लोकतंत्र पाश्चात्य विद्यालय का एक आधुनिक अर्थ और 18वीं सदी का उप-उत्पाद है। अक्सर प्रक्षेप पथ के कुछ विद्वान यह तर्क देते हैं कि अमेरिकी अमेरिकी व फ्रांसीसी क्रांति आधुनिकतावाद और लोकतंत्र का उद्गम स्थल है। इसी क्रांति ने मध्ययुग के अंत को चिह्नित किया था।
प्रजातंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र के बीच अंतर जानने के लिए इन शब्दों की बहुत बारीकी से जांच करनी होगी। तीसरी अवधारणा यानी लोकतंत्र आमतौर पर आधुनिक शब्द ‘डेमोक्रेसी’ का अनुवाद है। आधुनिक लोकतंत्र का सार स्वतंत्र इच्छा का अभ्यास करने और उसे स्वीकार करने में निहित है, जो शायद फ्रांसीसी क्रांति तक पश्चिमी यूरोप में सबसे अधिक दबाया गया विचार था। लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि 1870 में फ्रांस में पांचवें गणतंत्र का उदय काफी उथल-पुथल और बड़े पैमाने पर हत्या के बाद ही हो सका। इससे पता चलता है कि लोकतंत्र का दर्शन फ्रांसीसी समाज में अंतर्निहित नैतिकता नहीं था। इसका विकास केवल सैद्धांतिक रूप से किया गया था।
ने जब जर्मनी के एक उपासना स्थल की दीवारों पर नाइनटी फाइव थीसिस चिपका दी तो उसे अपनी जान बमार्टिन लूथर चाने के लिए भागना पड़ा। लूथर ने 1517 में नाइनटी फाइव थीसिस लिखी थी। तीन साल बाद 1520 में पोप लियो एक्स ने लूथर से अपने सभी लेखों को त्यागने को कहा। लेकिन जब लूथर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, तो उसे (जनवरी 1521 में) समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। बाद में उसी वर्ष रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम ने डाइट आफ वर्म्स (मार्टिन लूथर की शिक्षाओं को संबोधित करने के लिए रोमन साम्राज्य के राजनीतिक और पांथिक अधिकारियों की एक बैठक) में डाकू कह कर लूथर की निंदा की। यहां तक कि 1546 में जब लूथर की मृत्यु हुई, तब भी पोप का बहिष्कार प्रभावी था। वहीं, इससे कुछ वर्ष पहले भारत में संत कबीर सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे उठा रहे थे, लेकिन उन्हें समुदाय से बाहर नहीं किया गया। इससे स्पष्ट है कि जनतंत्र का दर्शन भारतीय लोकाचार का अभिन्न अंग था। यानी लोकतंत्र पश्चिम का हस्तक्षेप नहीं है।
विचारों और मानवीय संस्थाओं के मामले में भारत में स्वशासन की जड़ें वैदिक युग में जाती हैं। राखीगढ़ी भारत में सिंधु घाटी सभ्यता वाले धोलावीरा के बाद दूसरा विशालतम ऐतिहासिक नगर है। राखीगढ़ी हरियाणा के हिसार जिले में स्थित एक गांव है, जहां 5,000 वर्ष पूर्व हड़प्पा सभ्यता विकसित हुई थी। वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं। ये लोकतंत्र को एक स्वशासित समाज और राजनीति के रूप में दर्शाते हैं, जिसमें गांव से लेकर राज्य तक सभी स्तरों पर, सभी लोगों को अपनी बात कहने का अधिकार है। वे उस समय की एक प्रणाली को चुनकर, नामांकित करके या चुनकर शासन में भाग लेते हैं।
इसमें अतिश्योक्ति नहीं कि ‘गांव’ नामक इकाई के माध्यम से भारत के सामाजिक-राजनीतिक मानदंडों की समग्रता के संदर्भ में पारंपरिक प्रणालियों तक पहुंचा जा सकता है। अमेरिकी दार्शनिक जॉन डेवी कहते हैं, ‘ग्रामीण समुदाय छोटे गणतंत्र हैं, वे वहां टिकते हैं, जहां कुछ भी नहीं टिकता।’ एक के बाद एक राजवंश ढहते गए, लेकिन ग्रामीण समुदाय वहीं बना रहा। जब वे हमलों का विरोध नहीं कर पाते हैं, तो दूर किसी मित्र गांव में चले जाते हैं और जब सब कुछ शांत हो जाता है, तो लौट कर अपने काम-धंधे फिर से शुरू कर देते हैं।
लंबे समय से गांव को ‘पारंपरिक’ भारतीय समाज और उसके प्रशासनिक तंत्र को समझने के लिए एक सुविधाजनक प्रवेश बिंदु के रूप में देखा जाता रहा है।
