राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने 19 दिसंबर, 2024 को पुणे में आयोजित 23वीं सहजीवन व्याख्यानमाला में ‘भारत विश्वगुरु’ विषय पर अपने विचार रखे। उन्होंने हिंदू राष्ट्र के रूप में भारत के समावेशी समाज की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमें दुनिया को दिखाना होगा कि भारत के पास सामंजस्य का एक मॉडल है। उन्होंने कहा कि क्या दुनिया को वास्तव में एक विश्वगुरु की आवश्यकता है? भले ही दुनिया तेजी से प्रगति कर रही है, परंतु आज के समय में व्यक्तिगत स्वास्थ्य और पर्यावरणीय क्षरण से लेकर वैश्विक संघर्ष तक हो रहे हैं। यानी सब कुछ सही नहीं चल रहा है।
उन्होंने कहा कि स्वामी विवेकानंद की 162वीं जयंती 12 जनवरी, 2025 को विश्वभर में मनाई जाएगी। उनका एक सुंदर उद्धरण है, ‘हर राष्ट्र की एक नियति है, जिसे उसे पूरा करना होता है। हर राष्ट्र का एक संदेश है, जिसे उसे देना होता है। हर राष्ट्र का एक मिशन है, जिसे उसे पूरा करना होता है।’ तो आज की विश्व-दृष्टि में भारत की क्या भूमिका है? आज दुनिया पहले से बहुत ज्यादा सुखी है। आज हमारे पास कई सुविधाएं हैं। गर्मियों में एसी है, सर्दियों में हीटर, सारी जानकारी एक क्लिक पर उपलब्ध है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में भी ज्यादा समय नहीं लगता। तकनीक इतनी उन्नत हो गई है कि असाध्य बीमारियों का इलाज भी संभव हो गया है। अगर सब कुछ ठीक चल रहा है तो फिर गुरु की आवश्यकता क्यों है? चार प्रतिशत जनसंख्या 80 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग करती है। वे अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। अमीर लोग एकजुट होते हैं और अपनी मर्जी से सब कुछ करते हैं। इससे अधिकतम लोगों का अधिकतम भला नहीं हो रहा, बल्कि कुछ लोगों का ही भला हो रहा है। हम कौन हैं, हमारी पहचान क्या है, यह कभी संघर्ष का कारण नहीं होना चाहिए। हमने हमेशा सभी प्राणियों को अपना माना है। हम विविधता में भी सामंजस्य से जीने का प्रयास करते हैं।
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श्री भागवत ने कहा कि पश्चिमी दृष्टिकोण ‘सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट’ और ‘सब कुछ अपने लिए’ पर विश्वास करता है। इसके तहत इंसान केवल अपने स्वार्थी हितों के बारे में सोचता है और प्रकृति और पर्यावरण की चिंता नहीं करता। इस प्रक्रिया में इंसान ने अपने बौद्धिक कौशल से खुद को खाद्य श्रृंखला के सबसे नीचे से उठाकर सबसे ऊपर ला दिया, लेकिन इस दौरान उसने अपने उपभोग के लिए अधिकांश प्राकृतिक संसाधनों का विनाश कर दिया। यह सोचकर कि प्रकृति का नियम यही है, हमारा जीवन जीने का तरीका पिछले 2000 वर्ष में विकसित हुआ है, और आज हमें आर्थिक उथल-पुथल और जलवायु परिवर्तन जैसी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने तर्क दिया कि भारत अपने सांस्कृतिक संदर्भ और राष्ट्रीय आचार-धर्म के कारण इस दृष्टिकोण से विपरीत है।
पश्चिमी मॉडल ने अर्थ और काम (भौतिक इच्छाओं) के साथ मोक्ष पर विचार किया है, लेकिन धर्म के आयाम को छोड़ दिया है। पश्चिमी विचार ने मानव के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक पहलुओं पर ध्यान दिया, लेकिन आत्मा के आध्यात्मिक तत्व को नहीं देखा। इसलिए भारत को एक उम्मीद के रूप में देखा जाता है और यह दुनिया के लिए एक मार्गदर्शक शक्ति हो सकता है। उन्होंने कहा कि हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम क्या हैं और कौन हैं। हमारा राष्ट्र राजनीतिक प्रक्रिया का उत्पाद नहीं है, बल्कि यह साझी