हर सच्चा भारतीय शौर्य व संस्कार से आपूरित अपने गौरवशाली अतीत पर सदैव गौरवान्वित होता है। इतिहास गवाह है कि जब-जब विदेशी आक्रान्ता लुटेरों व षड्यंत्रकारियों ने छल-बल से हमारी धर्म-संस्कृति को नष्ट करने के कुत्सित प्रयास किये; तब-तब भारतमाता के महान रणबांकुरे वीरों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया। भारतभूमि की इस महान बलिदानी परम्परा में सिख पंथ के दशम गुरु गोबिंद सिंह अद्वितीय स्थान रखते हैं। नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार सन् 1666 में पौष माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि ( इस वर्ष 6 जनवरी) को नौवें सिख गुरु तेगबहादुर की पत्नी गूजरी देवी ने बिहार प्रांत के पटना शहर में जिस तेजस्वी बालक को जन्म दिया था; उसकी अप्रतिम शौर्य गाथा भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। मात्र छह-सात साल की छोटी सी आयु में हजारों कश्मीरी पंडितों की रक्षा के लिए खुद अनाथ होना स्वीकार कर पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित करने वाले इस महान विभूति ने अपने युग की आतंकवादी शक्तियों के विनाश और धर्म व न्याय की प्रतिष्ठा के लिए शस्त्र उठाया और एक नये पंथ का सृजनकर सिख समाज को सैनिक परिवेश में ढाला।
काबिलेगौर हो कि भारतीय धर्म, संस्कृति व राष्ट्रहित के लिए अपना समूचा वंश न्यौछावर कर देने वाले सिख धर्म के दशम गुरु की ख्याति अप्रतिम योद्धा, अनुपम संगठनकर्ता व सैन्य नीतिकार के साथ महान आध्यात्मिक चिंतक, मौलिक विचारक व उत्कृष्ट लेखक की भी है। उनकी रचनाओं में बछित्तर नाटक (आध्यात्मिक जीवन दर्शन), चंडी चरित (मां दुर्गा की स्तुति), कृष्णावतार (भागवत पुराण के दशम स्कन्ध पर आधारित), गोविन्द गीत, प्रेम प्रबोध, जप साहब, अकाल स्तुति, चौबीस अवतार व नाममाला (पूर्व गुरुओं, भक्तों एवं संतों की वाणियों का संकलन) विशेष रूप से लोकप्रिय है। वे बहुभाषा विदथे। मातृभाषा पंजाबी के साथ संस्कृत, हिंदी, ब्रजभाषा, उर्दू, फ़ारसी और अरबी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। विभिन्न भाषाओं के 52 लोकप्रिय कवि, लेखक व विचारक उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। सिख कानून को सूत्रबद्ध करने का श्रेय भी दशम गुरु को जाता है। यही नहीं, “दशमग्रंथ” (दसवां खंड) लिखकर “गुरु ग्रन्थ साहिब” को पूर्ण कर उसे “गुरु” का दर्जा भी इसी महामानव ने दिया था। कारण कि वे इस तथ्य से भली भांति अवगत थे कि सांसारिक स्थितियां व्यक्ति को पतित बना सकती हैं किन्तु शब्द व विचार सदैव शुद्ध व पवित्र ही रहते हैं। जनसाधारण में सरबंसदानी, कलगीधर, दशमेश गुरु आदि नामों से जाने जाने वाले सिख धर्म की दसवीं जोत गुरु गोविन्द सिंह अपने आध्यात्मिक जीवन दर्शन ‘’बछित्तर नाटक’’ में अपने जीवन का सारा श्रेय सर्वज्ञ प्रभु को देते हुए कहते हैं, “मैं हूं परम पुरख को दासा, देखन आयो जगत तमाशा।” इस महामानव की जयंती पर आइए डालते हैं उनके जीवन से जुड़े अप्रतिम स्मृति केंद्रों पर एक दृष्टि-
जन्मस्थली अकाल तख्त ‘’श्री पटना साहिब’’
बिहार के पटना शहर में स्थापित अकाल तख्त श्री पटना साहिब गुरु गोबिंद सिंह जी की पावन जन्मस्थली के रूप में समूची दुनिया में विख्यात है। आज से साढे तीन सौ साल पहले सन् 1664 ई. में पौष सुदी की सातवीं तिथि को यहीं पर नवें गुरु तेगबहादुर जी के पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ था। देश के पांच शीर्ष अकाल तख्तों में शामिल इस गुरुद्वारे में गोबिंद सिंह जी द्वारा हस्ताक्षर की हुई गुरु ग्रंथ साहिब, उनके बालपन का पालना (झूला), बचपन की तलवार, लोहे के तीर, चकरी, कंघा और पादुका आदि वस्तुएं रखी हैं। लगभग 108 फीट ऊंचा यह भव्य सतमंजिला गुरुद्वारा सिख धर्मावलम्बियों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है।
खालसा पंथ की बुनियाद स्थली ‘’आनन्दपुर साहिब’’