सामाजिक संस्थाएं अपने अखंड रूप में अस्तित्व में थीं। वे व्यक्तिवादी नहीं, बल्कि सामूहिकतावादी थीं और लोकतंत्र का अनिवार्य अंग थीं। स्वशासन के उद्देश्य से विभिन्न परिवारों के अंतर-संबंधों को ग्राम समुदाय द्वारा नियंत्रित किया जाता था। मामलों के प्रबंधन में नियम पारंपरिक थे और एक अनोखी संस्था, जो किसी गांव में पारंपरिक नियमों के माध्यम से प्रशासन का प्रबंधन करती थी, वह पंचायत थी। लेकिन जेरेमी बेंथम जैसे औपनिवेशिक विचारकों ने इसकी गलत व्याख्या की और पंचायत को आंशिक न्यायिक सक्रियता की एक इकाई की अपनी समझ तक सीमित कर दिया। इस प्रकार, औपनिवेशिक घालमेल ने पंचायत की सदियों पुरानी लोकतांत्रिक संस्था, जहां भरत रहते थे, की भ्रामक व्याख्याएं कीं।
गांव की सरकार आमतौर पर गांव के मुखिया की देखरेख और निर्देशन में चलती थी। वैदिक साहित्य में उन्हें ग्रामणी कहा गया है। जातकों में भी इसका उल्लेख मिलता है। ग्राम प्रधानों को उत्तर भारत में ग्रामिका या ग्रामेयका, जबकि पूर्वी दक्कन में मुनुंदा, महाराष्ट्र में ग्रामुकुट या पट्टकिला, कर्नाटक में गवुंडा और भारत के अन्य हिस्सों में महत्तका या महंतका कहा जाता था। ग्राम सभाओं ने धीरे-धीरे पहले के समय की लोकप्रिय सभाओं का विकास किया था, जो अपनी बैठकों में धार्मिक और राजनीतिक मामलों पर चर्चा करती थीं। उस समय ऐसे मामलों में शायद ही कोई भेदभाव किया जाता था। शिलालेखों में इनका उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलता है। नियमत: प्रत्येक सभा का अपना संविधान होता था और अमूमन इसमें अधिक अंतर नहीं होता था। पंचायत न केवल भारत के ‘प्राचीन संविधान’ का एक हिस्सा थी, बल्कि ग्राम प्रधान की तरह यह मजबूत और कमजोर, दोनों राजाओं और राजकुमारों के तहत बड़े पैमाने पर स्वतंत्र रूप से कार्य करती थी।
हालांकि, 19वीं शताब्दी के दौरान पंचायत की सदियों पुरानी लोकतांत्रिक संस्था, जिसे प्राचीन प्रथाओं और लोकतांत्रिक परंपराओं का धारक माना जाता था, उदार सुधारवादी औपनिवेशिक एजेंडे के तहत एक प्रकार से नगर निकाय में बदल दी गई थी। औपनिवेशिक घालमेल ने न केवल जमीनी स्तर पर प्रबंधकीय प्रणाली, बल्कि समग्र रूप से सामाजिक ताने-बाने को भी गंभीर रूप से विकृत कर दिया। साम्राज्य की मूर्खताओं ने सामुदायिक विकास को तोड़ दिया, ऐतिहासिक प्रक्षेप पथों को विकृत कर दिया और उन समाजों को हिंसक बनने के लिए विवश किया, अन्यथा उनके पास सह-अस्तित्व का अलग रास्ता होता।
पंचायत के गूढ़ रहस्य को मुंशी प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध लघु कहानी ‘पंच-परमेश्वर’ (1916) में बहुत अच्छे तरीके से चित्रित किया है। कहानी का शीर्षक सबसे पहले अंग्रेजी में Holy Panchayat अनूदित किया गया था। ‘पंच परमेश्वर’ में दो पात्र हैं- अलगू और जुम्मन। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ जो एक-दूसरे के मामले में पंचायत में सरपंच के रूप में निर्णय सुनाते हैं।
पहले अलगू ने बतौर सरपंच जुम्मन के खिलाफ फैसला सुनाया था। फिर कुछ दिन बाद अलगू से जुड़े एक मामले में जुम्मन सरपंच बना, तो उसने अलगू के पक्ष में फैसला सुनाया। प्रेमचंद लिखते हैं, ‘‘जुम्मन पंचायत की भावना से प्रभावित था और उसने मन में सोचा ‘मैं न्याय और धर्म के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा हूं।’ मेरे होठों से जो भी निकलेगा, उसे भगवान के शब्दों के समान ही सम्मान दिया जाएगा। मुझे सच्चाई से एक इंच भी विचलित नहीं होना चाहिए।’’
जुम्मन को यह भी समझ में आ गया कि अलगू ने भी पहले वाले मुकदमे में न्याय ही किया था। वह अपने पुराने दोस्त से कहता है, ‘‘आज एक पंच के रूप में मुझे पता चला कि मैं न तो किसी का दोस्त हूं और न ही किसी का दुश्मन। पंच को न्याय के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता। आज मुझे विश्वास हो गया है कि भगवान पंच के होठों से बोलते हैं।’’ न्याय निश्चित रूप से भारतीय समाज और संस्कृति के लिए अद्वितीय नहीं है। अपनी तमाम बहुलता के बावजूद आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा सफल लोकतंत्र है। दुनिया के लिए यह आश्चर्य की बात हो सकती है। यहां वैदिक काल से ही लोकतांत्रिक परंपरा रही है। यहां के लोग समानता की भावना से ओत-प्रोत हैं।
टिप्पणियाँ