संस्कृति और धर्म की अवधारणा पर आधारित है। संपूर्ण विविधता अंतर्निहित एकता की अभिव्यक्ति है। हम भगवान को जैसे हैं वैसे ही देख सकते हैं, यही हमारा विश्वास है। कौन हैं हम, हमारी पहचान संघर्ष का विषय नहीं हो सकती। हमने हमेशा सभी प्राणियों को अपना माना है। पश्चिमी मॉडल की अंधी नकल हमारी वास्तविक क्षमता को महसूस करने के लिए हानिकारक है। इसलिए हमारी राष्ट्रीय पहचान संघर्ष का नहीं, बल्कि सहमति का विषय होनी चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘केवल वही सही है जो हम मानते हैं’, यह विचार हमारे राष्ट्रीय जीवन के साथ सामंजस्यपूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए जबरन कन्वर्जन और किसी अन्य की उपासना पद्धति का अपमान हमारे राष्ट्रीय जीवन के खिलाफ है। कुछ विचारधाराएं भारत के बाहर से आई हैं, जिनमें परंपरागत रूप से असहिष्णुता है। वे इस देश पर किसी समय शासन कर चुके हैं, इसलिए वे फिर से शासन करने का अधिकार महसूस करते हैं। लेकिन वे ये भूल जाते हैं कि हमारा देश संविधान के अनुसार चलता है।
उन्होंने कहा, ‘‘हमारी संस्कृति हमें यह सिखाती है कि हम आपकी आस्था और विश्वास के साथ आपको स्वीकार करते हैं, लेकिन बार-बार हमें धोखा मिला है। अंतिम धोखा तब मिला जब औरंगजेब ने अपने भाई दारा शिकोह और उनके जैसे अन्य लोगों को मार दिया। इससे असहिष्णुता की एक नई लहर आई। यह लहर 1857 में फिर से उभरी। अंग्रेजों ने देखा कि ये लोग आपस में लड़ते हैं, लेकिन जब कोई विदेशी अत्याचारी आता है तो वे एकजुट हो जाते हैं। इसलिए उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’की नीति अपनाई। इसका परिणाम पाकिस्तान के निर्माण के रूप में हुआ। हम भारतीय हैं, हम एक हैं तो फिर यह अलगाव, श्रेष्ठता, सर्वोच्चता की बातें क्या हैं? कौन हैं अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक? हम सब बराबर हैं। इसलिए हमें असहिष्णुता को भूलकर राष्ट्र की समावेशी संस्कृति का
हिस्सा बनना चाहिए।’’
उन्होंने कहा, ‘‘जो लोग इस संस्कृति के रक्षक हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि डर तब ही पैदा होता है जब हम बिखरे होते हैं। एकजुट हो जाओ, शक्तिशाली बनो। अपनी क्षमता को इतना बढ़ाओ कि जो लोग आपको डराने का प्रयास करते हैं, वे खुद डर जाएं। लेकिन दूसरों को मत डराओ, ऐसे भारतीय बनो।’’
श्री भागवत जी ने कहा, ‘‘अंग्रेजों ने हमारा देश नहीं बनाया है यह सनातन है, यह सदैव रहा है। यह राजनीति पर नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति और सत्य पर आधारित है। हमारे देश की नींव वह धर्म है जो सृष्टि के प्रारंभ से है। हमें इस ऐतिहासिक सत्य को समझना चाहिए। ‘कहना कुछ और करना कुछ’ यह कायरता की निशानी है। जातिगत भेदभाव के विचारों को पूरी तरह से समाप्त कर देना चाहिए। हम सर्वोच्च ज्ञान का हमेशा से उच्चतम सम्मान करते आए हैं। जो साधु-संत हमें धर्म, संस्कृति और सत्य की वास्तविकता बताते हैं, हमें उनका अनुसरण करना चाहिए। वे साक्षात्कारकारी होते हैं, जो हमेशा सत्य से जुड़े होते हैं। भारत इस परंपरा का सदैव आशीर्वाद प्राप्त करता रहा है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘आज भारत फिर से आत्मविश्वास प्राप्त कर रहा है और वैश्विक मंच पर अपना उचित स्थान स्थापित कर रहा है। ऐसी स्थिति में, हमारा आचरण कैसा होना चाहिए और हमें दुनिया के सामने ऐसा मॉडल कैसे प्रस्तुत करना चाहिए, ताकि वे हमें एक मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार करें।’’
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