषियों ने हमारे उन्नत व मंगलमय जीवन के लिए अनेक धार्मिक व सामजिक नियम-उपनियम बनाये थे। इन्हीं में एक नियम था विभिन्न पर्व-त्योहारों पर विशिष्ट मुर्हूतों में पवित्र नदियों में स्नान। चूंकि हमारी अधिकांश पवित्र नदियों का उद्गम स्रोत हिमगिरि देवात्मा हिमालय है, इस कारण वहां से निकलने वाली जलमाताएं उन पर्वतों पर फलने-फूलने वाली विभिन्न दिव्य जीवनदायनी औषधियों को अपने जल के साथ बहा ले आती हैं। इसी कारण हमारे मनीषियों ने इन नदियों का स्नान को शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोगी बताया था। यही वजह है कि सनातनधर्मियों की अटूट आस्था है कि पतितपावनी गंगा में खड़े होकर सूर्य को नमन करने से उनका दिव्य ताप हमारे बाह्य व अंतस् दोनों को सात्विक भावों से अनुप्राणित कर देता है।
भारत के आध्यात्मिक मनीषियों की मानें तो भौतिक लाभों से कहीं अधिक सशक्त और रहस्यमय है सूर्य का पारलौकिक व आध्यात्मिक पक्ष। सूर्योपासना से पवित्रता, प्रखरता, तेजस, वर्चस जैसी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। ब्रह्माण्ड के रहस्य जाने जा सकते हैं। लोक-लोकान्तर के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया जा सकता है। यह कोरी बात नहीं अपितु भारत के क्रांतिधर्मी ऋषियों का अनुभूत सत्य है। जानना दिलचस्प हो कि बीसवीं सदी में सूर्य के प्रकाश के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव पर शोध करने वाले अमेरिका के मेसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के विद्वान डॉ. एनी जेन लिखते हैं कि जबसे मानव प्राकृतिक जीवन से विमुख होकर भौतिकता के कृत्रिम परिवेश में ढलने लगा है, तभी से उसके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट आने लगी है। डॉ. जेन के अनुसार सूर्य अपने प्रकाश के माध्यम से मानव शरीर का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से पोषण करता है। प्रकृति की यह अद्भुत व्यवस्था है, जो किसी अन्य माध्यम से पूर्ण नहीं हो सकती। हर्ष का विषय है कि आज विश्व के सारे वैज्ञानिक ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य को ही मानते हैं।
तत्वरूप में कहें तो लोक संस्कृति के विविध पक्षों को अपने में संजोये यह पर्व भारत की सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना को आध्यात्मिक भावना एवं साधना से जोड़ता है। साथ इसमें एक संदेश भी निहित है, संक्रान्ति के पुण्य अवसर पर सूर्योपासना का महिमान्वित संदेश। वर्तमान क्षणों में यह संदेश युग-आह्वान भी है, इसे सुनकर यदि प्राणवान संस्कृति प्रेमी संकल्पबद्ध होकर नदी संरक्षण व पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने की मुहिम में जुट सकें तभी मंगलपर्व मकर संक्रान्ति की गौरव गरिमा कायम रह सकेगी।
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