पंजाब में जिला मुख्यालय रूपनगर से लगभग 40 किलोमीटर की दूर शिवालिक पहाड़ियों की गोद में सतलज नदी के पूर्वी किनारे पर बसा आनन्दपुर साहिब सुप्रसिद्ध सिख धर्मस्थल है। देश के पांच शीर्षस्थ सिख संस्थानों में शुमार इस गुरुद्वारे का निर्माण 1665 में गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता गुरु तेग बहादुर से कराया था। यहां गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने मामा कृपालचंद के संरक्षण में शुरुआती शिक्षा-दीक्षा के साथ न सिर्फ स्वयं अस्त्र-शस्त्र चलाने में प्रवीणता हासिल की वरन आनन्दपुर को एक अजेय सैन्य केन्द्र के रूप में विकसित किया। उन्होंने सन् 1699 में बैसाखी के दिन यहीं पर खालसा पंथ की बुनियाद रखी थी और इस स्थान को ‘’केशगढ़ साहिब’’ का नाम दिया था। इस गुरूद्वारे में गुरु जी से जुड़े कई ऐतिहासिक अवशेष सुरक्षित हैं। इनमें उनकी दुधारी तलवार, अमृत तैयार करने के लिए इस्तेमाल किया गया लोहे का कटोरा और अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह द्वारा गुरु को भेंट की गयी एक बंदूक व कई अन्य वस्तुएं शामिल हैं।
गुरु गोबिंद सिंह की काशी ‘’दमदमा साहिब’’
बठिंडा (पंजाब) से 28 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में तलवंडी साबो में स्थित दमदमा साहिब तख्त भी सिखों के प्रमुख तीर्थ में शामिल है। यह स्थान गुरु गोबिंद सिंह की काशी के रूप में जाना जाता है। मुगलों से युद्ध के बाद वे यहां नौ महीने रुके थे। गुरु गोबिंद सिंह नहीं चाहते थे कि सिख समाज में कोई भी व्यक्ति अनपढ़ रहे; इसलिए उन्होंने इस स्थान को एक शिक्षा केन्द्र के रूप में विकसित किया था और अक्षर ज्ञान के साथ विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों के संचालन का केन्द्र बनाया था। गुरु जी के आदेश व मार्गदर्शन में उनके एक सहयोगी भाई मीणा सिंह ने सिख समाज को “गुरुमुखी” सिखाने के उद्देश्य से इस स्थान पर “पवित्र मात्रा” नामक एक ग्रन्थ की भी रचना की थी। कहा जाता है कि गुरु जी के जीवनकाल में यहां देश भर के सिख समाज के लोग शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इस गुरुद्वारे में गुरु के कई पवित्र लेख व शैक्षिक वस्तुएं आज भी संग्रहीत हैं। पंजाब सरकार द्वारा यहां स्थापित किये गये एक स्तम्भ में इस स्थल से जुड़ी गुरु गोबिंद सिंह की विभिन्न गतिविधियां व उपलब्धियां अंकित हैं।
दशम गुरु की सृजन स्थली ‘’श्री पांवटा साहिब’’
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में दक्षिणी ओर की तरफ यमुना नदी के तट पर स्थित गुरुद्वारा पांवटा साहिब गुरु गोबिंद सिंह और उनके एक प्रमुख शिष्य बंदा बहादुर की स्मृतियों से जुड़ा है। पांवटा का शाब्दिक अर्थ है “पैर जमाने की जगह”। लोग इसे पौंटा साहिब भी बुलाते हैं जो पावंटा का ही अपभ्रंश है। गुरु गोबिंद सिंह जी पांवटा साहिब में करीब चार साल रहे थे और यहीं उन्होंने “दसम ग्रंथ” समेत की कई रचनाएं की थीं। इस गुरुद्वारे को उनके ऐतिहासिक कवि दरबार का दर्जा हासिल है। कहते हैं कि उस समय के प्रसिद्ध सूफी संत बुद्धूशाह को गुरु साहिब ने यहां पवित्र कंघा और सिरोपा बख्शीश दी थी। कलगीधर पातशाह यहां खुद वाणी की सृजना किया करते थे। उन्होंने “जाप साहिब, “चण्डी दी वार”, नाममाला, बछित्तर नाटक आदि अनेक रचनाएं इस स्थान पर कीं। उनके इस दरबार में 52 कवि भी काव्य रचनाएं किया करते थे। कहते हैं कि यहां कवियों की विनती पर गुरुजी ने यमुना को शान्त होकर बहने को कहा था। तब से यमुना जी आज भी गुरुजी का हुक्म मान यहां शान्ति से बह रही हैं। इस धार्मिक स्थल पर सोने से बनी एक पालकी है जो कि एक भक्त द्वारा गुरु जी को भेंट दी गई थी। साथ गुरुद्वारा परिसर में बने एक संग्रहालय में गुरु जी की कलम व उनके हथियार संरक्षित हैं।
देहावसान स्थल ‘’तख़्त सचखंड श्री हजूर साहिब’’
दक्षिण की गंगा कही जाने वाली पावन गोदावरी के तट पर बसे महाराष्ट्र के नांदेड शहर में स्थित तख़्त सचखंड श्री हजूर साहिब विश्वभर में प्रसिद्ध है। सन 1708 में सिखों के अंतिम गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने प्रिय घोड़े दिलबाग के साथ यहीं पर अंतिम सांस ली थी। यहीं से उन्होंने औरंगजेब को फारसी भाषा में एक पत्र लिखा था जो इतिहास में “जफरनामा” के नाम से विख्यात है। गुरु जी का यह पत्र सिख इतिहास की अमर निधि मानी जाती है। इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब पश्चाताप से भर गया था और कुछ ही समय बाद उसने शरीर छोड़ दिया। पांच पवित्र तख्तों (पवित्र सिंहासन) में से एक इस गुरुद्वारे को सचखंड (सत्य का क्षेत्र) नाम से भी जाना जाता है। गुरुद्वारे का आतंरिक कक्ष “अंगीठा साहिब” ठीक उसी स्थान पर बनाया गया है जहां सन 1708 में गुरु जी का दाह संस्कार किया गया था।
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