दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल के सामने दोहरी चुनौती आ खड़ी हुई है। 2013 के बाद पहली बार आम आदमी पार्टी को अपनी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। अरविंद केजरीवाल को खुद अपनी विधानसभा की सीट पर भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। आम आदमी पार्टी के सामने बड़ी चुनौती अपने विधायकों के खिलाफ उनकी परम्परागत सीटों पर सत्ता विरोधी लहर को कुंद करने की है। आप ने इस चुनौती को पहले ही भांप लिया था और अपने कई विधायकों का टिकट काटने के साथ ही कईयों की सीट को भी बदल दिया है।
नई दिल्ली विधानसभा सीट से आगामी विधानसभा चुनाव में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री व आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल और दो पूर्व सांसद संदीप दीक्षित और प्रवेश वर्मा ने चुनाव मैदान में उतर कर इस क्षेत्र के चुनावी समीकरण को दिलचस्प बना दिया है। 2008 के परिसीमन से पहले इस क्षेत्र को गोल मार्केट के नाम से जाना जाता था। इस सीट की खासियत ये है कि 1998 से 2020 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव तक इस क्षेत्र से दिल्ली के मुख्यमंत्री ही निर्वाचित हुए हैं। 1998 से 2008 तक इस क्षेत्र से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित निर्वाचित हुईं थीं। वहीं 2013 से अब तक अरविन्द केजरीवाल इस क्षेत्र से निर्वाचित हुए हैं।
लेकिन, इस बार इस सीट पर सियासी समीकरण काफी बदला हुआ है। कांग्रेस पार्टी और भाजपा दोनों दलों ने काफी साहसी कदम लेते हुए अपने मजबूत उम्मीदवारों को इस क्षेत्र से चुनावी रणक्षेत्र में उतार दिया है। कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार संदीप दीक्षित की माँ शीला दीक्षित इस क्षेत्र से 1998 से 2013 तक लगातार तीन बार विधायक रही है। इस कारण इस क्षेत्र से संदीप दीक्षित का विशेष लगाव, के साथ ही यहाँ के लोगों से उनका पुराना संपर्क भी है। वहीं भाजपा के उम्मीदवार प्रवेश वर्मा के पिता साहिब सिंह वर्मा भी दिल्ली के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस तरह से इस बार अरविन्द केजरीवाल की दोनों दलों ने सघन घेराबंदी करने का पूरा प्रयास किया है। दोनों दलों के इस कदम से अरविन्द केजरीवाल सकते में हैं।
भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों ने अरविन्द केजरीवाल की राजनीतिक समझ को उन्हीं के खिलाफ आजमाने का काम किया है। अरविन्द केजरीवाल ने 2013 में जब उनकी पार्टी ने पहली बार चुनावी मैदान में कदम रखा था, तब केजरीवाल ने अपने खुद का व पार्टी का राजनीतिक रसूख ऊंचा करने के लिए सीधे मुख्यमंत्री से ही टक्कर ली थी। केजरीवाल के इस कदम का पूरी दिल्ली की सभी 70 सीटों पर असर हुआ था। उस दौरान केजरीवाल का यह दांव काम आया और उन्होंने खुद की सीट भी जीती और साथ ही पूरी दिल्ली में 28 सीट जीतते हुए सबको चौंका दिया था। इसी तरह की नीति केजरीवाल ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भी आजमाया था और वाराणसी से भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने चले गए थे। ऐसा नहीं था कि उनको वाराणसी से चुनाव लड़ना था, बल्कि उनको नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़कर अपने राजनीतिक कद को ऊंचा करना था।
अपनी खुद की रणनीति भाजपा और कांग्रेस द्वारा खुद पर इस्तेमाल होते देख अब केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की चिंता बढ़ गई है। इस बात की भी संभावना जताई जा रही है कि इस बार केजरीवाल नई दिल्ली के अलावा किसी अन्य सीट से भी अपनी किस्मत आजमा सकते हैं। केजरीवाल अगर ऐसा कदम लेते हैं तो यह उनके और उनकी पार्टी के लिए अधिक घातक हो सकता है। भाजपा और कांग्रेस पार्टी के इस दांव के बाद केजरीवाल अब अपना ज्यादा समय चुनाव प्रचार के लिए परी दिल्ली पर लगाने की जगह अपने क्षेत्र में देंगे। भाजपा और कांग्रेस की गुगली से केजरीवाल अपनी सीट पर बंध कर रह गए हैं।
वर्तमान में नई दिल्ली विधानसभा का चुनाव 2023 में हुए तेलंगाना विधनसभा चुनाव के कामारेड्डी विधानसभा सीट की तरह होता दिख रहा है। कामारेड्डी विधानसभा सीट पर भाजपा के के वी रमना रेड्डी के खिलाफ तत्कालीन मुख्यमंत्री और भारत राष्ट्र समिति के सर्वेसर्वा के चंद्रशेखर राव और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता के रेवंथ रेड्डी चुनावी मैदान में थे। भाजपा के के वी रमना रेड्डी ने दोनों वरिष्ठ नेताओं को करारी मात दी थी। कामारेड्डी सीट पर तीसरे पायदान पर आने वाले कांग्रेस पार्टी के रेवंत रेड्डी मुख्यमंत्री बने।
कामारेड्डी सीट सहित कई अन्य उद्धरणों से यह सोच कि केजरीवाल को नई दिल्ली सीट से चुनाव हराना अत्यंत दुष्कर है यह सच नहीं है। पूर्व में कई असोचनीय चुनाव परिणाम आये है। 2021 की पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में नंदीग्राम सीट पर भाजपा के सुवेंदु अधिकारी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हरा दिया था। ओडिशा में 2024 में हुए विधानसभा चुनाव में ओडिशा राज्य के सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहे नवीन पटनायक कांटाबांजी विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के लक्मण बाग से 16 हज़ार से भी अधिक मतों से चुनाव हार गए थे। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि अनेक बड़े नेताओं को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का नाम भी शामिल है जब वो 1977 में अपनी परंपरागत लोकसभा सीट रायबरेली से 55202 वोटों से चुनाव हार गई थीं। अमेठी से नेता विपक्ष राहुल गांधी 2019 में चुनाव हार गये थे।
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