माघ महीने में जब सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है, तब मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। ईस्वीं सन् में यह जनवरी का महीना होता है और तारीख प्राय: 14 होती है। मकर संक्रांति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारंभ होती है। इसलिए इसको ‘उत्तरायणी’ भी कहते हैं। पृथ्वी का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश ‘संक्रांति’ कहा जाता है और पृथ्वी के मकर राशि में प्रवेश करने को ‘मकर संक्रांति’ कहते हैं। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना ‘उत्तरायण’ और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर जाना ‘दक्षिणायन’ कहलाता है। जब सूर्य ‘दक्षिणायन’ से ‘उत्तरायण’ होने लगता है, तब दिन बड़े और रातें छोटी होने लगती हैं। इस समय धूप की शीत पर विजय प्राप्त करने की यात्रा शुरू हो जाती है।
वैदिक काल में ‘उत्तरायण’ को ‘देवयान’ तथा ‘दक्षिणायन’ को ‘पितृयान’ कहा जाता था। मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दिए गए द्रव्य ग्रहण करने के लिए देवता गण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएं शरीर छोड़कर स्वर्गादि लोकों में प्रवेश करती हैं। इसलिए यह आलोक का पर्व माना गया है। शास्त्रों के अनुसार ‘दक्षिणायन’ को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मक का प्रतीक तथा ‘उत्तरायण’ को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मक का प्रतीक माना गया है। इसलिए इस दिन जप, दान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रिया-कलापों का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस अवसर पर किया दान-पुण्य पुनर्जन्म होने पर चौगुना अधिक मिलता है। इसलिए लोग गंगा आदि नदियों में डुबकी लगाकर सामूहिक स्नान करके तिल, गुड़, मूंगफली, चावल आदि का दान करते हैं।
इस दिन का ऐतिहासिक महत्व भी है। भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उनके घर पर जाते हैं। चूंकि शनि देव मकर राशि के स्वामी हैं। अत: यह दिन मकर-संक्रांति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था।
सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किंतु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यंत फलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया 6-6 माह के अंतराल पर होती है। भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है। मकर संक्रांति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है, किंतु मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। अत: इसी दिन से क्रमश: रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा। अत: मकर संक्रांति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को ‘अंधकार से प्रकाश की ओर’ जाना कहा जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्य-शक्ति में वृद्धि होगी। ऐसा जानकर संपूर्ण भारतवर्ष में लोगों द्वारा विविध रूपों में सूर्य देव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर उसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जाती है।
सामान्यत: भारतीय पंचांग की समस्त विधियां चंद्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती हैं, किंतु मकर संक्रांति को सूर्य की अवस्थिति से निर्धारित किया जाता है। इसी कारण यह पर्व प्रतिवर्ष 14 जनवरी को ही पड़ता है। हरियाणा और पंजाब में लोग इसे लोहड़ी के नाम से मनाते हैं। इस दिन अंधेरा होते ही घर के आगे आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल, रेवड़ियां और भुनी मक्का की आहुति दी जाती है। लोग खुशी से नाचने लगते हैं। शीत के प्रकोप से छुटकारा पाने के लिए तिल को शरीर में मल कर नदी में स्नान करते हैं। तिल उबटन, तिल का हवन और तिल का व्यंजन सभी पापनाशक हैं। महाराष्ट्र में इस दिन ‘तालगूल’ हलवे को बांटने की प्रथा है। एक-दूसरे को तिल-गुड़ देते हैं। तिल-गुड़ देते समय बोलते हैं- ‘तिलगूल च्या आणि-गोड कोलो क्वं’ अर्थात् तिल-गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो।
उत्तर प्रदेश में इसे दान पर्व के रूप में मनाया जाता है। प्रयागराज में यह पर्व माघ मेलों के नाम से जाना जाता है। पहला स्नान मकर संक्रांति से शुरू होकर शिवरात्रि तक यानी आखिरी स्नान तक चलता है। इस दिन खिचड़ी सेवन एवं खिचड़ी दान का अत्यधिक महत्व होता है। पश्चिम बंगाल में इस पर्व पर स्नान के बाद तिल दान करने की प्रथा है। यहां गंगासागर में प्रतिवर्ष विशाल मेला लगता है। मकर संक्रांति के दिन ही गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। इसीलिए कहा गया है, ‘सारे तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार।’
तमिलनाडु में इस त्योहार को ‘पोंगल’ के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बरतन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जंवाई राजा का विशेष रूप से सम्मान किया जाता है। असम में मकर संक्रांति को ‘माघ-बिहू’ अथवा ‘भोगाली-बिहू’ के नाम से मनाते हैं। राजस्थान व मध्य प्रदेश में इस पर्व पर महिलाएं अपनी सास को ‘बायणा’ देकर ‘पगाँ लागूँ’ कहती हुई पांव दबाकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएं किसी भी सौभाग्य सूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों के घर भिजवाती हैं।
एक थाली में थोड़ा आटा, दाल, घी, मीठा, नमक, मिर्च आदि रखकर ‘सीधे’ के रूप में भी दिया जाता है। विशेषतया इस दिन दाल-चूरमा बाटी का व्यंजन बनाया जाता है। सूर्य को अर्घ्य देकर तथा भोग लगाकर घर बुलाए बेटी-जंवाई राजा के साथ हंसी-खुशी के माहौल में भोजन ग्रहण करते हैं। मध्य प्रदेश में बापला-सूजी के लड्डू का व्यंजन तैयार किया जाता है। चौराहों पर गाय व अन्य मवेशियों के लिए चारा रख दिया जाता है।
मकर संक्रांति सूर्य उपासना का पर्व भी है। हिंदू पौराणिक शास्त्रों में ग्रहों, नक्षत्रों और राशियों के बीच संबंधों का हर जगह व्यापक उल्लेख मिलता है। ग्रहों के आपसी संबंध का प्रभाव इंसान पर भी स्पष्ट रूप से होता है। इसीलिए हमारे मनीषियों ने व्यापक जनहित में त्योहार और पर्व विशेष पर पूजा, दान आदि परंपराओं की व्यवस्था की, जिससे साधारण जन ग्रहों के गोचर में होने वाले परिवर्तनों के कारण उससे संभावित नुकसान से बच सकें।
मकर संक्रांति के अवसर पर किए जाने वाले दान-पुण्य की व्यवस्था के पीछे भी यही कारण है। पौराणिक कथाओं में सूर्य को जगत् की आत्मा बताया गया है। सूर्य के बिना इस जगत् में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों के लिए सूर्य ही एकमात्र प्रत्यक्ष देव है। इसीलिए सभी मत-पंथों के अनुयायी किसी न किसी रूप में सूर्य की उपासना अवश्य करते हैं। तो आइए, ईस्वीं सन् के प्रारंभ में ही हम अपनी बुराइयों से दूर रहने का संकल्प लें, ताकि आने वाला मकर संक्रांति पर्व हम सब के लिए हर्ष का पर्याय बन सके।
Leave a Comment